कृषि

मक्का की फसल को सरकारी प्रोत्साहन से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा व पर्यावरण को हो सकता है खतरा?

Virender Singh Lather

वर्तमान किसान आंदोलन में किसान संगठनों के साथ हुई कई दौर की वार्ता में केंद्र सरकार के पैरोकारो ने एक प्रस्ताव रखा है, जिसमें सरकार धान के बदले मक्का, कपास, दलहन फसलों को अगले पांच साल तक न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खरीद की गारंटी देगी, लेकिन यह प्रस्ताव तकनीकी तौर पर अव्यावहारिक है। इससे देश की खाद्य सुरक्षा और पर्यावरण के लिए खतरा बढ़ेगा। आइए, इसकी बारीकियों को समझते हैं। 

खरीफ-2023 में भारत में मक्का 83.3 लाख हेक्टेयर भूमि पर उगाया गया। जिसमें मुख्य हिस्सेदारी मध्य प्रदेश (20.9 प्रतिशत), कर्नाटक (18.18 प्रतिशत), राजस्थान (11.30 प्रतिशत), महाराष्ट्र (10.85 प्रतिशत), उत्तर प्रदेश (9.16 प्रतिशत), बिहार (4.09 प्रतिशत), गुजरात (3.38 प्रतिशत), उड़ीसा ( 3.13 प्रतिशत), हिमाचल प्रदेश (2.86 प्रतिशत), झारखंड (2.72 प्रतिशत), तेलँगाना (2.59 प्रतिशत) आदि प्रदेशों की रही। प्रमुख कृषि प्रधान राज्य पंजाब व हरियाणा में नाम मात्र का मक्का उगाया जाता है। 

भारत में मक्का फसल की खेती उन प्रदेश व क्षेत्रों में होती है, जहां खरीफ सीजन में वर्षा से जल भराव नहीं होता। क्योंकि मक्का फसल जल भराव को बिल्कुल सहन नहीं कर सकती है, जबकि धान की फसल प्राकृतिक तौर पर जलभराव के अवरोधी है।

इसलिए वर्षा ऋतु के जल भराव क्षेत्रों में, धान के बदले मक्का तकनीकी तौर पर किसानों के लिए अव्यावहारिक फसल विविधीकरण साबित होगा।

अंतर्राष्ट्रीय अनाज काउंसिल के अनुसार विश्व में मक्का का वार्षिक उत्पादन लगभग 120 करोड़ टन होता है । जिसमें से लगभग 70 करोड़ टन पशु आहार के लिए, 30 करोड़ टन औद्योगिक उद्देश्य के लिए, 15 करोड़ टन इंसानों के खाने के लिए, 5 करोड़ टन दूसरे उदेश्य के लिए प्रयोग होता है।

यानि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मक्के की खेती आमतौर पर खाद्य सुरक्षा के लिए नहीं की जाती है। ऐसे में मेरा दावा है कि धान की फसल की कीमत पर मक्का फसल को सरकारी प्रोत्साहन रिलायंस इंडस्ट्रीज आदि के पेट्रोलियम कारखानों में इथेनॉल बनाने के लिए किया जा रहा है।

इसके अतिरिक्त बसंतकालीन मक्का फसल का उत्तर पश्चिम भारत के मैदानी क्षेत्रों पंजाब, हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड आदि में उत्पादन पर्यावरण और भूजल के लिए बहुत गंभीर खतरा साबित होगा।

पिछले कुछ वर्षों से इन क्षेत्रों के सरसों-आलू आदि फसल उगाने वाले किसान भूजल सिंचाई के सहारे मक्का फसल की बुआई मार्च के पहले पखवाड़े में करके जून महीने के अंतिम सप्ताह तक फसल की कटाई करते है। इस साठी मक्का फसल में भयंकर गर्मी वाले महीनों अप्रैल, मई, जून में प्रति सप्ताह भूजल आधारित सिंचाई की जरूरत पड़ती है।

पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के जर्नल कृषि विज्ञान (2019: अंक संख्या 7(2) में प्रकाशित एक शोध के अनुसार बसंतकालीन मक्का फसल को 19-20 सिंचाई और लगभग दस हजार क्यूबिक मीटर भूजल प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। जबकि इसी दौरान उगाई जाने वाली मूंग फसल को मात्र 3 सिंचाई ही चाहिए।

यानि बसंतकालीन मक्का फसल साठी धान से भी ज्यादा भूजल बर्बादी करती है। सरकार अगर बसंतकालीन मूंग फसल उपज को न्यूनतम समर्थन मुल्य पर गारंटी खरीद सुनिश्चित करे तो यह भूजल संरक्षण और किसान हितेषी कदम साबित होगा।

यही वजह है कि सरकार का मक्का फसल को प्रोत्साहन ना किसान हितेषी है ना पर्यावरण हितेषी और ना ही राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के हित में है। बल्कि सरकारों द्वारा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दबाव में उनके महंगे हाइब्रिड बीज बिकवाने के लिए मक्का फसल का मुफ्त बीज पर खूब प्रोत्साहन दिया जा रहा है।

भूजल संरक्षण के लिए हरियाणा और पंजाब सरकार ने ‘प्रिज्रवेश्न ऑफ़ सब सायल वाटर एक्ट- 2009’ के अन्तर्गत साठी धान की खेती और धान की रोपाई 15 जून से पहले करने पर प्रतिबंध लगाया हुआ है।

इसी कानून के अंतर्गत, सरकार को पर्यावरण और भूजल संरक्षण के लिए, साठी-बसंतकालीन मक्का फसल पर भी प्रतिबंध तुरंत प्रभाव से लगाया जाना चाहिए। इस के अतिरिक्त भूजल संरक्षण और सदाबहार टिकाऊ हरित क्रांति के लिये, सरकार को पर्यावरण हितेषी सीधी बिजाई धान को प्रोत्साहन देना चाहिए और उत्तर पश्चिम भारत में भूजल बर्बादी वाली धान की रोपाई विधि पर पूर्ण रूप प्रतिबंध लगाना चाहिए।

लेखक भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद से सेवानिवृत प्रधान वैज्ञानिक हैं और लेख में व्यक्त विचार उनके व्यक्तिगत हैंं