कृषि

बासमती पर भारत के बाहर और भीतर बढ़ी तकरार, लेकिन किसान हताश

Bhagirath, Vivek Mishra, Raju Sajwan

बासमती का जीआई टैग (जियोग्राफिकल इंडिकेशन) घरेलू और अंतरराष्ट्रीय लड़ाई का कारण बन गया है। घरेलू स्तर पर लड़ाई मुख्य रूप से मध्य प्रदेश और पंजाब के बीच है जबकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत-पाकिस्तान आमने-सामने हैं। पहले बात भारत-पाकिस्तान की लड़ाई की। इसकी शुरुआत तब हुई जब भारत ने 2018 में अपने बासमती को जीआई टैग दिलाने के लिए यूरोपीय यूनियन के काउंसिल ऑन क्वालिटी स्कीम फॉर एग्रीकल्चरल एंड फूडस्टफ्स में आवेदन किया।

पाकिस्तान ने भारत के इस आवेदन को चुनौती देने का फैसला किया है क्योंकि उसे डर है कि अगर भारत का आवेदन स्वीकार कर लिया जाता है तो वह बासमती का बड़ा उत्पादक होने के बावजूद यूरोपीय यूनियन के बाजार से बाहर हो सकता है। अभी पाकिस्तान हर साल एक बिलियन डॉलर का बासमती निर्यात करता है। इसका एक बड़ा हिस्सा यूरोपीय देशों में जाता है। बासमती के कुल निर्यात में भारत की हिस्सेदारी दो-तिहाई है, शेष पर पाकिस्तान का कब्जा है।

जीआई एक विशेष ट्रेडमार्क है जो किसी उत्पाद के मूल स्थान और विशेषताओं को मान्यता देता है। इससे उत्पाद की प्रतिष्ठा बढ़ती है। इस टैग से उत्पाद का विशेष वैश्विक बाजार विकसित होता है और इससे राजस्व प्राप्त होता है। बासमती मुख्य रूप से भारत और पाकिस्तान में सिंधु-गंगा के मैदानों में उगाया जाता है। कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीडा) ने हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और जम्मू-कश्मीर के 81 जिलों में उगाए जाने वाले बासमती को जीआई टैग दिया है।

पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान के वाणिज्य सलाहकार रज्जाक दाऊद ने जीआई टैग के मसले पर 5 अक्टूबर 2020 को वाणिज्य सचिव, इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी ऑर्गनाइजेशन के अध्यक्ष, वकीलों और राइस एक्सपोर्ट असोसिएशन से मुलाकात की थी। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, बैठक में निर्णय लिया गया कि बासमती पर भारत के दावे को चुनौती दी जाएगी। डाउन टू अर्थ ने इस मामले में जब पाकिस्तान राइस एक्सपोर्ट असोसिएशन के अध्यक्ष से बात की थी तो उन्होंने यह कहकर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया कि मामला बहुत संवेदनशील है। उन्होंने यह भी कहा कि हम इस मामले में पाकिस्तानी मीडिया से भी बात नहीं कर रहे हैं। डॉन मैगजीन ने दाऊद के हवाले से बताया कि पाकिस्तान, भारत के जीआई टैग के दावे का यूरोपीय यूनियन में पुरजोर विरोध करेगा और उसे बासमती की जीआई टैग लेने से रोकेगा।

भारत के दावे को चुनौती देने के लिए पाकिस्तान ने पिछले सप्ताह यूरोपियन यूनियन में अपना आवेदन जमा करा दिया है। इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी ऑर्गनाइजेश (आईपीओ), पाकिस्तान ने यह आवेदन किया है। पाकिस्तान के अखबार डॉन में वाणिज्य सलाहकार अब्दुल रज्जाक दाऊद के हवाले से यह खबर प्रकाशित की। 

हालांकि पाकिस्तान की राह मुश्किल बताई जा रही है क्योंकि यूरोपीय यूनियन के नियमों के तहत पाकिस्तान को अपना जीआई टैग का कानून लागू करना होगा। पाकिस्तान ने अब तक इस साल मार्च में बने इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी कानून को लागू नहीं किया है। भारत के वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री सोम प्रकाश ने डाउन टू अर्थ को बताया कि वह जीआई टैग पर चल रहे भारत-पाकिस्तान की लड़ाई से अनभिज्ञ हैं। ऐसा तब है जब सोम प्रकाश बासमती के प्रमुख उत्पादक राज्य पंजाब से आते हैं। जयशंकर तेलंगाना स्टेट एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर प्रोफेसर प्रवीण राव वालचेला बताते हैं कि जीआई टैग के लिए भारत के दावे को डीएनए से मजबूती मिलेगी। यूरोपीय यूनियन में इससे भारतीय दावे को वैज्ञानिक आधार मिलेगा।



खोया बाजार हासिल करने की कवायद

बासमती के जीआई टैग के लिए भारत का आवेदन ऐसे समय में हुआ है जब यूरोपीय बाजार में इसका निर्यात बुरी तरह बाधित है। 2017-18 में यूरोपीय यूनियन ने कृषि उत्पादों में रयासन के संबंध में अपने नियमों में बदलाव किया था। भारत के बासमती में ट्राइजाइलाजोल नामक कीटनाशक की अत्यधिक मात्रा मिलने पर यूरोपीय यूनियन ने भारतीय बासमती पर प्रतिबंध लगा दिया था। इससे भारत एक बड़े बाजार से हाथ धो बैठा। पाकिस्तान ने इसका फायदा उठाते हुए 2017 के बाद केवल दो साल में अपना निर्यात दोगुना कर लिया। भारत अपने इस खोए हुए बाजार को फिर से हासिल करना चाहता है। जीआई टैग की सारी कवायद इसी प्रयास का नतीजा है।

बासमती एक निर्यात उन्मुख उत्पाद है। उन्नत बीजों की मदद से भारत में पिछले दो दशकों के दौरान बासमती का उत्पादन दोगुना हो गया है। पिछले साल भारत ने बासमती के निर्यात से सबसे अधिक विदेशी मुद्रा अर्जित की। देश में वर्ष 2019-20 में 75 लाख टन बासमती का उत्पादन हुआ। इसमें से 61 प्रतिशत बासमती का निर्यात किया गया। वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के वाणिज्यिक जानकारी एवं सांख्यिकी महानिदेशालय (डीजीसीआईएस) के अनुसार, भारत ने पिछले वित्त वर्ष में बासमती के निर्यात से 31,025 करोड़ रुपए अर्जित किए गए। मौजूदा वर्ष में अप्रैल से जून के बीच लॉकडाउन के दौरान भी भारत ने 12.8 लाख टन बासमती के निर्यात से 8,696 करोड़ रुपए अर्जित किए।

पाकिस्तान ब्यूरो ऑफ स्टेटिस्टिक्स (पीबीएस) के आंकड़ों के मुताबिक, 2019-20 में पाकिस्तान ने 8.90 लाख टन बासमती का निर्यात किया। इससे स्पष्ट है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में पाकिस्तान से भारत को प्रत्यक्ष चुनौती मिलती है। भारतीय बासमती पाकिस्तानी बासमती के मुकाबले दोगुने दाम पर भी बिकता है, इसलिए अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपनी पकड़ बनाना भारत के लिए जरूरी हो गया है।

बासमती से मोहभंग

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भले ही बासमती पर गलाकाट प्रतियोगिता चल रही हो और यह विदेशी मुद्रा का बड़ा स्रोत हो लेकिन भारत के किसानों का इस फसल के प्रति उत्साह खत्म हो रहा है। हरियाणा के पानीपत जिले के हल्दाना गांव में रहने वाले नवाब सिंह को नहीं पता कि उनके बासमती को जीआई टैग मिला हुआ है। इस टैग के महत्व और भारत-पाकिस्तान के झगड़े से भी वह अनजान हैं। उन्होंने तय कर लिया है कि आगे से वह बासमती की खेती नहीं करेंगे। नवाब सिंह उन किसानों में शामिल हैं जो पीढ़ियों से बासमती की खेती करते आ रहे हैं। इस साल उन्होंने 4.4 हेक्टेयर में बासमती की 1718 वैराइटी उगाई थी। अक्टूबर में उन्होंने 3,100 किलो बासमती की उपज हासिल की। जब वह अपनी लेकर समालखा मंडी पहुंचे तो उनका बासमती आम चावल के भाव के आसपास बिका। वह बताते हैं, “मुझे 2,150 रुपए प्रति क्विंटल के भाव पर बासमती बेचना पड़ा।” इस भाव पर बासमती बेचकर उन्हें 12,000 रुपए प्रति एकड़ के हिसाब से नुकसान हुआ। यह लगातार पांचवा साल है जब बासमती का भाव गिरा है। नवाब सिंह ने अपने जीवन में इससे कम भाव पर कभी बासमती नहीं बेचा है। वह पूछते हैं, “इस भाव पर मैं अपने परिवार को कैसे पाल पाऊंगा?”

हरियाणा की तरह पंजाब, दिल्ली और उत्तर प्रदेश के किसान भी बासमती की खेती में लग रहे घाटे को बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं हैं। दिल्ली की नजफगढ़ मंडी में इस साल बासमती 2,300-2,400 रुपए, पंजाब में 1,800-2,000 रुपए और उत्तर प्रदेश में 1,500-1,600 रुपए प्रति क्विंटल के भाव पर बिक रहा है। साल 2014 में यही बासमती 4,500 रुपए प्रति क्विंटल के भाव पर बिका था। इसके बाद से भाव में लगातार गिरावट हो रही है (देखें, गिरता भाव,)।

हरियाणा के पानीपत जिले के डिंगवाड़ी गांव में रहने वाले शमशेर सिंह ने बासमती के गिरते भाव को देखते हुए तय किया है कि अब वह आगे से आम चावल की खेती करेंगे। इसकी वजह बताते हुए वह कहते हैं कि बासमती (1509 वैरायटी) का भाव 1,700 रुपए प्रति क्विंटल है। वहीं दूसरी तरफ आम चावल का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) इस साल 1,888 रुपए प्रति क्विंटल है। आम चावल का एमएसपी बासमती के बाजार भाव से बेहतर है। दिल्ली के घुम्मनहेड़ा गांव के किसान दयानंद बताते हैं, “एक एकड़ में बासमती की खेती की लागत करीब 40 हजार रुपए बैठती है। यह लागत साल दर साल बढ़ रही है, जबकि भाव लगातार कम होता जा रहा है।” दिल्ली के ही ढांसा गांव के रहने वाले सुखवीर भी कम उपज, बढ़ती लागत और गिरते भाव को देखते हुए बासमती के बजाय मोटे चावल की खेती करना चाहते हैं। हालांकि वह चाहकर भी ऐसा नहीं पा रहे हैं क्योंकि दिल्ली में एमएसपी पर धान की खरीद 2014 के बाद से बंद है। खुले बाजार में आम चावल 1,000 रुपए प्रति क्विंटल से भी कम है।

कुछ ऐसा ही हाल उत्तर प्रदेश का भी है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिलों को बासमती का जीआई टैग हासिल है। इसके बावजूद यहां के किसान आम चावल के न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी कम भाव पर बासमती बेचने को मजबूर हैं। बुंदेलखंड में धान के कटोरे के रूप में मशहूर बांदा जिले के बबेरू और अतर्रा में बासमती का भाव 1,200-1,300 रुपए प्रति क्विंटल तक पहुंच गया है। बांदा के किसान रामप्रकाश यादव बताते हैं कि इस क्षेत्र के बासमती को जीआई टैग नहीं मिला है। इस कारण जिले में बासमती का व्यापार संगठित रूप नहीं ले पाया है। उनका कहना है कि हरियाणा और पंजाब के व्यापारी यहां का बासमती खरीदते हैं। इसका भाव हरियाणा और पंजाब की तुलना में करीब 1,000 रुपए प्रति क्विंटल कम होता है। बांदा के कुलकुम्हारी गांव के किसान राममिलन बताते हैं, “बासमती की खेती से बेहतर है कि मजदूरी करके पेट पाल लें।” राममिलन ने भी निश्चय कर लिया है कि अगले साल से बासमती की खेती नहीं करेंगे।

क्यों गिरे भाव

भाव में गिरावट बासमती का वैश्विक बाजार सिकुड़ने का प्रत्यक्ष नतीजा है। बासमती राइस डेवलपमेंट फाउंडेशन (बीईडीएफ) के वैज्ञानिक रितेश शर्मा के अनुसार, “भारतीय बासमती के सबसे बड़े खरीदारों में शामिल ईरान में निर्यात बंद है।” अकेले ईरान में 13 लाख टन यानी करीब 34 प्रतिशत बासमती का निर्यात होता था। ईरान अब पाकिस्तान से बासमती खरीद रहा है। ऑल इंडिया राइस एक्सपोर्टर्स एसोसिएशन ने 26 अगस्त 2020 को व्यापारियों को जारी एडवाइजरी में कहा था कि ईरान को बासमती का निर्यात बहुत कम हो रहा है। ईरान को भेजे वाले बासमती में पिछले वर्ष के मुकाबले इस वर्ष में 63 प्रतिशत कमी आई है। यह मुख्य रूप से अमेरिका प्रतिबंधों के कारण है। एपीडा ने मई 2020 में जारी मार्केट इंटेलिजेंस रिपोर्ट में भी इशारा किया था कि भारतीय बासमती के दूसरे सबसे बड़े खरीदार सऊदी अरब को भी निर्यात कम हो सकता है। निर्यात में कमी का सीधा-सा मतलब यह है कि चावल मिलें किसानों से कम बासमती खरीद रही हैं। पानीपत अनाज मंडी में आढ़ती व मलिक इंटरप्राइजेज के संस्थापक महा सिंह बताते हैं कि मिल मालिकों को बासमती के बदले समय पर भुगतान नहीं मिल रहा है। उनका बहुत-सा पैसा फंसा हुआ है, इसलिए भी वे बासमती की ज्यादा खरीद नहीं कर रहे हैं जिसका सीधा असर भाव पर पड़ रहा है। वह कहते हैं, “भारत का अधिकांश बासमती इस्लामिक देशों को निर्यात होता है। अब इन देशों की प्राथमिकताएं बदल रही हैं। ये देश अब पाकिस्तान को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं।”

इसके अलावा कीटनाशकों के प्रयोग का नकारात्मक असर बासमती के निर्यात पर पड़ रहा है। एडवांसेस इन एग्रोनोमिक्स जर्नल में 2018 में प्रकाशित यूनिवर्सिटी ऑफ क्वींसलैंड के गुलशन महाजन का अध्ययन बताता है कि बासमती के खेती में रायायनिक उर्वरकों के प्रयोग से उसकी गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। अध्ययन के अनुसार, नाइट्रोजन का अधिक मात्रा से फाल्स स्मट और नेक ब्लास्ट रोग लग सकता है जो इसकी गुणवत्ता पर असर डाल सकते हैं।

इस साल बासमती के भाव कम होने के कुछ अन्य कारण भी हैं। रितेश शर्मा के अनुसार, महामारी के कारण होटल और रेस्तरां बंद होने से घरेलू स्तर पर बासमती की मांग काफी कम हो गई है। वह बताते हैं कि सरकार ने महामारी के दौरान बड़ी मात्रा में लोगों को सस्ते चावल वितरित किए हैं। इस कारण भी बाजार में बासमती की मांग ठहर-सी गई है।

एमपी की चाहत पर घमासान

जीआई टैग बासमती का दर्जा प्राप्त राज्यों के सामने एक और चुनौती है। मध्य प्रदेश में 80 हजार से अधिक बासमती किसान जीआई टैग की मांग कर रहे हैं। राज्य सरकार अपने 13 जिलों के बासमती को जीआई टैग का दर्जा दिलाने के लिए गंभीरता से प्रयास कर रही है। राज्य के किसान बासमती की 1121 वैरायटी की खेती 2006 से कर रहे हैं। राज्य ने 2017-18 में जीआई टैग के लिए आवेदन किया। हालांकि जियोग्राफिकल रजिस्ट्रेशन रजिस्ट्रार ने इस आवेदन को खारिज कर दिया। राज्य ने इसके बाद मद्रास उच्च न्यायालय में अपील की लेकिन वहां से भी उसे राहत नहीं मिली। इस साल मई में मध्य प्रदेश ने उच्च्तम न्यायालय में याचिका दायर कर जीआई टैग की अपील की है। राज्य की दलील है कि राज्य के बासमती को जीआई टैग का दर्जा न मिलने के कारण किसानों को इसका उचित मूल्य नहीं मिल रहा है।

एपीडा और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने इस मांग का यह कहकर विरोध किया है कि जीआई टैग विशेष जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियों वाले उत्पाद को दिया जाता है जो मध्य प्रदेश में नहीं हैं। कृषि वैज्ञानिक कृष्णा मूर्ति बताते हैं कि बासमती में खुशबू जीआई टैग वाले क्षेत्र की विशेष जलवायु के कारण होती है। वह बताते हैं, “मध्य प्रदेश या अन्य राज्यों में ऐसी जलवायु नहीं हैं। अगर राज्य को जीआई टैग का दर्जा मिल जाता है तो बासमती की गुणवत्ता और ब्रांडिंग प्रभावित होगी।”

राइस एक्सपोर्टर्स भी मध्य प्रदेश को जीआई टैग दिए जाने का विरोध कर रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि इस क्षेत्र के बासमती की गुणवत्ता हरियाणा और पंजाब की तुलना में निम्न दर्जे की है। इसके अलावा मध्य प्रदेश में बासमती अन्य राज्यों के मुकाबले सस्ता भी बिकता है। जानकारों का कहना है कि अगर मध्य प्रदेश के बासमती को जीआई टैग का दर्जा मिल जाए तो इसके बाजार पर बुरा असर पड़ेगा और किसानों को नुकसान होगा। राज्यों के बीच जीआई टैग का झगड़ा इस हद तक बढ़ गया है कि पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह को अगस्त में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खत लिखकर कहना पड़ा, “मध्य प्रदेश के बासमती को जीआई टैग देने से पंजाब के किसानों और बासमती के निर्यात पर बुरा असर पड़ेगा।” उन्होंने यह भी कहा कि ऐसा करने से पाकिस्तान को फायदा होगा।

ऑल इंडिया राइस एक्सपोर्टर्स एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष विजय सेतिया को यह बात तर्कसंगत लगती है। वह बताते हैं कि जब यूरोपीय यूनियन ने 2006 में भारत से जीआई टैग वाले क्षेत्रों की पहचान करने को कहा तो भारत ने जवाब दिया था कि वह इसका सर्वेक्षण कर रहा है और कुल मिलाकर सात राज्यों में इसकी पहचान की गई है। इसी तरह पाकिस्तान को भी ऐसे क्षेत्रों की पहचान करके यूरोपीय यूनियन को सूचना देनी थी। तब पाकिस्तान ने ऐसे क्षेत्रों की पहचान के लिए कोई कानून नहीं बनाया था। अब अगर भारत नए क्षेत्रों को पहचान करता है तो पाकिस्तान भी ऐसा कर सकता है।

मध्य प्रदेश के होशंगाबाद में किसान नेता लीलाधर बताते हैं कि राज्य के बासमती की गुणवत्ता पंजाब और हरियाणा से बेहतर है लेकिन जीआई टैग न होने के कारण इसे उचित मूल्य नहीं मिल पाता। वह बताते हैं कि मध्य प्रदेश का अधिकांश बासमती पंजाब और हरियाणा के व्यापारी खरीदते हैं और उसे बासमती के नाम पर बेचते हैं। अगर जीआई टैग मिल जाता है कि मध्य प्रदेश के बासमती को बेहतर बाजार भाव मिल सकेगा। वहीं दूसरी तरफ पंजाब में भारतीय किसान यूनियन के नेता हरेंद्र लाखोवाल कहते हैं कि अगर मध्य प्रदेश के बासमती को जीआई टैग मिल गया तो पंजाब के किसानों को नुकसान होगा। इसके बाद पंजाब में बासमती 1200-1300 प्रति क्विंटल के भाव पर बिकेगा और किसानों को भारी नुकसान का सामना करना पड़ेगा।
 

अध्ययन बताते हैं कि बासमती आम चावल के मुकाबले पर्यावरण पर कम नकारात्मक असर डालता है। इंडियन जर्नल ऑफ इकोनोमिक एंड डेवलपमेंट में जनवरी-मार्च 2017 में प्रकाशित पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के रिसर्चर सुखपाल सिंह, परमिंदर कौर, जतिंदर सचदेव और सुमित भारद्वाज का अध्ययन बताता है कि बासमती की खेती में रासायनिक उर्वरक अन्य फसलों के मुकाबले कम लगते हैं। उनका अध्ययन बताता है कि प्रति एकड़ बासमती की खेती में 194.99 किलो उर्वरक प्रयोग होता है जबकि प्रति एकड़ गेहूं की खेती में 282.93 किलो, प्रति एकड़ आम चावल की खेती में 249.48 किलो और प्रति एकड़ आलू की खेती में 550.32 किलो रासायनिक उर्वरकों की खपत होती है। बासमती की खेती में पानी भी आम चावल के मुकाबले कम लगता है। अध्ययन के अनुसार, एक एकड़ में आम चावल की खेती करने में 11-13 हजार क्यूबिक मीटर पानी की खपत होती है जबकि बासमती में यह खपत 8-9 हजार क्यूबिक मीटर होती है। इस लिहाज से देखें तो बासमती आम चावल के मुकाबले पर्यावरण हितैषी फसल है।

पंजाब कृषि विश्वविद्यालय में रिसर्च निदेशक नवतेज सिंह ने डाउन टू अर्थ को बताया कि बासमती चावल में बहुत सी खूबिया हैं। उदाहरण के लिए इससे फसलों में विविधता लाई जा सकता है और आम चावल के मुकाबले 15-20 प्रतिशत पानी की बचत की जा सकती है। इसी तरह यूरिया का उपभोग भी घटाया जा सकता है। पंजाब में इस वक्त बासमती धान के केवल प्रतिशत क्षेत्रफल में उगाया जाता है।

सबसे अहम बात यह है कि बासमती से निकलने वाली अधिकांश पराली चारे के रूप में इस्तेमाल हो जाती है, इसलिए इसे जलाने की नौबत नहीं आती। दयानंद बताते हैं कि हम मशीन के बजाय हाथ से फसल कटवाते हैं। इससे बहुत कम पराली बचती है और जो बचती है वह आसानी से बिक जाती है। उनका कहना है कि एक एकड़ के खेत ने निकलने वाली पराली करीब 5,000 रुपए में बिक जाती है। इससे कटाई की लागत निकल आती है।