फसलों में बड़े पैमाने पर होता यूरिया का उपयोग किसानों की जेब के साथ स्वास्थ्य के साथ भी खिलवाड़ कर रहा है; फोटो: आईस्टॉक 
कृषि

भारतीय वैज्ञानिकों ने खोजी धान की ऐसी किस्में जो नाइट्रोजन का कहीं बेहतर तरीके से करती हैं उपयोग

Lalit Maurya

भारतीय वैज्ञानिकों ने पाया है कि धान की कुछ किस्में नाइट्रोजन का इस्तेमाल अन्य किस्मों की तुलना में कहीं ज्यादा बेहतर तरीके से करती हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक धान की विभिन्न किस्में प्राकृतिक तौर पर नाइट्रोजन का उपयोग कितनी दक्षता से करती हैं, उसमें पांच गुणा अंतर है।

अपने अध्ययन में वैज्ञानिकों ने धान की किस्मों के कुछ ऐसे गुणों और जीनों की भी पहचान की है, जो फसलों की पैदावार को बेहतर बना सकती हैं। इसके साथ ही यह गुण उर्वरकों के बेहतर उपयोग, प्रदूषण में कमी, स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन के दृष्टिकोण से भी मददगार साबित हो सकते हैं।

रिसर्च से पता चला है कि धान की खीरा और सीआर धान 301 जैसी प्रजातियां नाइट्रोजन का उपयोग बेहद दक्षता के साथ करती हैं। मतलब की इन्हें बहुत कम उर्वरकों की आवश्यकता होती है। लेकिन धान की इन किस्मों को बढ़ने में बहुत अधिक समय लगता है।

वहीं दूसरी तरफ धान की ढाला हीरा किस्म एक तरफ जहां नाइट्रोजन का बेहद दक्षता के साथ उपयोग करती है। साथ ही इसे तैयार होने में बहुत कम समय लगता है। मतलब की इस किस्म में यह दोनों ही गुण मौजूद हैं। गौरतलब है कि नाइट्रोजन उपयोग दक्षता (एनयूई) का मतलब है कि इस्तेमाल किए यूरिया से कितना अनाज पैदा किया जा सकता है।

इस अध्ययन के नतीजे जर्नल ऑफ प्लांट ग्रोथ रेगुलेशन में प्रकाशित हुए हैं। बता दें कि यह अध्ययन गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर सस्टेनेबल नाइट्रोजन एंड न्यूट्रिएंट मैनेजमेंट से जुड़े शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है। अध्ययन से जुड़े शोधकर्ताओं में आशु त्यागी, डॉक्टर नवज्योति चक्रवर्ती और प्रोफेसर नंदुला रघुराम शामिल थे।

विश्वविद्यालय की ओर से जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा है कि भारत धान की हजारों किस्मों के साथ इसकी जैव विविधता का उद्गम केंद्र भी है। ऐसे में यह अध्ययन धान की बेहतर किस्मों के चयन और ब्रीडिंग की मदद से नाइट्रोजन उपयोग दक्षता में सुधार की व्यापक संभावनाओं को उजागर करता है।

अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता प्रोफेसर रघुराम ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से जानकारी दी है कि भारत में यूरिया की दो तिहाई खपत अनाजों में होती है। इसकी खपत के मामले में धान सबसे ऊपर है।"

किसानों की जेब के साथ पर्यावरण को भी भारी पड़ रही है उर्वरकों की बर्बादी

उनके मुताबिक नाइट्रोजन उपयोग की खराब दक्षता बड़ी मात्रा में उर्वरकों की बर्बादी की वजह बन रही है। इसकी वजह से देश में हर साल एक लाख करोड़ और वैश्विक स्तर पर 17,000 करोड़ डॉलर से अधिक की कीमत के उर्वरकों की बर्बादी हो रही है। उनके अनुसार यह आंकड़ा पिछले 50 वर्षों में तीन गुणा हो गया है।

इससे भी बदतर बात यह है कि नाइट्रोजन युक्त उर्वरक हवा में नाइट्रस ऑक्साइड के साथ अमोनिया छोड़ते हैं। इसी तरह यह उर्वरक पानी में नाइट्रेट या अमोनियम प्रदूषण की वजह बनते हैं। ऐसे में यह बर्बादी न केवल आर्थिक रूप से नुकसान पहुंचा रही है। साथ ही बढ़ते प्रदूषण की वजह भी बन रही है।

इसकी वजह से स्वास्थ्य और जैवविविधता को नुकसान हो रहा है। साथ ही यह जलवायु में आते बदलावों को भी हवा दे रहे हैं। बता दें कि भारत में यूरिया, प्रमुख नाइट्रोजन उर्वरक है। इसके बावजूद हमारे पास उन फसलों की किस्मों की लिस्ट नहीं है जो नाइट्रोजन का बेहतर तरीके से उपयोग करती हैं। यही वजह है कि हम आसानी से बेहतर फसलों का चयन या ब्रीडिंग नहीं कर सकते।

शोधकर्ताओं के मुताबिक बेहतर उर्वरकों, फलियों वाली फसलों को बदल-बदल कर लगाना और बेहतर कृषि पद्धतियों की मदद से नाइट्रोजन उपयोग दक्षता (एनयूई) में सुधार किया जा सकता है। वहीं किसानों की आदतों में बदलाव और आर्थिक चुनौतियां से उबरकर स्थिति को बेहतर बनाया जा सकता है।

अध्ययन से जुड़ी प्रमुख शोधकर्ता आशु त्यागी के मुताबिक धान की ऐसी हजारों स्थानीय किस्में हैं जिनमें अपार संभावनाएं हो सकती हैं। उनका कहना है कि इस अध्ययन में धान की किसी भी फसल में मौजूद 46 लक्षणों का विस्तार से अध्ययन किया गया है। इनमें से 19 लक्षण ऐसे हैं जो धान द्वारा नाइट्रोजन का बेहतर उपयोग करने में मदद करते हैं। वहीं इनमें आठ नए लक्षण भी शामिल हैं, जिनका अभी भी खेतों में परीक्षण किया जाना बाकी है।

इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने भारत में धान की उपलब्ध एक हजार से अधिक किस्मों में से एक दर्जन किस्मों का परीक्षण किया है। इस जांच में सामने आया है कि धान की यह किस्मों नाइट्रोजन का कितने बेहतर तरीके से उपयोग करती हैं, उसमें पांच गुणा अंतर है।

ऐसे में इस जानकारी का उपयोग फसलों को बेहतर बनाने के लिए किया जा सकता है। उनका मानना है कि स्थानीय तौर पर धान की कई ऐसी किस्में हो सकती हैं, जिनमें इससे भी कहीं ज्यादा संभावनाएं हो सकती हैं।