महाराष्ट्र, देश के उन कुछ बड़े राज्यों की राह पर है, जो नरेंद्र मोदी सरकार की बहुप्रचाारित
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना से बाहर जा सकता है। अगर ऐसा हुआ तो वह देश का आठवां ऐसा राज्य हो जाएगा, जहां यह योजना काम नहीं कर रही है।
पश्चिम बंगाल जैसे कुछ राज्यों ने पहले से ही इस योजना को अपने यहां लागू नहीं किया है। महाराष्ट्र, देश की सबसे अधिक आबादी वाले राज्यों में दूसरे नंबर पर है। माना जा रहा है कि राज्य सरकार इसकी जगह अपना कार्यक्रम लाने पर विचार कर रही है।
हाल ही में एक फरवरी को राज्य के किसानों के एक प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में अनियमितताओं को लेकर प्रदेश के कृषि मंत्री दादाजी भुसे और विभाग के अधिकारियों से मुलाकात की थी। उन्होंने राज्य में इस योजना की जगह नए कार्यक्रम लाने की मांग की थी।
राज्य के कृषि विभाग के एक सूत्र ने डाउन टू अर्थ को बताया कि किसानों ने इस मुलाकात में अपने हितों को लेकर चिंता जाहिर की और बताया कि उन्हें प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में अपने दावों को निपटाने के लिए बीमाकर्ताओं के पीछे भागना पड़ता है। सूत्र ने आगे बताया कि कृषि मंत्रालय किसानों की समस्या पर विचार कर रहा है।
विभाग के अधिकारी इस योजना से संबधित उन सभी राज्यों के मॉडलों का अध्ययन कर रहे हैं, जो पहले से ही प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना से बाहर आ चुके हैं। सूत्र ने कहा कि हम योजना से जुड़े अनुभवों को जानने के लिए उन राज्यों के अधिकारियों और किसानों से बात करेंगे।
राज्य सरकार ने इस योजना के अंतर्गत बीमा कंपनियों से समझौता कर रखा है, जो अगले साल पूरा हो जाएगा। सूत्र के मुताबिक, उसके बाद ही राज्य सरकार इसे खत्म करने का फैसला ले सकती है।
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, किसानों को बुआई से पहले से लेकर कटाई के बाद तक सभी गैर-रोकथाम वाले प्राकृतिक जोखिमों के खिलाफ बीमा देती है। किसानों को इस योजना में खरीफ फसलों के लिए बीमित राशि के कुल प्रीमियम का अधिकतम 2 फीसदी, रबी, खाद्य फसलों और तिलहन के लिए 1.5 फीसदी और वाणिज्यिक या बागवानी फसलों के लिए 5 फीसदी का भुगतान करना होता है।
इस योजना में बीमा के प्रीमियम में केंद्र और राज्य सरकार की हिस्सेदारी 50-50 फीसदी होती हे, जो उत्तर -पूर्व राज्यों में 90 फीसदी और 10 फीसदी के अनुपात में है। इसमें दावों की गणना अधिसूचित क्षेत्र में न्यूनतम उपज की तुलना में वास्तविक उपज में कमी के आधार पर की जाती है।
हालांकि, हाल के सालों में चरम मौसम की घटनाओं में वृद्धि के कारण फसल के नुकसान की गंभीरता के बावजूद, फसल बीमा को चुनने वाले किसानों की संख्या में गिरावट आई है। आंध्र प्रदेश, झारखंड, तेलंगाना, बिहार, गुजरात, पंजाब और पश्चिम बंगाल - ये सारे कृषि-प्रधान राज्य पहले ही इस योजना से खुद का अलग कर चुके हैं। इनमें से कुछ राज्यों ने अपने यहां अलग फसल बीमा योजना भी लागू की है।
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना से पीछे हटने के बारे में महाराष्ट्र सरकार दो वजहों से विचार कर रही है। पहली वजह अगर योजना में दावों से इंकार और देरी है ता दूसरी वजह यह है कि इससे राज्य सरकार पर सब्सिडी का भारी बोझ पड़ता है।
एक सरकारी अधिकारी ने कहा, ‘इस योजना में हिस्सेदारी के रूप में राज्य सरकार को लगभग तीन हजार करोड़ चुकाने पड़ते हैं। इसके बावजूद किसान समय से दावों के न निपटने की समस्या का सामना कर रहे हैं।’
इसके अलावा, प्रीमियम शेयर पर संशोधित दिशा-निर्देशों ने भी बोझ बढ़ा दिया है। 2020 के दिशा-निर्देशों के अनुसार, प्रीमियम सब्सिडी में पूर्ण केंद्रीय हिस्सा, सिंचित और वर्षा सिंचित क्षेत्रों या जिले के लिए केवल 25 फीसदी और 30 फीसदी (क्रमशः) की बीमांकिक प्रीमियम दर (एपीआर) तक ही लागू होगा।
इसका मतलब यह है कि किसी विशेष सिंचित फसल के लिए, यदि प्रीमियम दर सिंचित क्षेत्र के लिए 25 फीसदी से ज्यादा और असिंचित या वर्षा सिंचित क्षेत्रों के लिए 30 फीसदी से ज्यादा है, तो उस हिस्से के ऊपर का सारा योगदान राज्य को देना होगा।
स्वाभिमानी शेतकारी संगठन के नेता और एक फरवरी की बैठक में शामिल रहे रविकांत तुपकर ने बताया कि बीमा करने वाली कंपनियां तो इस योजना से
कमाई कर रही हें लेकिन चरम मौसम की घटनाओं के चलते फसलों का नुकसान झेलने वाले किसानों के दावे निपटाए नहीं जा रहे हैं।
तुपकर के मुताबिक, ‘राज्य सरकार को इस योजना में सब्सिडी देने की बजाय किसी नए बीमा मॉडल में निवेश करना चाहिए। अगर प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना ठीक से काम कर रही होती, तो गुजरात जैसे राज्य इससे पल्ला क्यों झाड़ते ?’
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के लिए उपयुक्त कामकाजी मॉडल का सुझाव देने के लिए स्थापित केंद्र सरकार के पैनल द्वारा महाराष्ट्र के बीड जिले में मौजूद
फसल बीमा के मॉडल का भी अध्ययन किया जा रहा है।
बीड के मॉडल में बीमा कंपनियों के लाभ की ऊपरी सीमा निर्धारित कर दी गई है। इसमें अगर दावा, बीमा कवर से ज्यादा है, तो शेष राशि का भुगतान राज्य सरकार करती है। अगर दावे, जमा किए गए प्रीमियम से कम होते हैं, तो बीमा कंपनी, निगरानी शुल्क के तौर पर उसका बीस फीसदी अपने पास रखती है ओर बाकी राशि राज्य सरकार को वापस कर देती है।
एक कृषि अधिकारी ने कहा कि बीड का मॉडल राज्य सरकार पर सब्सिडी का बोझ तो कम कर देगा लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि क्या यह किसानों को फायदा दे सकता है।
तुपकर भी यही कहते हैं कि इस मॉडल में दावों के निपटारे और किसानों को उचित राशि मिलने जैसे मुद्दे अभी सुलझाए जाने बाकी हैं।