पर्यावरण और स्वास्थ्य पर रासायनिक खेती के गंभीर दुष्प्रभाव को देखते हुए धीरे-धीरे ही सही लेकिन जैविक व प्राकृतिक खेती की तरफ लोगों का झुकाव बढ़ रहा है। यह खेती अपार संभावना ओं का दरवाजा खोलती है। हालांकि भारत में यह खेती अब भी सीमित क्षेत्रफल में ही हो रही है। सरकारों द्वारा अभी काफी कुछ करना बाकी है। अमित खुराना व विनीत कुमार ने जैविक खेती के तमाम पहलुओं की गहन पड़ताल की। पहली कड़ी में आपने पढ़ा, खेती बचाने का एकमात्र रास्ता, लेकिन... । दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा, सरकार चला रही है कौन से कार्यक्रम। पढ़ें, इससे आगे की कड़ी -
केंद्रीय बजट 2020-21 के अनुसार, पीकेवीवाई के लिए सिर्फ 500 करोड़ रुपए, एमओवीसीडीएनआर के लिए 175 करोड़ रुपए और नेशनल प्रोजेक्ट ऑन ऑर्गेनिक फार्मिंग के लिए 12.5 करोड़ रुपए का प्रावधान था। यह राशि रासायनिक खेती को दी जाने वाली 70-80 हजार करोड़ रुपए प्रतिवर्ष की सब्सिडी के मुकाबले बहुत छोटी है। गत वर्षों में इन योजनाओं के लिए निर्धारित छोटी राशि भी पूरी खर्च नहीं की गई।
जैविक खेती नीति 2005 पुरानी हो चुकी है। इसमें कोई खास लक्ष्य या समयसीमा निर्धारित नहीं थीं और इसका अब अक्सर जिक्र तक नहीं किया जाता। पीकेवीवाई और एमओवीसीडीएनआर योजनाएं नेशनल मिशन ऑफ सस्टेनेबल एग्रीकल्चर (एनएमएसए) के अंदर आती हैं। ये मिशन एक अच्छा कदम था लेकिन इसके छोटे बजट और महत्वाकांक्षी न होने की वजह से इसको खास सफलता हासिल नहीं हुई।
जैविक की मुख्य योजना पीकेवीवाई को जमीनी स्तर पर लागू करने में बहुत-सी खामियां हैं। राज्य और जिले स्तर के कृषि एक्सटेंशन अधिकारियों, जिनके कंधे पर जैविक योजना लागू करने की जिम्मेदारी है, ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि उनको खुद जैविक खेती का पर्याप्त ज्ञान और अनुभव नहीं है। उनको एक समय पर 10 से 15 अन्य कृषि योजनाओं को भी लागू करना पड़ता है, जिससे वे चाहकर भी इसे पर्याप्त समय नहीं दे पाते। उसका जैविक खेती के विभिन्न पक्षों पर जरूरी प्रशिक्षण भी सही तरीके से नहीं हो पाता। इससे किसान को जमीन पर जैविक खेती करने के लिए जो ज्ञान और मार्गदर्शन चाहिए, वो नहीं मिल पाता। इस वजह से जो किसान जैविक खेती करना चाहता है, उसको भी जानकारी के अभाव में पैदावार घटने के चलते नुकसान का सामना करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में उसके जैविक खेती छोड़कर वापस रासायनिक खेती में जाने की आशंका बन जाती है और योजना कागजी कार्रवाई व औपचारिकताओं में ही उलझकर रह जाती है।
इसके अलावा जैविक प्रमाणीकरण की प्रक्रिया भी बहुत कागजी है। ऑनलाइन डाटा अपलोडिंग आदि के चलते यह बोझिल हो जाती है। थर्ड पार्टी सर्टिफिकेशन छोटे किसानों के लिए महंगा साबित होता है। इस योजना द्वारा किसानों को सही तरीके से जैविक बाजार और उपभोक्ताओं के साथ जोड़ने के प्रावधान नाकाफी साबित हो रहे हैं। योजना से जुड़ा किसान अंतत: जैविक बाजार में सही मूल्य प्राप्त करने में संघर्षरत रहता है और बिचौलियों को औने पौने दाम पर उत्पाद बेच देता है। उत्तम गुणवत्ता के देसी जैविक बीज उपलब्ध न हो पाना भी किसानों के रास्ते की रुकावट बनता है। बाजार में उपलब्ध अधिकांश बीज रसायन द्वारा उपचारित रहते हैं।
पार्टिसिपेटरी गारंटी सिस्टम (पीजीएस) सर्टिफिकेशन के लिए, हालांकि थर्ड पार्टी सर्टिफिकेशन की तुलना में फीस नहीं लगती है, लेकिन इसके मौजूदा स्वरूप में किसानों को अन्य दिक्कतें आती हैं। मसलन इसमें समानांतर या कुछ हिस्से के सर्टिफिकेशन की अनुमति नहीं है, संपूर्ण खेत और पशुपालन को इसके दायरे में लाना पड़ता है। ये एक ग्रुप सर्टिफिकेशन है, इसको अकेला किसान नहीं कर सकता। अभी तक ये सर्टिफिकेशन बाजार में अपनी विश्वसनीयता और लोकप्रियता हासिल नहीं कर पाया है।
हरियाणा के करनाल जिले के जैविक किसान जितेंद्र मिगलानी कहते हैं, “उपभोक्ताओं का भरोसा जीतने के लिए जैविक उत्पादों की टेस्टिंग की समुचित व्यवस्था जैविक प्रमाणीकरण की प्रक्रिया के अंदर होनी चाहिए। बाजार में नकली जैविक उत्पाद आने से वास्तविक जैविक किसान को भारी नुकसान उठाना पड़ता है।” किसान बताते हैं कि पीजीएस सर्टिफिकेशन के अंदर पीजीएस इंडिया पोर्टल पर जैविक खेत और किसानों से संबंधित डाटा अपलोड करने के वक्त अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। कई बार ये पोर्टल ठीक से काम नहीं करता। इसके अलावा हाल ही में भारत सरकार द्वारा किसानों, व्यापारियों और उपभोक्ताओं को सीधा जोड़ने के लिए जैविक खेती पोर्टल भी शुरू किया गया है। हालांकि यह अपने उद्देश्य में सफल हो पाएगा या नहीं, यह देखना बाकी है।
वास्तव में देश के जैविक किसानों को बाजार उपलब्ध कराने के लिए सरकार द्वारा कोई भी समर्पित प्रभावशाली योजना है ही नहीं। जैविक किसानों के सामने अपने उत्पाद को उचित लाभकारी मूल्य पर बेचने में बड़ी समस्या का सामना करना पड़ता है। पंजाब के फरीदकोट जिले के चैना गांव के जैविक खेती करने वाले किसान गोरा सिंह कहते हैं, “रसायनमुक्त खेती में ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है, ऐसे में अगर सरकार जैविक फसल उत्पादों की बिक्री की व्यवस्था नहीं करेगी, तो किसान इसको करने के लिए आगे कैसे आएंगे?” इसी तरह से आंध्र प्रदेश के कर्नूल जिले के बालनपुर गांव के राम मोहन रेड्डी बताते हैं, “रसायनमुक्त उत्पाद से उनके बच्चों के स्वास्थ्य पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा है, लेकिन अपने जैविक उत्पाद के लिए ऐसा बाजार ढूंढ पाना जो उनको लाभकारी मूल्य दे सके, बहुत मुश्किल काम है। सरकार को इसके लिए सही व्यवस्था करनी चाहिए।”
पार्लियामेंट्री कमिटी ऑन एस्टिमेट्स, 2015-16 के अनुसार, भारत को 4.3 लाख मीट्रिक टन कर्रिएर बेस्ड बायो फर्टिलाइजर और 71 करोड़ मीट्रिक टन जैविक खाद की जरूरत थी। वर्ष 2017-18 के आंकड़ों के अनुसार, भारत का कुल कर्रिएर बेस्ड बायो फर्टिलाइजर का उत्पादन 1.2 लाख मीट्रिक टन और कुल जैविक खाद का उत्पादन 33.8 करोड़ मीट्रिक टन था जो जरूरत और उत्पादन के बीच बड़े फासले को दिखाता है। पार्लियामेंट्री स्टैंडिंग कमिटी ऑन कॉमर्स, 2019 के अनुसार ज्यादातर राज्य, बायो फर्टिलाइजर और जैविक फर्टिलाइजर के उत्पादन के लिए प्रदान की जाने वाली कैपिटल इन्वेस्टमेंट सब्सिडी स्कीम को लागू करने में अनिच्छुक नजर आए। इसके साथ ही शहरी कंपोस्ट (कुल जैविक खाद उत्पादन का तीन प्रतिशत) योजना का बहुत कम इस्तेमाल किया जा रहा है। नेशनल प्रोजेक्ट ऑन ऑर्गेनिक फार्मिंग और नेशनल सेंटर ऑफ ऑर्गेनिक फार्मिंग के अंतर्गत आने वाले जैविक और बायो फर्टिलाइजर की अच्छी गुणवत्ता और उचित मात्रा अब तक देश में उपलब्ध नहीं हो पाई है। गत वर्षों में नेशनल सेंटर ऑफ ऑर्गेनिक फार्मिंग की टेस्टिंग में खराब गुणवत्ता के जैविक फर्टिलाइजर्स को रिजेक्ट करने की रिपोर्ट भी आई हैं।
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