कृषि

क्या दम तोड़ रही है प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना?

मौसम की वजह से लगातार खराब हो रही फसल की वजह से नुकसान झेल रही बीमा कंपनियां प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना से अपने नाम वापस ले रही हैं

Jitendra

केंद्र सरकार की बहुचर्चित प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के लागू होने के तीन वर्ष और सात फसल सीजन बीतने के बाद लगता है, इस योजना से कोई भी खुश नहीं है। इस योजना से जुड़ने वाले किसानों की संख्या कम होने के साथ बीमा कंपनियां भी इससे बाहर निकलना चाह रही हैं। वर्ष 2019-20 के फसल के सीजन से पहले तीन निजी बीमा कंपनी आईसीआईसीआई लोम्बार्ड, टाटा एआईजी और चोलामंडलम एमएस  ने रबी (नवंबर मध्य से मई) और खरीफ (जून से अक्टूबर) फसलों के लिए बोली नही लगाई है।  इसकी वजह वर्ष 2018 में कंपनियों को हुआ भारी नुकसान बताया जा रहा है।  यह एक चिंताजनक स्थिति है, क्योंकि यह योजना निजी बीमा कंपनियों के बदौलत 2016 में शुरू की गई थी।

मसलन, इस योजना में शुरू में 10 निजी बीमा कंपनी और मात्र एक पब्लिक बीमा कंपनी शामिल रही।  वर्ष 2016-17 में पांच और कंपनियों को शामिल किया गया, जिसमें चार कंपनियां सरकार के द्वारा संचालित हैं।  इस वर्ष एक निजी कंपनी श्रीराम जनरल इंश्योरेंस ने घाटे की वजह से योजना से अपना नाम वापस ले लिया थ।  खरीफ 2017 में दो और निजी कंपनियां योजना में शामिल कर ली गईं और इसके साथ कंपनियों की संख्या 17 पहुंच गई। हालांकि, अब की स्थिति में केवल 14 कंपनी जिसमें से 9 निजी कंपनी हैं, इस योजना से जुड़ी है। हालांकि, योजना से बाहर निकलने वाली कंपनी निकलने की वजह पर कुछ बोल नहीं रही, लेकिन आंकड़े सीधा-सीधा वजह की तरफ इशारा कर रहे हैं। 

किसी बीमा कंपनी का लाभ दावे के अनुपात पर निर्भर करता है, मतलब जितना पैसा दावेदार को दिया गया, उससे अधिक प्रीमियम जमा हुआ है तो कंपनी फायदे में है। आईसीआईसीआई लोम्बार्ड और चोलामंडलम ने पहले साल में तो फायदा कमाया था, और इसकी वजह थी उनका दावे का अनुपात। जो कि क्रमशः 79 और 61 रही थी, लेकिन उसके बाद उन्हें बेहद अधिक नुकसान का सामना करना पड़ा।  टाटा एआईजी ने तो सभी 3 साल में 100 प्रतिशत से ऊपर दावे आने की वजह से नुकसान झेला। दरअसल, 2018 के खरीफ फसल में तो ज्यादातर कंपनी ने नुकसान ही झेला।  इस वर्ष हरियाणा और महाराष्ट्र सहित 9 राज्यों में 10 प्रतिशत दावे आये।  दूसरे राज्यों में दावे के अनुपात 100 से कम था लेकिन औसत 76 प्रतिशत से अधिक था। ये आंकड़े केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण विभाग की ओर से जारी किए गए।  गोआ जहां पर सबसे अधिक दावे आए, कंपनी को 1 रुपये के बदले 2.8 रुपये बीमा राशि के रूप में खर्च करना पड़ा। हरियाणा में यह अनुपात 1.4 का रहा। 

खराब मौसम और राजनीति, नुकसान की ये दो वजह

  • अधिक दावे की दो वजह बताई जा रही है, एक बेहद खराब मौसम और दूसरा फसल खराब होने का आंकलन करने में स्थानीय राजनीति की दखल। 
  • वर्ष 2016-17 में मौसम की वजह से 26 लाख हेक्टेयर खेती तबाह हो गई। 2017-18 में यह रकबा 47 लाख हेक्टेयर तक पहुंच गया। 

सरकार द्वारा संचालित फसल बीमा कंपनी एआइसीएल के अध्यक्ष और प्रबंध संचालक राजीव चौधरी कहते हैं कि  रबी के दौरान हमेशा से कंपनियों को नुकसान का सामना करना पड़ा है, जो कि सीधे तौर पर मौसम से जुड़ा हुआ है, लेकिन खरीफ में लाभ भी होता आया है। वे कहते हैं, हम लोग हर वर्ष 10 से 15 फीसदी फायदा कमा ही लेते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं रहा"  पहले की तरह अब योजनाएं बदली हैं और किसान फसल काटने के बाद बीमा के लिए दावा करता है। कंपनियों के पास इस दावे की पुष्टि के लिए कोई संसाधन नहीं है। चौधरी अनुमान लगाते हैं कि 2019 का खरीफ का नुकसान महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और कर्नाटक जैसे राज्यों में लगातार हुई बारिश की वजह से सबसे अधिक रहने वाला है। 

एक अधिकारी ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर बताया कि महाराष्ट्र में अबतक 25 लाख किसानों ने 100 फीसदी फसल खराब होने का दावा किया है, जिसकी पूर्ति करने में बीमा कंपनी दीवालिया हो जाएगी। 

डाउन टू अर्थ से बातचीत के दौरान अधिकतर बीमा कंपनी के एजेंट ने स्थानीय नेता और राज्य सरकारों को भी इसका जिम्मेदार बताया।  वे मानते हैं कि सरकारें बढ़ा-चढ़ाकर नुकसान बताती हैं। गुजरात के एक एजेंट ने कहा कि बिना खेत पर गए लोगों के दावे स्वीकार कर लिए जाते हैं और कंपनी को उसे देने को कहा जाता है। उदाहरण के लिए मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि राजस्थान सरकार ने मूंगफली की फसल के लिए 100 फीसदी बीमा दावा कंपनी को देने को कहा, जबकि कई इलाके में ये फसल लगाई भी नहीं गई थी। कंपनियों के कर्मचारी सुझाते हैं कि अगर को स्वतंत्र संस्था नुकसान का आकलन करे तो इस स्थिति को बदला जा सकता है।