फोटो साभार : आईसटॉक 
कृषि

पंजाब में मक्के की फसल ने भूजल संकट को किया और भयावह

राज्य ने प्रदूषण को कम करने के लिए फसल पैटर्न में बदलाव किया था लेकिन अब यह स्थिति भूजल संकट को और बढ़ा रही है

Shagun

वसंत ऋतु में मक्के की फसल पंजाब के भूजल संकट को और भयावह बना रही है। राज्य में फसल पैटर्न में बदलाव करने का मुख्य उद्देश्य प्रदूषण को कम करना था, लेकिन यह स्थिति राज्य में चल रहे भूजल संकट को और बढ़ा रही है।

पंजाब में प्रदूषण जैसी पर्यावरणीय समस्या के समाधान के चलते दूसरी समस्या यानी जल संकट को और बदतर हालात में पहुंचा दिया है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान खेतों में पराली जलाने की प्रथा को रोकने के लिए विभिन्न स्तर पर लघु और मध्यम अवधि में उगाई जाने वाली धान की किस्में विकसित की गई।

हालांकि, इस बदलाव का एक अनपेक्षित परिणाम यह है कि राज्य के भूजल स्तर तेजी से बढ़ रहा है। ध्यान रहे कि पराली जलाए जाने से अक्टूबर और नवंबर माह में वायु प्रदूषण और अधिक बढ़ जाता है।

ध्यान रहे कि किसान मार्च-अप्रैल और जून के बीच वसंत ऋतु में मक्के की फसल की बुवाई तेजी से करते हैं और यह काम वे लघु अवधि में तैयार होने वाली धान की किस्मों के साथ करते हैं। अब उनके पास धान की फसल लगाने के लिए लंबा समय है, जो पहले जून के मध्य में शुरू होता था।

नतीजतन वसंत ऋतु में मक्का, जिसके लिए 18 से 20 बार सिंचाई करने की आवश्यकता होती है। ऐसे में यह स्थिति पंजाब में पहले से ही घटते भूजल भंडार को और कम करने में योगदान दे रही है।

मध्यम अवधि वाली धान की किस्में जैसे पीआर124, पीआर126, पीआर131 और पीआर (पंजाब कृषि विश्वविद्यालय या पीएयू द्वारा विकसित), साथ ही हाल ही में आई पूसा-2090 (भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित), पूसा 44 के विकल्प के रूप में देखी जा रही हैं।

पूसा 44 अपनी उच्च उपज 35 से 37 क्विंटल प्रति एकड़ (0.4 हेक्टेयर) के कारण पंजाब और हरियाणा में व्यापक रूप से उगाया जाता है, लेकिन इसे पकने में 155 से 160 दिन का समय लगता है यानी लगभग पांच माह।

लंबी अवधि वाली किस्म के रूप में पूसा 44 की कटाई अक्टूबर के अंत या नवंबर की शुरुआत में की जाती है, जिससे रबी (सर्दियों) की गेहूं की फसल की बुवाई के लिए खेतों को तैयार करने के लिए बहुत कम समय बचता है। इससे किसान धान की कटाई के बाद खड़ी पराली को जला देते हैं। उदाहरण के लिए पीआर 126 और पीआर 131 को क्रमशः 93 और 110 दिन लगते हैं और इन्हें गेहूं की बुवाई के मौसम से पहले ही काटा जा सकता है।

पंजाब के बरनाला जिले के किसान सुखविंदर सिंह ने कुछ साल पहले पीआर126 की खेती शुरू की। 2020 के आसपास उन्होंने अपने 20 हेक्टेयर खेत में से 1.2 हेक्टेयर पर ग्रीष्मकालीन फसल के रूप में मक्के की बुवाई भी शुरू की। उन्होंने कहा कि अब हमारे पास धान की बुवाई के लिए ज्यादा समय है, इसलिए गेहूं की कटाई के बाद हम मवेशियों के लिए चारा बनाने के लिए मक्का लगाते हैं और धान का मौसम शुरू होने से पहले इसकी कटाई कर लेते हैं।

ध्यन रहे कि भारत के भूजल संकट में पंजाब एक ऐसा राज्य है, जहां सबसे तेजी से भूजल संकट बढ़ रहा है। इस संबंध में जून 2022 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) की निगरानी समिति ने पंजाब में घटते भूजल पर अपनी रिपोर्ट में कहा था कि राज्य में केवल 17 साल तक चलने लायक ही भूजल अब बचा है।

इस संबंध में पंजाब सरकार द्वारा राज्य में नहरों को पक्का करने के प्रयासों ने राज्य भर के नागरिकों को और परेशान कर दिया है। उन्हें डर है कि यह कदम और खतरनाक साबित हो सकता है क्योंकि यदि ऐसा हुआ तो पानी जमीन में नहीं जाएगा। ऐसे में भूजल संकट और बढ़ सकता है। क्योंकि इससे जमीन सूखी रह सकती है और उसे किसी अन्य स्रोत से पानी नहीं मिलेगा।

ध्यान रहे कि मानसून के दौरान यहां बड़े पैमाने पर पानी को जमीन में रिसने से रोकने और इसे खेत में सुरक्षित करने के प्रयास किए जाते हैं ताकि धान की फसल को अधिक पानी उपलब्ध कराया जा सके, जिसे बहुत अधिक पानी की आवश्यकता होती है। अगर नहरों को पक्का कर दिया जाता है तो यह स्थिति और खराब हो जाएगी।

पंजाब में जल संकट पर काम करने वाले समूह मिसाल सतलुज के जत्थेदार (नेता) देविंदर सिंह सेखों ने डाउन टू अर्थ को बताया कि पंजाब में जल संसाधनों के संबंध में मुख्य मुद्दा यह है कि राज्य की नहरों का आधा पानी राजस्थान में बह जाता है और उस पानी की मात्रा के लिए कोई जवाबदेही नहीं है। वह कहते हैं कि बेशक, राजस्थान को पानी की जरूरत है, लेकिन क्या पंजाब से इतना पानी उसे मिलना चाहिए? इसलिए, हम पंजाब से राजस्थान में बिना रुके बहने वाले पानी को रोकने की मांग कर रहे हैं