कृषि

भारत में दलहन नीति की आवश्यकता

हर भारतीय रसोई में दाल का तड़का भारतीय आहार की एक विशिष्ट पहचान है ,जो अनाज के पूरक के साथ एक उच्च स्तरीय प्रोटीन का आदर्श मिश्रण प्रस्तुत करती है। दालों में विभिन्न अमीनो एसिड की उपस्थिति वाले शरीर निर्माण गुणों के कारण इनका सेवन किया जाता है। इनमें औषधीय गुण भी होते हैं।

दलहन के उत्पाद जैसे पत्ते, पॉड कोट और चोकर पशुओं को सूखे चारे के रूप में दिए जाते हैं। कुछ दलहनी फसलें जैसे चना, लोबिया, उरदबीन और मूंग को हरे चारे के रूप में पशुओं को खिलाया जाता है। मूंग के पौधों का उपयोग हरी खाद के रूप में भी किया जाता है जो मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार करता है और मिट्टी में पोषक तत्व जोड़ता है।

भारत और दुनिया में कई दलहनी फसलें उगाई जाती हैं। फसलों में प्रमुख हैं चना, अरहर, मसूर, मटर आदि। भारत में अखिल भारतीय मेडिकल काउंसिल की रिपोर्ट के मुताबिक खुराक़ में विभिन्न रंगो के खाद्य पदार्थों का बड़ा महत्व है। 5 वर्ष तक के आयु के बच्चों को तीन रंग का खाना (तिरंगा खाना) और वयस्कों को सात रंग (सतरंगी खाना) जो हमें इन्द्रधनुष की याद दिलाता है, दालों का इसमें अत्यंत ही महत्वपूर्ण स्थान है।

कोई आश्चर्य नहीं कि भारत दालों का सबसे बड़ा उत्पादक और उपभोक्ता है। दालों की आपूर्ति अधिकतर योजनावधि में, मांग की तुलना में कम रही है, जिससे देश को बड़ी मात्रा में दालों का आयात करना पड़ा है। खाद्यान्न पदार्थों में अमरीका पर निर्भरता और अकाल से जूझती भारतीय जनमानस को हरित क्रांति और दुग्ध क्रांति ने एक आम भारतीय की थाली में खाद्य पदार्थों की मात्रा तो बढ़ा दी लेकिन गुणात्मक रूप से देखने पर देश की अधिकतर आबादी प्रोटीन इन्फ्लेशन के कारण प्रोटीन की कमी की समस्या से सामना कर रही है।

अगर योजनावधि में विश्लेषण वर्ष 1950-51 से 2018-19 तक कृषि उत्पादन की प्रवृत्ति अनाज और दाल का तुलनात्मक अध्ययन करें तो जहाँ इस दौरान अनाज में गेहूं का इंडेक्स 64 से बढ़कर 991 तक पहुंच गया वहीं दालों का इंडेक्स 84 से बढ़कर महज 240 स्तर तक ही पहुंच सका।

मांग-आपूर्ति का अंतर कीमतों पर दबाव डालता है और शाकाहारी प्रोटीन को सीमांत लोगों की पहुंच से बाहर कर देता है। योजनावधि में दालों के प्रति नीतिगत उपेक्षा कम और अनिश्चित पैदावार का चक्र प्रति हेक्टेयर उत्पादकता और जन -वितरण प्रणाली के दायरे में ना आना जैसे कारणों ने किसानों को दाल उगाने की वरीयता क्रम को दोयम दर्जे पर ही रहने दिया ।

भारत में दालों की आवश्यकता पर नजर डालें तो 2050 तक देश में 39 मिलियन टन दाल की आवश्यकता होगी। इस दृष्टिकोण से दालों की उत्पादन में 2.2 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि की आवश्यकता है। इसे ध्यान में रखते हुए वर्ष 2007 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन की शुरुआत हुई जिसमें दाल उत्पादन के लिए 16 राज्यों को इसमें शामिल किया गया, व इस मिशन का उद्देश्य कृषि व समबद्ध क्षेत्र की वृद्धि दर 4 प्रतिशत लाना था जो राष्ट्रीय कृषि नीति 2000 के उद्देश्यों को ही दोहराया गया। 

उत्पादन में अगर बाधा की बात करें तो भारतीय कृषि अपने उत्पादन के लिए काफ़ी हद तक वर्षा पर निर्भर है और कुछ विशिष्ट दलहन फसलें केवल वर्षा आधारित क्षेत्रों में ही उगाई जाती हैं, जो दालों की खेती को तुलनात्मक रूप से हतोत्साहित करता है। कुछ नीतिकार यह मानते हैं कि हरित क्रांति जो उन्नत बीज, उर्वरक, सिंचाई पर आधारित थी, में उन्नत बीज और उर्वरक पर सिंचाई की तुलना में अधिक निवेश किया गया।

यद्यपि इसके सुखद परिणाम प्राप्त हुए किन्तु दीर्घकालिक परिणाम के लिए सिंचाई परियोजनाओं पर निवेश की महत्ता दी गई होती तो निसंदेह इसका परिणाम दालों के उत्पादन में वृद्धि को भी मिलता। यही कारण है कि गंगा के मैदानों में अनाज व नकदी फसलें फल -फूल रही हैं व दालों को मध्य प्रदेश, राजस्थान इलाकों की कम बंजर व कम सिंचाई सुविधा वाली जमीन पर उपजाया जा रहा है। जो किसानों में दालों के प्रति आत्मविश्वास पैदा नहीं कर पाता। यद्यपि पिछले एक दशक में सिंचाई परियोजनाओं पर काफी काम हुआ है और प्रति हेक्टेयर सिंचित रकबा बढ़ा है, जो भविष्य में दाल उत्पादक किसानों को अपनी ओर आकर्षित कर सकता है।

इसके अलावा दालें कभी भी जन - वितरण प्रणाली का हिस्सा नहीं रही, लिहाजा इनके बफर स्टाकों पर सरकार का ध्यान ही नहीं गया। कीमत निर्धारण की अवस्था में राज्य हस्ताक्षेप से न्यूनतम समर्थन मूल्य की जो व्यवस्था लागू की गई, उसका फायदा कुल 24 में से सीमित फसलों विशेष तौर पर गेहूं/चावल को मिला। या यूं कहें कि इसका फायदा भी समृद्ध राज्य पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों को ही मिला।

मांग व आपूर्ति के इस असंतुलन ने एक बड़े उपभोक्ता देश की दालों के आयात पर निर्भरता बढ़ा दी , जहां 1980-81 में 0.7 मिलियन टन दालों का आयात हो रहा था। वर्ष 2016- 17 में यह बढ़कर 5.19 मिलयन टन हो गया। दालों के आयात की वृद्धि दर जहां अभी भी 2-3 प्रतिशत के आस-पास बनी हुई है वहीं दालों का उत्पादन 1-2 प्रतिशत के बीच ही स्थिर बना हुआ है। इससे उपभोक्ता मांग बढ़ने के कारण आयात बिल बढ़ रहा है।

भारत में दालों के उत्पादन में धीमी वृद्धि के कारण दालों की प्रति व्यक्ति उत्पादकता में लगातार गिरावट आई है, देश में दालों की बढ़ती मांग के कारण विदेशी मुद्रा की खपत बढ़ी है, जो विदेशी मुद्रा भंडार पर एक भार है।

अगर हम हेडलाइन इन्फ्लेशन की बात करें तो उसमें भी खाद्य पदार्थों में प्रोटीन इन्फ्लेशन एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जिस पर नीति-निर्माताओं को एक दीर्घकालिक नीति बनाने की आवश्यकता है। आज जबकि आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम में बदलाव किया जा चुका है सरकार सहकारिता माॅडल को बढ़ावा देने की पक्ष में है। दालों के उत्पादन में तथा भण्डारण में सहकारिता माॅडल को विकसित कर किसानों को उपज का एक महत्वपूर्ण पोर्टफोलिया दालों के रूप में उपलब्ध हो सकता है।

लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबंद्ध ईश्वर शरण कॉलेज में अर्थशास्त्र के सहायक प्रोफेसर हैं