केंद्र सरकार ने खेतों में यूरिया का इस्तेमाल कम करने के लिए दो साल पहले नैनो यूरिया लॉन्च किया। इसका असर क्या रहा, यह जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने एक रिपोर्ट तैयार की। पहले भाग में आपने पढ़ा: किसानों का क्यों हो रहा मोहभंग? । दूसरे भाग में पढ़ा: खेतों में स्प्रे की लागत नैनो यूरिया को बना रही दोगुना महंगा। तीसरे भाग में आपने पढ़ा: वैज्ञानिकों के पास एक भी फसल का तीन सीजन का आंकड़ा उपलब्ध नहीं । पढ़ें अंतिम भाग
ट्रायल और सेफ्टी के अलावा नैनो यूरिया में रॉ मटेरियल क्या इस्तेमाल किया जाता है यह भी एक रहस्य है। “नैनो तरल यूरिया तैयार करने की प्रक्रिया एक पेटेंट प्रक्रिया है। हम सभी तरह की जानकारी सार्वजनिक नहीं कर सकते।” दुनिया में पहली बार भारत में नैनो तरल यूरिया, जो कि एक फोलियर स्प्रे है, लांच करने वाली सहकारी संस्था इंडियन फार्मर्स फर्टिलाइजर्स कोऑपरेटिव लिमिटेड (आईएफएफसीओ) ने डाउन टू अर्थ को अपने आधिकारिक बयान में यह बताया है। इसका अर्थ है कि पारंपरिक यूरिया की तरह यह नहीं जान सकते कि नैनो तरल यूरिया में किस तरह के रॉ मटेरियल का इस्तेमाल हो रहा है।
सब्सिडी वाले यूरिया का संकट हर वर्ष सामने आता है। इसके कारण में रॉ मटेरियल की कमी या फिर उसका महंगा होना जैसे परिणाम शामिल होते हैं। इस कारण से सब्सिडी का बोझ भी सरकार पर पड़ता है। यूक्रेन संकट के बाद से यूरिया में इस्तेमाल होने वाले रॉ मटेरियल में काफी महंगाई आई है।
एक अनुमान के मुताबिक खाद पर दी जाने वाली सब्सिडी का बोझ 80 हजार करोड़ से बढ़कर 2 लाख करोड़ रुपए तक हो गया है। हालांकि, सरकार ने इस महंगाई को किसानों पर ट्रांसफर नहीं किया है। काफी प्रचार और समितियों के जरिए पारंपरिक यूरिया की जगह नैनो यूरिया पहुंचाने पर बल दिया जा रहा है।
नाम न बताने की शर्त पर एक्सपर्ट ने कहा कि ऐसा लगता है कि सरकार हाल-फिलहाल कुछ चुनावों के दौरान सब्सिडी के बोझ को किसानों पर नहीं डालना चाहती थी, इसलिए उसने आनन-फानन में नैनो यूरिया को प्रमोट करना शुरु किया है। जो कि बिना किसी सब्सिडी के एक 45 किलो के कट्टे के बराबर 225 रुपए प्रति 500 एमएल बोतल की दर से उपलब्ध है।
पार्लियामेंट की स्टैंडिंग कमेटी की रिपोर्ट में यह कहा गया है कि प्रति एकड़ में 45 से 90 किलो कम यूरिया का इस्तेमाल किसानों को 266 से 532 रुपए बचाएगा। जबकि यह सिर्फ किसानों का ही नहीं अप्रत्यक्ष रूप से सरकार की सब्सिडी को भी बचाएगा।
वहीं किसानों का अनुभव है कि नैनो तरल यूरिया का इस्तेमाल करने के बाद भी पारंपरिक यूरिया का इस्तेमाल करना पड़ रहा है, जिसने उनकी लागत बचाने के बाजाए बढ़ा दी है।
इतना ही नहीं अभी नैनो तरल यूरिया को समझने-बूझने को कीशिश हो रही थी की इस बीच मार्च, 2023 में नैनो डीएपी भी किसानों के लिए जारी कर दिया गया है। डाउन टू अर्थ ने ग्राउंड रिपोर्ट में पाया कि नैनो डीएपी की जानकारी अभी किसानों को बहुत कम है।
इसके अलावा किसानों को 2021 में ही नैनो फर्टिलाइजर में नैनो यूरिया के अलावा नैनो कॉपर और नैनो जिंक जैसे माइक्रोन्यूट्रिएंट भी जारी किए गए थे। हालांकि इनका इस्तेमाल किसान बहुत कम कर रहे हैं।
नैनो यूरिया के 6 साल
दुनिया में पहली बार भारत में ही नैनो यूरिया का प्रयोग किया गया। इसे श्रीलंका समेत दुनिया के अन्य देशों में भी निर्यात किया जा रहा है। इफको के नैनो यूरिया में नाइट्रोजन होता है, जो पौधों के विकास के लिए महत्वपूर्ण तत्व है। यह कागज की शीट की तुलना में एक सौ हजार गुना महीन दानों के रूप में होता है। यह एक मीटर का एक अरबवाँ हिस्सा है। जिसके व्यवहार के बारे में जानकारी अभी बहुत कम है। यह फोलियर स्प्रे है। जब तक फसलों में पत्ते नहीं आ जाते तब तक इन्हें नहीं छिड़का जा सकता।
संसद की स्टैंडिंग कमेटी रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2017 में इफको ने नैनो फर्टिलाइजर्स पर शोध करना शुरू किया था। वहीं 2018 में प्रयोगशाला में इसका परीक्षण शुरू हुआ था। 2019 रबी सीजन से इसका फील्ड ट्रायल शरू हुआ। 24 फरवरी, 2021 को इसे अधिसूचित किया गया और जून, 2021 में इफको के कलोल, गांधीनगर प्लांट से इसका कॉमर्शियल डिस्पैच शुरु हुआ। जुलाई, 2021 में नैनो तरल यूरिया का ऑनलाइन सेल शुरू किया गया। 1 अगस्त, 2021 से कॉमर्शियल प्रोडक्शन शुरु हुआ था। वित्त वर्ष 2022-23 में 500 एमएल क्षमता वाली 3.27 करोड़ बोतल का उत्पादन किया गया। 2025 तक इसे 44 करोड़ बोतल उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। रिपोर्ट के मुताबिक नैनो यूरिया के जरिए 50 फीसदी पारंपरिक यूरिया का बोझ कम किया जाएगा।
नैनो यूरिया नाइट्रोजन का स्रोत
नैनो यूरिया नाइट्रोजन का स्रोत है। नाइट्रोजन किसी भी प्लांट की उचित वृद्धि और विकास के लिए सबसे जरूरी पोषण है। नाइट्रोजन किसी एक प्लांट में एमीनो एसिड, इंजाइम, जेनेटिक मटेरियल जैसे डीएनए-आरएनए, फोटोसिंथेटिक पिगमेंट्स (जैसे क्लोरोफिल) और एनर्जी ट्रांफसर कंपाउड जैसे एटीपी-एडीपी का प्रमुख घटक है। एक स्वस्थ्य पौधे में 1.5 से 4 फीसदी तक नाइट्रोजन कंटेट मौजूद होता है। स्टैंडिंग क्रॉप के महत्वपूर्ण चरण में पारंपरिक यूरिया के बजाए नैनो यूरिया का छिड़काव प्लांट में नाइट्रोजन की आवश्यकता को पूरा कर सकता है और उच्च पैदावार दे सकता है।
आईआईटी कानपुर की वेबसाइट एग्रोपीडिया के मुताबिक नाइट्रोजन किसी भी प्लांट के रूट में दो तरीके से एब्जॉर्ब किए जाते हैं। पहला नाइट्रेट फॉर्म (एनओ3) दूसरा अमोनिकल फॉर्म (एनएच4)। ज्यादातर प्लांट नाइट्रोजन को नाइट्रेट फॉर्म में पसंद करते हैं। हालांकि धान और कुछ अन्य ऊंचाई वाले पौधे नाइट्रोजन को अमोनिकल फॉर्म में पसंद करते हैं। अमोनिकल फॉर्म भी बहुत जल्द ही नाइट्रेट में बदल जाता है। हालांकि जिस पारंपरिक यूरिया का हम इस्तेमाल करते हैं वह एमाइड फॉर्म में होता है। यानी नाइट्रोजन एमाइड फॉर्म में होता है। लेकिन यह एमाइड फॉर्म में मौजूद नाइट्रोजन भी मिट्टी के सूक्ष्म तत्वों द्वारा आसानी से अमोनिकल फॉर्म में बदल जाते हैं जो कि बाद में नाइट्रेट फॉर्म में बदल जाते हैं। ऐसा दावा है कि नैनो नाइट्रोजन से यूरिया की बर्बादी को कम किया जा सकेगा।
नाइट्रोजन एक्सपर्ट एन रघुराम का कहना है कि यह पूरी तरह से दावा नहीं किया जा सकता कि नैनो यूरिया के छिड़काव में बर्बादी कम होगी। छिड़काव के दौरान भी यूरिया बर्बाद होगा।
नैनो यूरिया से भी प्रदूषण संभव
जून, 2021 में जीकेवी सोसाइटी आगरा के जर्नल में इफको के वैज्ञानिक योगेंद्र कुमार, केन तिवारी, तरुनेंदु सिंह और रमेश रालिया का संयुक्त शोधपत्र नैनोफर्टिलाइजर्स एंड देयर रोल इन सस्टेनबल एग्रीकल्चर में बताया गया है कि पत्तों पर लक्ष्य आधारित नैनो नाइट्रोजन छिड़काव का प्रयोग यूरिया के नुकसान को बचाता है साथ ही पोषक तत्व अवशोषण दक्षता (एनयूई) को बढ़ाती है। इसके अलावा मिट्टी, हवा और पानी प्रदूषण जैसे पर्यारवणीय मुद्दों का समाधान भी पेश करती है। इसके जरिए कम नाइट्रोजन प्रयोग में बेहतर फसल पैदा होती है।
शोधपत्र बताता है प्रति लीटर पानी में 2-4 मिलीलीटर (एमएल) की दर से नैनो नाइट्रोजन को मिलाकर फसल के पत्तों पर उस चरण में छिड़काव किया जाए जब वह महत्वपूर्ण वृद्धि वाली चरण पर हो तो न सिर्फ फसल की वृद्धि अच्छी हो सकती है बल्कि फसल की पोषण जरूरत भी पूरी होती है। इसके अलावा राइजोस्फेयर (पौधे का जड़ वाला हिस्सा) में मौजूद पोषण में भी सुधार होता है। इसके अलावा 100एनएम से भी नैनो स्केल पर छोटा होना के कारण पत्तियों में गैसीय आदान-प्रदान के लिए मौजूद स्टोमाटा के जरिए आसानी से सोख लिया जाता है।
पारंपरिक यूरिया के एक एमएम वाले दाने के मुकाबले नैनो यूरिया के कण (30-50 एनएम) 10,000 गुना ज्यादा सरफेस एरिया तक पहुंचते है। नैनो नाइट्रोजन पार्टिकल का पोर साइज (20 एनएम) आसानी से कोशिका की दीवारों को भेदकर प्लाज्मा मेंबरेन तक पहुंच जाते हैं। बड़े साइज के नैनो पार्टिकल (30-50 एनएम) पत्तियों में मौजूद स्टोमटल पोर को भी भेद सकते हैं। और यह फ्लोएम कोशिका के जरिए प्लास्मोडेमाटा (40 एनएम व्यास) से प्लांट के अन्य भागों में चले जाते हैं।
एन रघुराम कहते हैं कि नैनो यूरिया से भी मिट्टी, हवा-पानी के प्रदूषण की संभावना है। नैनो पार्टिकल्स का असर पर्यावरण पर क्या होगा? यह लंबे वक्त के बाद ही समझा जा सकता है। इस प्रोजेक्ट से जुड़े आसीएआर व केवीके के वैज्ञानिक भी इसके निश्चित व्यवहार को लेकर संशय में हैं।