कृषि

सूखे का दंश : सूखाग्रस्त जिलों से ही पूरी होगी खाद्यान्न आत्मनिर्भरता

भारत में पिछले 40 सालों से बुवाई का क्षेत्र स्थिर है। खाद्यान्न की मांग को पूरा करने के लिए सूखाग्रस्त क्षेत्रों में उत्पादन बढ़ाना होगा

Richard Mahapatra

भारत के सूखाग्रस्त जिलों की आमतौर पर भयावह तस्वीर पेश की जाती है। देश के लिए ये जिले चुनौती के तौर पर पेश किए जाते हैं। सूखा राहत के नाम पर इन जिलों पर खर्च की गई धनराशि को असफल करार दे दिया जाता है और इसे जनता के पैसों की बर्बादी कहा जाता है। इस सबके बावजूद इनके विकास पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है ताकि इन्हें सूखामुक्त बनाया जा सके। ऐसा इसलिए भी क्योंकि देश की खाद्यान्न आत्मनिर्भरता की जरूरतों को इन्हीं क्षेत्रों से पूरा किया जा सकता है।

ऐसा क्यों : पंजाब और हरियाणा जैसे हरित क्रांति वाले राज्यों में उत्पादन में ठहराव आ गया है और भारत में भी बुवाई का क्षेत्र लंबे समय से स्थिर है। जबकि दूसरी तरफ आबादी बढ़ने से उपभोग में वृद्धि के कारण खाद्यान्न की मांग बढ़ी है। केवल कम बारिश वाले क्षेत्रों से ही यह मांग पूरी हो सकती है क्योंकि यहां उत्पादन बेहद निम्न है। ये अधिकांश क्षेत्र भारत के सूखाग्रस्त जिलों में हैं।

1950-51 में बुवाई का कुल क्षेत्र 119 मिलियन हेक्टेयर था जो 1970-71 में बढ़कर 140 मिलियन हेक्टेयर हो गया। यह क्षेत्र पिछले 40 सालों से 140 से 142 मिलियन हेक्टेयर बना हुआ है। लेकिन 1950 के बाद से आबादी तीन गुणा बढ़ चुकी है। भारत की खाद्यान्न आत्मनिर्भरता हरित क्रांति के बाद मुख्य रूप से पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों की बदौलत हुई है।

भारत के सूखाग्रस्त जिले कृषि भूमि के 42 प्रतिशत हिस्से में हैं। करीब 68 प्रतिशत कृषि क्षेत्र खेती के लिए बारिश पर निर्भर है और ये क्षेत्र देश की अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका निभाते हैं। खाद्य सुरक्षा और पोषण की जरूरतों को पूरा करने के लिए 2020 तक अतिरिक्त 100 मिलियन टन खाद्यान्न की जरूरत है।

2020 तक सिंचित क्षेत्र से अधिकतम 64 मिलियन टन खाद्यान्न उत्पन्न हो सकता है। शेष 36 मिलियन टन की पूर्ति सूखाग्रस्त क्षेत्रों से ही हो सकती है। अनुमानों के मुताबिक, अतिरिक्त खाद्यान्न की 40 प्रतिशत आपूर्ति इन्हीं क्षेत्रों से होगी।

लेकिन समस्या यह है कि बारिश पर निर्भर जिलों में हर तीन साल में सूखा पड़ता है। अक्सर तीन से छह तक तक सूखा रहता है जिससे लोगों के लिए पानी की उपलब्धता प्रभावित होती है। पशुधन और चारे पर भी इसका असर होता है। सूखा प्रत्यक्ष और नकारात्मक रूप से कृषि उत्पादन को प्रभावित करता है। बारिश पर निर्भर क्षेत्रों पर पड़ने वाले सूखे ने खाद्यान्न उत्पादन 20 से 40 प्रतिशत कम कर दिया है। यही कारण है कि बारिश पर निर्भर इन क्षेत्रों के किसान खेती छोड़ रहे हैं। राजस्थान की अधिकांश खेती बारिश पर निर्भर है। यहां के किसानों ने बड़े पैमाने पर खेती छोड़कर गैर कृषि कार्य को अपना लिया है। दूसरी मुख्य चुनौती बारिश पर निर्भर क्षेत्रों में सिंचाई के साधन मुहैया कराने की है। समस्त भारत में सिंचित भूमि कुल बुवाई क्षेत्र का केवल 41 प्रतिशत (58.4 मिलियन हेक्टेयर) है।

फिलीपींस की इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट और जापान इंटरनेशनल रिसर्च सेंटर फॉर एग्रीकल्चर ने 2006 में छत्तीसगढ़ के शोध संस्थानों, ओडिशा और झारखंड की मदद से एक अध्ययन किया था। यह अध्ययन बताता है कि लोगों के गरीबा रेखा में रहने का मुख्य कारण सूखा है। 2014 में उन लोगों को गरीबी रेखा में रहने वाला माना गया था जिनकी आमदमी 34 रुपए प्रतिदिन है।

सूखाग्रस्त क्षेत्रों की उपलब्धता कुछ समय के लिए खाद्यान्न आत्मनिर्भरता को बरकरार रख सकती है। यही वजह है कि दूसरी हरित क्रांति इन्हीं क्षेत्रों में लक्षित की गई है। लेकिन देश की मांग और आपूर्ति जल्द टिपिंग प्वाइंट पर पहुंच जाएंगी। ऐसी स्थिति में लगातार पड़ने वाला सूखा और इससे निपटने में हमारी असफलता कृषि क्षेत्र की अगली बड़ी त्रासदी होगी।