कृषि

भारत के दुधारू पशुओं को शिकार बना रही है एक घातक महामारी

इसका देश पर विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा, जहां अधिकांश डेयरी किसान या तो भूमिहीन हैं या सीमांत भूमिधारक हैं और उनके लिए दूध सबसे सस्ते प्रोटीन स्रोत में से एक है

Shagun, K A Shaji, Ajit Panda, Anupam Chakravartty

साल की शुरुआत से ही केरल के वायनाड जिले के काम्मना गांव में एक अजीब लेकिन परिचित भय व्याप्त है। यह भय कुछ-कुछ कोविड-19 जैसा ही है। इस बार वायरस भी अलग है और होस्ट (वायरस का शिकार) भी। 

कम्मना के रहने वाले साजी जोसेफ कहते हैं, '' मुझे नहीं पता कि मेरी पांच में से तीन जर्सी गायों को ये बीमारी कब और कैसे हुई। जनवरी के पहले सप्ताह में अचानक तेज बुखार के साथ उनके शरीर पर गांठें दिखाई देने लगीं। एक सप्ताह के भीतर, वे कमजोर हो गए। कम दूध उत्पादन से मुझे रोजाना 700 रुपये का नुकसान हो रहा है।''  

गांव के अन्य 200 डेयरी किसान भी इसी तरह की समस्या से जूझ रहे हैं। यहां तक ​​कि संक्रमित बैल और भैंस भी गाड़ियां खींचने या कृषि कार्य करने में असमर्थ हैं।

गांठदार त्वचा रोग (लम्पी स्किन डिजीज: एलएसडी)

स्थानीय पशु चिकित्सकों ने इसे गांठदार त्वचा रोग (एलएसडी) के रूप में पहचाना है। यह एक वायरल बीमारी है, जो मवेशियों में लंबे समय तक अस्वस्थता का कारण बनती है। यह पूरे शरीर में दो से पांच सेंटीमीटर व्यास के नोड्यूल (गांठ) के रूप में पनपता है। खास कर, सिर, गर्दन, लिंब्स और जननांगों के आसपास।

गांठ धीरे-धीरे बड़े और गहरे घाव बन जाते है। एलएसडी वायरस मच्छरों और मक्खियों जैसे खून चूसने वाले कीड़ों द्वारा आसानी से फैलता है। यह लार, दूषित पानी और भोजन के माध्यम से भी फैलता है। पशु चिकित्सकों का कहना है कि इस बीमारी का अभी कोई इलाज उपलब्ध नहीं है। भारत में  यह पहली बार देखा जा रहा है।

अफ्रीका से भारत 

ऐतिहासिक रूप से, एलएसडी अफ्रीका तक ही सीमित रहा है, जहां यह पहली बार 1929 में खोजा गया था। लेकिन हाल के वर्षों में यह अन्य देशों में फैला है। 2015 में तुर्की और ग्रीस जबकि 2016 में इसने बाल्कन, कॉकेशियान देशों और रूस में तबाही मचाई। 

जुलाई 2019 में बांग्लादेश पहुंचने के बाद से, यह एशियाई देशों में फैल रहा है। फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन (एफएओ) के एक जोखिम मूल्यांकन रिपोर्ट के अनुसार, यह बीमारी 2020 के अंत तक सात एशियाई देशों, चीन, भारत, नेपाल, ताइवान, भूटान, वियतनाम और हांगकांग में फैल चुकी है। इसके अलावा, दक्षिण-पूर्व एशिया के कम से कम 23 देशों में एलएसडी का खतरा मंडरा रहा है। 

भारत में दुनिया के सबसे अधिक, 303 मिलियन मवेशी हैं. यहां यह बीमारी सिर्फ 16 महीनों के भीतर 15 राज्यों में फैल चुकी है. अगस्त 2019 में, ओडिशा से एलएसडी का पहला संक्रमण रिपोर्ट हुआ था। अध्ययन से पता चलता है कि देश में वायरस पहले से ही म्यूटेट हो सकता है। जबलपुर में वेटरनरी साइंस एनिमल हसबेंड्री कॉलेज की असिस्टेंट प्रोफेसर वंदना गुप्ता ने पाया है कि वायरस का यह स्वरूप ओडिशा में पाए गए पहले वायरस के स्वरूप से अलग है।

वह चेतावनी देती है, हमें तत्काल रोकथाम की रणनीति अपनाने की आवश्यकता है। यह बीमारी अन्य देशों में कैसे व्यवहार करती है, इसकी तुलना में यहां अलग तरीके से व्यवहार कर सकती है। चूंकि एलएसडी वायरस शीप और गोट पॉक्स से संबंधित है, हमें यह समझने की जरूरत है कि क्या यह भेड़ और बकरियों में भी फैल सकता है। 

प्रसार पर लापरवाही  

एलएसडी की संक्रामक प्रकृति और अर्थव्यवस्था पर इसके बुरे प्रभाव, जैसे दूध उत्पादन में कमी, गर्भपात और बांझपन आदि को देखते हुए, वर्ल्ड ऑर्गेनाइजेशन फॉर एनीमल हेल्थ (ओआईई) ने इसे नोटीफाएबल डिजीज (कानूनन सरकारी अधिकारियों तक इसकी रिपोर्ट करना) घोषित किया है। इसका मतलब है कि किसी देश को रोग के किसी भी प्रकोप के बारे में ओआईई को सूचित करना होगा, ताकि उसके प्रसार को रोका जा सके। फिर भी, देश में एलएसडी के वास्तविक प्रसार या किसानों के आर्थिक नुकसान को ले कर पशुपालन और डेयरी विभाग (डीएएचडी) के पास कोई वास्तविक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।

अनुमान बताते हैं कि दिसंबर, 2019 में सिर्फ केरल में कम से कम 5,000 मवेशी एलएसडी संक्रमण के शिकार हुए। जब डाउन टू अर्थ (डीटीई) ने डीएएचडी में पशुधन स्वास्थ्य के प्रभारी विजय कुमार से संपर्क किया, तो उन्होंने कहा, "कुल पुष्टि हुए पॉजिटिव केसेज में से 30 से 40 प्रति इस बीमारी से प्रभावित अवस्था में हैं। चूंकि यह अन्य त्वचा रोगों से मिलता जुलता है, इसलिए लोग समझ नहीं पाते कि क्या ये वाकई लम्पी स्किन डिजीज है।“ 

केरल में एलएसडी प्रसार को नियंत्रित करने के लिए सक्रिय कदम उठाए जा रहे हैं। राज्य के डेयरी विकास मंत्री के राजू ने डीटीई को बताया कि सरकार ने सभी जिलों में मवेशियों की लगातार स्वास्थ्य जांच सुनिश्चित की है और बीमारी के उन्मूलन पर ध्यान केंद्रित कर रही है। हालांकि, के राजू कहते हैं कि असल चुनौती भारत में एलएसडी के खिलाफ किसी विशिष्ट टीका का नहीं होना है। पशु चिकित्सक बस महामारी प्रोटोकॉल का पालन कर रहे हैं। 

कम्मना में डेयरी किसानों से पशु-शेड में कीटाणुनाशक का छिड़काव दिन में कई बार करने को कहा गया है। मृत जानवर को मिट्टी में गाड़ने की सलाह दी गई है। साथ ही, बीमारी के मामूली लक्षण दिखने पर भी पशु को क्वरंटाइन में रखने की सलाह दी गई है।

डीएएचडी में पशुपालन आयुक्त, प्रवीण मलिक कहते हैं, "भारत में यह बीमारी कहां से शुरु हुई, इसे ले कर हम निश्चित नहीं हैं। संभवत: ये प्रसार सीमा पार से अवैध तरीके से लाये जाने वाले मवेशियों के माध्यम से हुआ हो। हमने नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वेटरीनरी एपिडेमियोलॉजी एंड डिजीज इंफॉर्मेटिक्स से इस बीमारी के फैलने में योगदान देने वाले सभी कारकों का अध्ययन करने का अनुरोध किया है।" 

एफएओ के एक स्टडी के मुताबिक: बांग्लादेश में पशु प्रोटीन की आपूर्ति और मांग के बीच अंतर और भारत में पशुधन की कीमतों में असमानता, को देखते हुए पशुओं के अनौपचारिक निर्यात की घटनाएं देखी गई है। भारत से नेपाल के कई जिलों में पशु भेजे जाते है, खास कर बिहार की सीमा से पैदल आ-जा कर भी ये काम किया जाता है संभवतः यह भी संक्रमण फैलने का कारण बना हो।” 

बहरहाल, जो भी कारण हो, विश्लेषकों का कहना है कि भारत से बीमारी का उन्मूलन आसान नहीं होगा।

तमिलनाडु वेटनरी एंड एनीमल साइंसेज यूनिवर्सिटी, चेन्नई के प्रोफेसर पी. सेल्वाराज कहते है कि अगर शुरुआती कुछ दिनों के भीतर पशु का इलाज किया जाए तो इस बीमारी की जांच की जा सकती है। लेकिन ज्यादातर लोग मवेशियों में त्वचा रोगों को महत्व नहीं देते हैं। वे आगे कहते हैं कि काटने वाली मक्खियों, मच्छरों जैसे कीट भारत की उष्णकटिबंधीय जलवायु परिस्थितियों में वैसे भी अधिक पाए जाते हैं। बेमौसम बारिश और बाढ़ इनके विकास के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान करेंगे, जिससे इस संक्रामक रोग के वाहक बने वैक्टर जल्द खत्म नहीं किए जा सकेंगे।

जाहिर है, इसका देश पर विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा, जहां अधिकांश डेयरी किसान या तो भूमिहीन हैं या सीमांत भूमिधारक हैं और दूध उनके लिए सबसे सस्ते प्रोटीन स्रोत में से एक है।