किसी भी देश की प्रगति उसके द्वारा समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़ी जनता के लिए चलाई जा रही जन कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन की सफलता से आंका जाता है। लेकिन केंद्र सरकार इस मामले में बहुत पिछड़ गई है और इसके लिए वह स्वयं जिम्मेदार है।
यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि पिछले तीन वर्षों के अंदर मौजूदा केंद्र सरकार द्वारा चलाई जाने वाली जन काल्याणकारी योजनाओं में से 50 प्रतिशत से अधिक को बंद कर दिया गया हैं। और कई महत्वपूर्ण योजनाओं के लिए साल-दर-साल दी जाने वाली वित्तीय धनराशि में लगातार कमी की जा रही है।
केंद्र सरकार जैव विविधता की भी अनदेखी कर रही है। केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के तहत वन्यजीव आवास विकास के लिए दिए जाने वाले अनुदानों में लगातार कमी की जा रही है। यही नहीं प्रोजेक्ट टाइगर के लिए आवंटन राशि को भी घटा दिया गया है।
केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की 19 योजनाओं में से अब केवल तीन योजनाएं चल रही हैं, मिशन शक्ति, मिशन वात्सल्य, सक्षम आंगनवाड़ी। इसी प्रकार केंद्रीय पशुपालन और डेयरी मंत्रालय की 12 में से सिर्फ दो योजनाएं चल रही हैं, शेष को समाप्त कर दिया गया है। कृषि मंत्रालय की 20 योजनाओं में से वर्तमान में केवल तीन चल रही हैं। इसके अलावा पिछले तीन सालों में कई मंत्रालयों को दी जाने वाली वित्तीय धनराशि में भी लगातार कमी की जा रही है।
पशुपालन और डेयरी मंत्रालय की 12 में से सिर्फ दो योजनाएं चल रही हैं। मंत्रालय ने तीन महत्वपूर्ण योजनाओं को समाप्त कर दिया है, जिसमें सहकारी समितियों के माध्यम से डेयरी, राष्ट्रीय डेयरी योजना दो आदि शामिल हैं। कृषि और किसान मंत्रालय की अब 20 में से तीन (कृषोन्नति योजना, कृषि सहकारिता पर एकीकृत योजना और राष्ट्रीय कृषि विकास योजना) योजनाएं ही चल रही हैं।
कुछ विशेषज्ञ सरकारी योजनाओं में कमी को एक उल्लेखनीय उपलब्धि के रूप में देख रहे हैं लेकिन यहां यह एक यक्ष प्रश्न है कि क्या इस प्रकार से सरकारी योजनाएं की संख्या कम करने से सरकार द्वारा बेहतर शासन व्यवस्था होगी? यही नहीं यह भी प्रश्न उठता है कि कहीं इस प्रकार से योजनाओं की संख्या घटाने से राज्य की कार्य क्षमता तो नहीं घट रही?
ध्यान रहे कि जून 2022 तक केंद्र सरकार की योजनाओं के लिए 1.2 लाख करोड़ रुपए की धनराशि उन बैंकों के पास जमा है जो केंद्र के लिए ब्याज के रूप में आय अर्जित करते हैं। इस मामले में यहां एक उदाहरण देना बहुत होगा कि निर्भया फंड (2013) सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की सुरक्षा में सुधार, आर्थिक और सामाजिक गतिविधियों में उनकी भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिए बनाया गया था।
इसके लिए 1,000 करोड़ रुपए का फंड सालाना (2013-16) आवंटित किया गया लेकिन इसकी अधिकांश राशि खर्च ही नहीं की गई। यदि इस फंड के शुरू होने से लेकर अब तक (वित्त वर्ष 2011-22) के आंकड़ों को देखें तो अब तक लगभग 6,214 करोड़ रुपये की धन राशि सरकार आवंटित कर चुकी है। लेकिन इसमें से सरकार द्वारा 4,138 करोड़ रुपये ही वितरित किए गए और इस वितरित धनराशि में से सिर्फ 2,922 करोड़ रुपए ही खर्च किए गए।
इसी प्रकार से महिला और बाल विकास मंत्रालय को 660 करोड़ रुपए की धनराशि का वितरण किया गया था, लेकिन जुलाई 2021 तक केवल 181 करोड़ रुपए का उपयोग किया गया। इसके बाद भी राज्यों में विभिन्न महिला केंद्रित विकास योजनाओं को समाप्त किया जा रहा जबकि सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं को कई प्रकार की परेशानियों का पहले के मुकाबले अधिक सामना करना पड़ रहा है।
पिछले कुछ वर्षों में उर्वरक सब्सिडी में भी लगातार कमी की जा रही है। इसे इन आंकड़ों से आसानी से समझा जा सकता है। वित्तीय वर्ष 2020-21 में उर्वरकों पर वास्तविक सरकारी खर्च 1,27,921 करोड़ रुपए, 2021-22 में 79,529 करोड़ रुपए और 2022-23 के बजट में 1,05,222 करोड़ रुपए।
यही नहीं एनपीके उर्वरकों (नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम) के लिए आवंटन वित्त वर्ष 2011-22 में संशोधित अनुमानों की तुलना में 35 प्रतिशत कम था। इस तरह की बजटीय कटौती से उर्वरक की कीमतें तेजी से बढ़ी हैं और उर्वरक की कमी ने विशेष रूप से लघु एवं सीमांत किसानों की कमर ही तोड़ दी है। अकेले सरकारी योजनाओं की संख्या ही नहीं घटी बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले गरीबों के रोजगार के लिए चलाई गई योजनाओं के लिए आवंटित धनराशि में लगातार कमी की जा रही है।
उदाहरण के लिए महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के लिए वित्त वर्ष 2022-23 में आवंटन राशि 73,000 करोड़ थी। यह पिछले साल के आवंटन के मुकाबले लगभग 25 प्रतिशत कम है। वित्त वर्ष 21-22 में 98,000 करोड़ रुपए आवंटित किया गया था।
केंद्र सरकार द्वारा जैव विविधता की भी अनदेखी की जा रही है। उदाहरण के लिए केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के तहत वन्यजीव आवास विकास के लिए दिए जाने वाले अनुदान में लगातार कमी की जा रही है। वित्त वर्ष 18-19 में 165 करोड़ रुपए से घटकर वित्त वर्ष 2019-20 में 124.5 करोड़ रुपए और वित्त वर्ष 2020-21 में 87.6 करोड़ रुपए कर दिया गया।
इसी प्रकार से प्रोजेक्ट टाइगर के लिए आवंटन राशि को भी घटा दिया गया है। वित्त वर्ष 2018-19 में 323 करोड़ रुपए था जो वित्त वर्ष 2020-21 में 194.5 करोड़ रुपए हो गया। इस प्रकार से यदि केंद्र सरकार द्वारा लगातार वित्त कटौती की जाती रही जो ऐसे में सरकार जलवायु परिवर्तन के दायित्वों को पूरा कैसे करेगी?