कृषि

हरित क्रांति के साथ ही शुरू हुई दलहन की खेती की उपेक्षा

हरित क्रांति के संकर बीजों, रासायनिक खाद, कीटनाशक जहर व खरपतवार नाशी संसाधनों ने स्वावलंबी घर की खेती को पराया बना दिया

DTE Staff

विजय जड़धारी

“घर की मुर्गी दाल बराबर” वाली कहावत आम है किन्तु इसके उलट मैंने एक कहावत कही थी, “घर की दाल मुर्गी बराबर” लेकिन अब मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि घर की दाल, मुर्गी बराबर नहीं अपितु उससे बढ़कर है। हमारी खेती और खानपान की संस्कृति में दालों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है।

चिंता की बात यह है कि दालों का आयात दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है लेकिन गरीबों की भोजन की थाली पर मंहगी दालें नसीब नहीं हो पा रही हैं। फलस्वरूप कुपोषण बढ़ता जा रहा है।

इसका मतलब यह नहीं कि यहां की मिट्टी, बीज एवं ज्ञान न होने के कारण किसान दलहन नहीं उगाते, लेकिन नियोजन की कमी है। यहां हिमालय की चोटी से लेकर सागर किनारे केरल तक दलहन की विविधता युक्त खेती होती थी, जो अब घटती जा रही है।

आम आदमी काली दाल (उड़द) पीलीदाल (अरहर) चना, मसूर मूंग व राजमा की एक दो किस्में ही जानता है, किंतु अब भी थोड़ा पड़ताल करने पर पता चलता है कि दालों की विविधता के मामले में प्रकृति ने हमें अमीर बनाया है। छोटे से राज्य उत्तराखण्ड में हमने बीज बचाओ आंदोलन की दूर-दूर की यात्राएं कर दालों का संकलन व उत्पादन शुरू किया।

हम इस नतीजे पर पहुंचे कि राजमा जिसे पहाड़ में छेमी कहते हैं, दालों की सरताज है। राजमा की लगभग 220 विविधता युक्त प्रजातियों हमारे संकलन में हो गई हैं जिन्हें हम उगाकर हर साल नई प्रजातियां बढ़ाते हैं। राजमा के कुछ बीज बड़े तो कुछ भट्ट (पारंपरिक सोयाबीन) के बराबर होते हैं। राजमा, दाल पोषण में उड़द व मूंग से बेहतर है।

अन्य दालों में भट्ट की 6 प्रजातियां, लोबिया की 12, गैहथ (कुल्थ) की 4, मसूर की 4, उड़द की 2 (जौतसर में सफेद उड़द की तलाश जारी है) है। इसी तरह तोर (तुअर), मूंग, मटर, चना, मौठ, गुरूंश, रगड़वांस, कुरफली घेंडुड़ी व घांल्डा आदि लगभग डेढ़ दर्जन से भी अधिक दालों की लगभग 300 किस्मों तक हम पहुंचने के करीब हैं।

यह हमारा जीन बैंक है। किसानों के साथ बीज की अदला-बदली कर हर साल इसे आगे बढ़ाया जा रहा है। पारखी लोगों ने सीजन अनुसार, दालों को खानपान से जोड़ा है। कुल्थ की दाल जो लोग खाते हैं, उन्हें कभी पथरी रोग नही होगा और यदि गुर्दे की पथरी है तो कुल्थ का सूप पियें, पथरी बिना ऑपरेशन के टूट-टूट कर पेशाब के साथ निकल जाएगी। गुरूंश व रगड़वांस की दाल पेट के रोगों के लिए बहुत ही उपयोगी है। तोर व कुल्थ की दाल सर्दी जुकाम भगाने में रामबाण औषधि है।

दालें खानपान की संस्कृति में जुड़ी हैं। दिन के खाने में यदि दाल-भात के अलावा कुछ और खाया तो समझो खाना अधूरा रह गया। इसी तरह पंजाब व अन्य इलाकों में दाल-रोटी प्रमुख खाना है। दालें पकाकर चावल-रोटी व अन्य खाने के साथ खासतौर पर तो खाई जाती हैं किंतु एक-एक दाल के दर्जनों अन्य पकवान अलग स्वाद, गुणवत्ता व तासीर के रूप में खाने की महान परंपरा है। कुमाऊ में भट्ट की दाल का “चुड़कानी” डुबका मशहूर है तो उड़द दाल के पकौड़ों के बिना दीपावली उत्सव व जिन्दगी के सभी शुभकार्य संपन्न नहीं होते।

दालों की खेती अलग-अलग खेतों में भी की जाती है किंतु पर्यावरण व पारस्थितिकीय ढंग से बारहनाजा व रामदाना के साथ मिश्रित खेती के रूप में भी दालें उगाई जाती है। पहाड़ों में बारहनाजा की मिश्रित खेती एक पुरातन खेती की पद्धति है, जिसमें मंडुआ के साथ रामदाना, ज्वार, ओगल (कुट्टू) राजमा, कुल्थ (गैथ) भट्ट (पारंपरिक सोयाबीन) लोबिया, नौरंगी, उड़द, मूंग, तिल व भंगजीर जैसे खाद्यान, दलहन-तिलहन मिश्रित रूप से उगाए जाते हैं। फसलों की संख्या कम ज्यादा हो सकती है। रामदाना, ज्वार, मंडुआ ऊंचे तने वाले होते हैं।

खेत में उग रही दालें उनसे दोस्ती के लिए आतुर रहती हैं और बेल बनते ही प्यार से उन पर लिपटकर दोनों ऊपर उठते हैं। पकने पर अनाज और दालों की अच्छी पैदावार मिलती है। दलहन की खेती की उपेक्षा 1960-70 के दशक से हरित क्रांति के साथ शुरू हुई थी। हरित क्रांति के संकर बीजों, रासायनिक खाद, कीटनाशक जहर व खरपतवार नाशी संसाधनों ने स्वावलंबी घर की खेती को पराया बना दिया। उपभोक्ताओं का स्वास्थ्य भी बिगड़ा। 1961 में दलहन की खेती की हिस्सेदारी 17 प्रतिशत थी जो 2009 में घटकर 7 प्रतिशत रह गई। इस तरह दालें गरीबों के भोजन की थाली से गायब होती गईं और कुपोषण बढ़ता गया।

(लेखक विजय जड़धारी बीज बचाओ आंदोलन के प्रणेता हैं)