पिछले कई दशकों से, सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली और बाजार में महंगाई पर नियंत्रण रखने के उद्देश्य से किसानों से सालाना लगभग 60-70 मिलियन मीट्रिक टन धान और 30-40 मिलियन मीट्रिक टन गेहूं की खरीद करती रही है। भारत सरकार द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी के अनुसार, वर्ष 2024-25 में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए 60 मिलियन मीट्रिक टन से अधिक धान और 26.6 मिलियन मीट्रिक टन गेहूं की खरीद की गई।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत, विशेषकर कमजोर वर्ग के उपभोक्ताओं को, निर्धारित कीमतों पर या मुफ्त में उचित मात्रा में विभिन्न वस्तुओं (जैसे गेहूं, चावल, चीनी, आयातित खाद्य तेल, कोयला, मिट्टी का तेल आदि) का वितरण राशन की दुकानों और सहकारी उपभोक्ता भंडारों के माध्यम से किया जाता है। पिछले कई वर्षों से इस प्रणाली के माध्यम से देश के 80 करोड़ से अधिक गरीबों को मुफ्त अनाज और अन्य आवश्यक खाद्य पदार्थ वितरित किए जा रहे हैं।
भारत सरकार के प्रेस सूचना ब्यूरो द्वारा 11 फरवरी 2025 को जारी विज्ञप्ति के अनुसार, ओपन मार्केट सेल स्कीम के तहत केंद्र सरकार ने चावल की कीमत में 550 रुपये की कमी करके 2,250 रुपये प्रति क्विंटल की दर से 12 लाख मीट्रिक टन चावल राज्य सरकारों, सार्वजनिक निगमों आदि के लिए, और 24 लाख मीट्रिक टन चावल इथेनॉल डिस्टिलरीज को बिक्री के लिए निर्धारित किया है।
सार्वजनिक हित में, सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत चावल की कीमत कम करना राष्ट्रीय हित में हो सकता है। हालांकि, व्यापारियों और उद्योगों को बेचे जाने वाले चावल की कीमत जानबूझकर खरीद मूल्य और बाजार भाव से भी कम निर्धारित करना 1,320 करोड़ रुपये के भ्रष्टाचार का गंभीर मामला है, जो देश में व्यापारियों, नेताओं और अफसरशाही के भ्रष्ट गठजोड़ से उपजी 'चंदा दो - धंधा लो' की संस्कृति को दर्शाता है।
इसी विज्ञप्ति में, 55 लाख मीट्रिक टन सरकारी गेहूं की बिक्री लगभग 900 रुपये प्रति क्विंटल की खरीद लागत और बाजार भाव से कम पर 2,325 रुपये प्रति क्विंटल रिजर्व मूल्य पर निर्धारित की गई है। इसी तरह, पिछले वर्ष भी लगभग 100 लाख मीट्रिक टन सरकारी गेहूं की बिक्री ओपन मार्केट सेल स्कीम के तहत केंद्र सरकार द्वारा खरीद मूल्य और बाजार भाव से कम पर की गई थी।
कृषि उपज मंडी में गेहूं की फसल आने से कुछ दिन पहले, सरकार द्वारा खरीद मूल्य और बाजार भाव से कम पर की जा रही यह अनाज की भारी बिक्री, खुले बाजार में बनावटी मंदी बनाकर फसल उपज की कीमतें कम रखने और किसानों को आर्थिक नुकसान पहुंचाने का सरकारी षड्यंत्र है, जो अंतरराष्ट्रीय डंपिंग कानून का भी खुला उल्लंघन है।
विश्व व्यापार संगठन के 'एग्रीमेंट ऑन टैरिफ्स एंड ट्रेड' 1994 के अनुच्छेद-6 के अनुसार, सरकारों और कंपनियों द्वारा घरेलू बाजार में मिलने वाले सामान से कम कीमत पर वस्तुओं को बेचना डंपिंग कहलाता है, जो एक अनुचित व्यापार प्रथा है। इसे रोकने के लिए एंटी-डंपिंग ड्यूटी और सीमा शुल्क लगाने का प्रावधान किया गया है।
दुर्भाग्यवश, भारत में व्यापारियों को अनुचित लाभ देने और किसानों को आर्थिक नुकसान पहुंचाने के लिए, सरकार ही डंपिंग जैसी अनुचित व्यापार प्रथा में लिप्त है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार के संदर्भ में, डंपिंग को अक्सर अनुचित मूल्य निर्धारण की रणनीति माना जाता है, जिसे अपनाने वाली सरकारें और कंपनियां जानबूझकर उत्पादकों की व्यवहार्यता को खतरे में डाल देती हैं।
इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस और ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी ) के एक अध्ययन के अनुसार, खेती की कीमतों को कृत्रिम रूप से कम रखने की पक्षपाती सरकारी नीतियों के कारण, भारतीय किसान वर्ष 2000 के बाद से लगातार आर्थिक नुकसान उठा रहे हैं, जिससे वे गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने को मजबूर हैं।
इस रिपोर्ट में आगे बताया गया है कि पक्षपाती सरकारी नीतियों के कारण कम कृषि कीमतें मिलने से भारतीय किसानों को अकेले वर्ष 2022 में 14 लाख करोड़ रुपये (169 बिलियन अमेरिकी डॉलर) और 2000-2017 के दौरान 2017 की कीमतों पर 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। इन पक्षपाती सरकारी नीतियों पर आधारित शोषण के कारण ही किसान कर्ज में डूबकर आत्महत्याएं करने को मजबूर हैं।
भारत में सरकार द्वारा वर्षों से हो रही लगातार डंपिंग जैसी स्थिति में, जब रक्षक ही भक्षक बन जाए, तो किसानों का कर्ज में डूबकर मजबूरन आत्महत्या करना स्वाभाविक है। इसके अतिरिक्त, सरकार वर्षों से सी2 कुल लागत + 50% लाभ की बजाय ए2+एफएल पर समर्थन मूल्य घोषित करके देश के किसानों का 72,000 करोड़ रुपये वार्षिक का शोषण कर रही है। इन्हीं कारणों से, दुनिया भर में गेहूं-धान फसल चक्र की सर्वोत्तम पैदावार (13 मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर वार्षिक) लेने वाले हरियाणा और पंजाब के किसान कर्ज में डूबकर समर्थन मूल्य गारंटी कानून बनवाने आदि की मांग को लेकर लगातार आंदोलनरत हैं। क्योंकि सरकार इन हरियाणा-पंजाब के किसानों से लगभग 40 मिलियन मीट्रिक टन गेहूं-धान सी2 कुल लागत + 50% लाभ की बजाय ए2+एफएल पर खरीद कर 30,000 करोड़ रुपये से ज्यादा का वार्षिक शोषण कर रही है। यदि समय रहते, सरकार ने इन गलत सरकारी नीतियों में सुधार नहीं किया, तो आने वाले समय में भारत को खाद्य सुरक्षा के गंभीर खतरे का सामना करना पड़ सकता है, जबकि वर्तमान में धान को छोड़कर, देश में किसी भी फसल उपज का सरप्लस नही है।