“मैंने जब से होश संभाला है, ऐसी बर्बादी नहीं देखी।” उत्तर प्रदेश के महोबा में पान की खेती करने वाले 29 वर्षीय बिजेंद्र चौरसिया अपने बरेजा (पान की खेती के लिए बनाए गए अस्थायी ढांचे) में नष्ट हो पान के अवशेषों को दिखाते हुए कहते हैं कि इस साल जनवरी में चली शीतलहर और पाले से लगभग 10 लाख रुपए के पान उनकी आंखों के सामने झड़ गए और बेलें काली पड़कर सड़ गईं।
बिजेंद्र के पूर्वज सैकड़ों वर्षों से पान की खेती करते रहे हैं। उनका मानना है कि वह पान की खेती से जुड़े परिवार की आखिरी पीढ़ी है। संभव है कि आने वाले कुछ वर्षों में वह भी पान की खेती को पूरी तरह त्याग दें। बिजेंद्र की चिंताओं में महोबा में पान की खेती से जुड़े लगभग 100 ऐसे परिवारों की चिंताएं भी शामिल हैं, जिनकी उपज को भीषण ठंड से 70 से 100 प्रतिशत नुकसान पहुंचा है।
बिजेंद्र के बरेजा के पास ही चौरसिया समाज सेवा समिति के उपाध्यक्ष राजकुमार चौरसिया का भी बरेजा है। वह डाउन टू अर्थ को नुकसान की जानकारी देते हुए कहते हैं, “जो 10-15 प्रतिशत पान बचे हैं, वो भी डाल से टूटकर गिर रहे हैं। बाजार में काले पड़े चुके पान का कोई खरीदार नहीं है।”
राजकुमार चौरसिया की बातों की पुष्टि महोबा पान मंडी में फैला सन्नाटा भी करता है। दशकों से पान की खरीद-फरोख्त का केंद्र रही इस मंडी में डाउन टू अर्थ जनवरी के आखिरी सप्ताह पहुंचा और पाया कि यहां केवल दो दुकानें थीं। इन दुकानों में बिक रहा अधिकांश पान बंगाल से आया था। सीमित मात्रा में मौजूद महोबा के देशावरी पान की गुणवत्ता इतनी खराब थी कि उसे खरीदने वाला कोई नहीं था।
जोखिम भरी खेती
मंडी में पान विक्रेता 60 साल के खेमंचद चौरसिया अपने समाज का दर्द साझा करते हुए बताते हैं कि चौरसिया समाज आज भीख मांगने की स्थिति में पहुंच गया है। इस साल इतना नुकसान पहुंचा है कि आधे लोगों की दाल-रोटी नहीं चलेगी। त्योहार ऐसे मने हैं, जैसे तेरहवीं हो। खेमचंद के अनुसार, पान की खेती में जोखिम बहुत है, इसी के चलते वह 15 साल पहले ही इसकी खेती छोड़ चुके हैं। वह आगे बताते हैं, “हमारे परिवार के करीब 20 लोग पान की खेती में जुटे रहते थे लेकिन सबने पान की खेती में नुकसान को देखते हुए इसका त्याग कर दिया।” बिजेंद्र की तरह ही खेमचंद भी मानते हैं कि उन्होंने अपने पूरे जीवन में पान की मौजूदा साल जैसी बर्बादी नहीं देखी है।
मंडी में पान बेच रहे 24 वर्षीय प्रदीप चौरसिया ने पान की गौरवशाली अतीत की कहानियां अपने पिता से सुनी हैं। वह बताते हैं, “हमारे पिता बताते हैं कि लगभग 30 साल पहले वह पान की खेती बड़े पैमाने पर करते थे। तब हमारे बरेजा में 200 मजदूर काम करते थे। हमने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन हमें खेती छोड़कर पान बेचना पड़ेगा। धीरे-धीरे परिवार के सभी सदस्य पान की खेती से दूर हो गए। पिताजी ने मजदूरी करके हमारा भरण पोषण किया है।”
पान की खेती पर अक्सर ठंड की मार पड़ती है लेकिन उसके बाद भी लगभग 50 प्रतिशत पान बचे रहते थे, लेकिन इस साल का नुकसान बड़ा है। महोबा में राजकीय पौधशाला के प्रभारी सुलेमान खान का अनुमान है कि ठंड से कम से कम 80 प्रतिशत पान को नुकसान पहुंचा है। वह कहते हैं कि मौसम की प्रतिकूल होती परिस्थितियों में समझ नहीं आ रहा है कि पान की खेती आखिर कैसे करें।
राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान (एनबीआरआई) में प्रधान वैज्ञानिक रह चुके और महोबा में चुके पान अनुसंधान केंद्र (करीब 20 साल पहले बंद) के संस्थापक रहे रामसेवक चौरसिया का अनुमान है कि शीतलहर और पाले से करीब एक करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है।
पान की खेती एक कृत्रिम और संतुलित जलवायु की जरूरत होती है। हर मौसम की चरम स्थितियां इसके लिए नुकसानदेय हैं। राजकुमार चौरसिया ऐसे जोखिमों के बारे में बताते हैं, “पान की खेती को हर मौसम की चरम परिस्थितियों से बचाकर रखना पड़ता है। अधिक वर्षा होने पर, गर्मियों में तापमान 45 डिग्री सेल्सियस पहुंचने पर और सर्दियों में तापमान 6 डिग्री सेल्सियस से नीचे जाने पर फसल को नुकसान पहुंचने लगता है। इस साल तापमान तो दो डिग्री तक पहुंच गया था।” राजकुमार चौरसिया कहते हैं कि 1997 से वह पान की खेती पर जलवायु परिवर्तन के असर को स्पष्ट रूप से देख रहे हैं। तब से अब तक वह मौजूदा साल जैसी लगभग 20 चरम मौसमी घटनाओं की मार को देख चुके हैं। इन घटनाओं ने पान की खेती पर बहुत बुरा असर डाला। रामसेवक चौरसिया मानते हैं कि पाले के बाद लू ने सबसे ज्यादा पान को प्रभावित किया है।
अप्रत्याशित गिरावट
महोबा में पान की खेती लगभग 1,000 वर्ष से जारी है। पान यहां की शान और पहचान दोनों रही है। चंदेल राजाओं के दौर से जारी पान की खेती के लिए पिछले दो से ढाई दशक भारी गुजरे हैं। पान की खेती से जुड़े लोगों का साफ मानना है कि आने वाले कुछ वर्षों में महोबा का पान पूरी तरह विलुप्त हो जाएगा। पान की खेती का घटता रकबा, कम होते किसान और उत्पादन में कमी के आंकड़े विलुप्ति की आशंका को मजबूत करते हैं (देखें विलुप्ति की ओर)। साल 2000 से अब तक पान के रकबे में 95 प्रतिशत से ज्यादा की गिरावट आ चुकी है। पान के उत्पादन में लगे 75 प्रतिशत किसान भी इसकी खेती से छिटक गए हैं।
महोबा में उगने वाला देशावरी पान खास इसलिए भी है क्योंकि इसकी खूबियों के कारण 2 साल पहले इसे जीआई टैग (ज्योग्राफिकल इंडीकेशन) मिला है। यह अपने करारेपन और स्वाद के लिए लोकप्रिय रहा है। देशावरी पान को जीआई टैग दिलाने में मुख्य भूमिका निभाने वाले राज कुमार चौरसिया बताते हैं कि विश्व में लगभग 200 पान की प्रजातियों में महोबा का देशावरी पान सबसे विलक्षण गुणों वाला है। यह पान मुंह में डालते ही पूरी तरह घुल जाता है यानी पान का कोई अवशेष मुख में नहीं छूटते। बाकी किसी पान में ऐसा गुण नहीं है। देशावरी पान का स्वाद अलग सुगंध से परिपूर्ण है। ऐसे तमाम गुणों का प्रमाण देने के बाद ही 2021 में इसे जीआई टैग हासिल हुआ। तकलीफ के साथ राजकुमार चौरसिया कहते हैं कि जीआई टैग के बाद भी पान की स्थिति में सुधार नहीं हुआ है। हाल ही में जब उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या महोबा आए तो उन्हें पान की खूबियों से अवगत कराया गया। उन्होंने वादा किया कि पान किसानों की संख्या के अनुसार योजनाएं बनेंगी लेकिन उनकी घोषणा का असर जमीन पर फिलहाल नहीं दिख रहा है।
घाटे का सौदा
मौसम की प्रतिकूल परिस्थितियों के साथ ही पान की खेती की बढ़ती लागत भी किसानों को इसकी खेती से दूर रही है। पान के बरेजा में इस्तेमाल होने वाला बांस, बल्ली, तार, घास, सनौवा आदि सामान के दाम आसमान छू रहे हैं। यह सामान साल 2000 के मुकाबले चार से पांच गुणा महंगा मिल रहा है। राजकुमार चौरसिया के अनुसार, सवा बीघा में लगभग 50 पान की पारियां लगती हैं। प्रति पारी 10 हजार रुपए की औसत लागत आती है। वर्तमान में 50 पारियों की लागत करीब 5 लाख रुपए है। 22 साल पहले 50 पारियों की लागत 10 से 15 हजार रुपए थी। उनका कहना है कि चार से पांच गुणा लागत के अनुपात में पान का मूल्य नहीं बढ़ा है। उदाहरण के लिए साल 2000 में एक ढोली पान का मूल्य 100 रुपए था जिसका वर्तमान में औसत मूल्य 200 रुपए प्रति ढोली ही है। लागत और मूल्य के बीच बढ़ता फासला पान की खेती को हतोत्साहित कर रहा है।
मूल्यवर्धन जरूरी
पान किसान मानते हैं कि इसे गुटखे के चलन ने काफी प्रभावित किया है। किसानों के लिए समर्पित रामसेवक चौरसिया कहते हैं कि हम काफी समय से पान की फसल को प्रधानमंत्री बीमा योजना के दायरे में लाने की मांग कर रहे हैं। दबाव के चलते दस्तावेजों में यह योजना लागू तो कर दी गई, लेकिन वास्तव में किसी भी पान किसान को इसका लाभ नहीं मिला है क्योंकि पान की फसल चार-छह महीने की फसल न होकर सालाना है।
यह जनवरी से शुरू होकर दिसंबर तक चलती है। और एक बार लगाया हुआ पान का बरेजा कम से कम दो साल और अधिकतम तीन साल तक चलता है। वह कहते हैं कि जरूरत है कि पान को सालाना फसल की मान्यता प्रदान करते हुए इसे फसल बीमा योजना में शामिल किया जाए। अब तक सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया है। वह अागे बताते हैं कि काफी कोशिशों के बाद सरकार ने पान का बरेजा लगाने के लिए सरकारी मदद देनी शुरू की है। लेकिन इसमें केवल उन्हीं किसानों को फायदा पहुंचता है जिनके पास खुद की जमीन है। महोबा में 75 प्रतिशत किसान दूसरे की जमीन किराए पर लेकर पान की खेती करते हैं। रामसेवक चौरसिया बताते हैं कि शासन को कई बार लिखित आवेदन देने के बाद भी किराए पर जमीन लेकर खेती करने वाले किसानों को इसका लाभ देने की पहल नहीं हुई है।
रामसेवक चौरसिया पान किसानों को बचाने का रास्ता सुझाते हुए बताते हैं, “पान के किसानों का भला तब ही हो सकता है जब हम पान के वैकल्पिक उपयोग को बढ़ाएं। पान के पत्तों के तेल की बाजार में भारी मांग है।
इसका भाव एक लाख रुपए प्रति किलो है। इसका बहुउपयोगी तेल पान कैंडी, पान कंद, पान आइसक्रीम के अलावा कई मिठाइयों में होता है। आयुर्वेदिक दवाओं में भी इसका उपयोग है। यह शरीर को ताकत देने और प्रतिरक्षा को मजबूत बनाने के साथ ही कैंसर अवरोधी भी है। अगर पान का समुचित प्रचार और प्रसार किया जाए और इसके वैल्यू एडेड वस्तुएं बनाई जाएं तो पान किसानों को मदद मिलेगी। अगर ध्यान नहीं दिया गया तो जीआई टैग वाला महोबा का पान चार-पांच साल में खत्म हो सकता है।