सोमपाल शास्त्री
भारत के जनजीवन एवं आर्थिकी में कृषि की भूमिका सदा से अहम रही है और भविष्य में भी रहने वाली है। आधुनिक जगत के कतिपय समीक्षक और अर्थशास्त्री यदाकदा कृषि के योगदान को कम आंकने का प्रयास करते दिख पड़ते हैं। उनका मुख्य तर्क है कि स्वतंत्रता के समय देश की सकल आय में कृषि का भाग लगभग 61 प्रतिशत था, जो अब घटकर 16-17 प्रतिशत रह गया है और आने वाले वर्षों में सतत कम होता जाएगा।
सर्वविदित तथ्य है कि आधुनिक तकनीकी एवं औद्योगीकरण के विकास के साथ-साथ जब अर्थव्यवस्था के अन्य घटकों का विस्तार होता है तब खेती पर निर्भर रहने वाली जनसंख्या का अनुपात तथा कृषि का अंशदान भी कम होता जाता है।
विश्व के सभी देशों, विशेषकर विकसित कहे जाने वाले देशों में ऐसा ही हुआ है। भारत सहित सब विकासशील देश उसी मॉडल का अनुसरण कर रहे हैं, जो स्वाभाविक है। तथापि हमारे देश में आज भी लगभग 60 प्रतिशत जनसंख्या और 45 प्रतिशत रोजगार खेती में ही है। कुल निर्यात में 12 से 14 प्रतिशत हिस्सा कृषि उत्पादों का है। सभी राष्ट्रीयकृत बैंकों की ग्रामीण शाखाओं का ऋण और जमा का अनुपात लंबे समय से 30:70 रहता है।
इसका सीधा अर्थ है कि ग्रामीणजन द्वारा बैंकों में जमा की जानेवाली राशि का केवल 30 प्रतिशत भाग ग्रामीण ऋण के रूप में दिया जाता है। शेष 70 प्रतिशत रकम अर्थव्यवस्था के अन्य घटकों के वित्तपोषण हेतु काम आती है। विनिर्मित उत्पादों और सेवाओं की लगभग 45-46 प्रतिशत मांग गांवों से आती है, जिसका मुख्य स्रोत यानि क्रयशक्ति खेती पर आधारित है। शहरों, उद्योगों, सेना एवं अर्द्धसैनिक बलों में काम करने वाले कर्मियों की 80 से 90 प्रतिशत संख्या ग्रामीणों की है।
इन सब आंकड़ों से सिद्ध होता है कि अभी भी कृषक एवं ग्रामीण समाज का योगदान न केवल अन्य घटकों की अपेक्षा अधिक है बल्कि उन घटकों के अपने विकास हेतु भी अपेक्षित है। वैश्वीकरण और उदारीकरण के पक्षधर अक्सर दलील देते हैं कि अब तो हमारे पास पर्याप्त विदेशी मुद्रा है और अंतरराष्ट्रीय बाजार में अधिकांश खाद्य पदार्थ हमारे आंतरिक बाजार से कम दाम पर उपलब्ध हैं, अत: उन्हें आयात करना आर्थिक दृष्टि से लाभकर रहेगा। इस संदर्भ में यह ध्यान रखना नितांत आवश्यक है कि कृषि और विशेषत: खाद्यान्न के उत्पादन में आत्मनिर्भरता न केवल खाद्य एवं पौष्टिक सुरक्षा बल्कि सीधे राष्ट्र की सुरक्षा का अपरिहार्य अंग है।
खाद्यान्न के अभाव से उत्पन्न संकट के कारण होने वाली जनधन की भयावह क्षति और त्रासदी को भारत तथा जापान जैसे देशों ने द्वितीय विश्व युद्ध के काल में जिस प्रकार भुगता है उसे याद करके दिल कांप उठता है। इतना ही महत्वपूर्ण यह तथ्य है कि भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में यदि खाद्यान्न की कमी होने पर आयात करना पड़े तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में मूल्य तुरंत बढ़ जाते हैं और उसकी स्वाधीनता को भी खतरा पैदा हो जाता है। इतिहास में भारत सहित कई देशों को ऐसा कटु अनुभव हो चुका है।
अर्थशास्त्रियों का एक बड़ा वर्ग यह दर्शाने का प्रयास करता है कि भारत में कृषि का उत्पादन अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुका है और गेहूं तथा चावल जैसी कई जिंस का उत्पादन तो लगातार आवश्यकता से अधिक होने से उनके भंडारण और बड़ी मात्रा में सड़कर खराब होने के साथ-साथ सरकार के वित्तीय संसाधनों पर अनावश्यक दबाव बढ़ता जा रहा है। उनका तर्क है कि इन उत्पादों के सतत बढ़ते और बाजार से ऊंचे न्यूनतम समर्थन मूल्यों के कारण ऐसा हो रहा है। उनकी मान्यता है कि अब न तो कृषि का उत्पादन बढ़ाने की अवश्यकता है और न गुंजाइश। वे सुझाव देते हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था को समाप्त कर खेती को बाजार के भरोसे छोड़ने से स्थिति स्वत: संतुलित हो जाएगी। परंतु वे यह भूल जाते हैं कि वर्तमान भारतीय कृषि कई प्रकार के असंतुलनों से ग्रस्त है।
पहला तो यह कि कृषि के उत्पादन में वृद्धि देश के केवल उन 45 प्रतिशत क्षेत्रों में हुई है जहां सिंचाई के सुनिश्चित साधन उपलब्ध हैं। वहां भूमि की औसत उत्पादकता चार टन प्रति हेक्टेयर के आसपास पहुंच चुकी है और हमारी तथाकथित हरित क्रांति इन्हीं क्षेत्रों तक सीमित रही है। शेष 55 प्रतिशत भू-भाग की खेती अभी भी वर्षा के भरोसे होने के कारण प्रति हेक्टेयर उत्पादकता 1.2 टन पर ही अटकी है। पूरे देश के ग्रामीण गरीबों और कुपोषितों की 80 प्रतिशत संख्या इन्हीं इलाकों में बसती है।
दूसरा असंतुलन है कि गेहूं और धान का उत्पादन तो आवश्यकता से अधिक हो रहा है, जबकि तिलहन और दलहन का भारी मात्रा में आयात करना पड़ता है। तीसरी समस्या है कि गन्ने से बनने वाली चीनी का उत्पादन आवश्यकता से अधिक है और उसी से बन सकने वाले एथनॉल तथा कई अन्य बहुमूल्य पदार्थों का आयात होता है। चौथे, इमारती लकड़ी तथा कागज बनाने वाली लुग्दी सहित वृक्ष आधारित कई उत्पाद जो भारत में पैदा किए जा सकते हैं वे भी आयात होते हैं। पांचवां, कृषि व्यवसाय में रत और ग्रामीणजन की औसत आय तथा अन्य व्यवसायों में लगे लोगों की औसत आय में अंतर निरंतर बढ़ता जा रहा है। 1970 के दशक में यह विषमता लगभग एक और तीन की थी जो अब बढ़कर एक के मुकाबले 16 गुणा हो चुकी है।
छठा असंतुलन और भी भयावह है जो कृषि की आधुनिक बौनी किस्मों, एक फसली और रसायन आधारित तकनीक के कारण पैदा हुआ है, जिसे तथाकथित हरित क्रांति के दुष्प्रभाव कहा जाता है। बौनी किस्मों की कई विशेषताएं हैं। हमारी परंपरागत फसलों में भूसे और अनाज का अनुपात 70:30 होता है, बौनी फसलों में 50:50 है। इस कारण अन्न की पौष्टिकता, पशुचारे की मात्रा और मिट्टी में मिलकर उसकी उर्वरकता बनाये रखने वाली जैविक सामग्री का अभाव लगातार बढ़ता जा रहा है। परिणामत: चारे के दाम बढ़ने से दुग्ध उत्पादन की लागत बढ़ी है।
बौनी फसलों की जड़ें कम गहरी होने तथा रासायनिक उर्वरक अधिक चाहने के कारण सिंचाई की आवश्यकता डेढ़ से दोगुनी होने से भूमिगत जल स्रोतों का अतिदोहन हुआ है और जलस्तर भयावह गति से नीचे जा रहा है। सिंचाई और बिजली की लागत बढ़ती जा रही है। अधिक सिंचाई और रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग से मृदा की संरचना विकृत हुई है। मिट्टी के कण बारीक होने से जड़ों को प्राणवायु कम पहुंचती हैं।
जिंक, लौह, मैगनीज, गंधक सहित नौ दस महत्वपूर्ण पौष्टिक उर्वरक तत्त्वों की भारी कमी हो गई है। अधिक रासायनिक खाद, कीटनाशक, परजीवीनाशक, फुंगीनाशक और खरपतवार नाशक विषैले पदार्थों के इस्तेमाल से सारे जलस्रोत, दूध, सब्जी, फल, मछली, अंडा, अन्न सहित पूरी खाद्य श्रृंखला विषयुक्त होकर आंत्रशोथ, त्वचा, कैंसर, गठिया, गुर्दे, हृदय और मस्तिष्क की कोशिकाओं को हानि पहुंचाकर भयंकर असाध्य रोग पैदा हो रहे हैं।
इन सबके परिणाम स्वरूप मनुष्यों और पशुओं की शारीरिक रोग निरोध क्षमता घट रही है और दवाओं तथा चिकित्सा पर होने वाले व्यय में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट द्वारा किए सर्वेक्षण में शिशु को पिलाए जाने वाले मां के दूध में भी विषैले तत्त्वों के अवशेष निर्धारित मात्रा से 84 गुणा पाये गए हैं। कृषि के लिये उपयोगी मित्रकीटों की कई प्रजातियां लुप्त हो गई हैं तथा ऐसे शत्रुकीटों की संख्या बढ़ी है जो कीटनाशकों के छिड़काव से भी नहीं मरते और उनसे निपटने हेतु क्रमश: अधिकाधिक विषैले रसायनों का प्रयोग करना पड़ रहा है। एकफसली पद्धति के कारण परंपरागत फसल परिवर्तन प्रणाली और जैवविविधता का भयावह ह्रास हुआ है।
इस कारण भी मृदा की प्राकृतिक उत्पादकता और मानव व पशु शरीरों का पौष्टिक संतुलन बिगड़ा है तथा रोग निरोध शक्ति क्षीण होती जा रही है। रोग प्रतिरोध का स्वास्थ्य के लिये क्या महत्त्व है इसका प्रमाण यह है कि वर्तमान कोरोना संक्रमण का सारा प्रभाव शहरों तक सीमित रहा है। ग्रामीणजन लगभग अप्रभावित रहे हैं।
उपरोक्त समस्याओं से यदि समय रहते नहीं निपटा गया तो पूरी स्थिति और भी भयावह और लाइलाज हो सकती है। इनके हल के लिए एक समग्र समेकित रणनीति अविलंब बनाए जाने की अपेक्षा है, जिसकी संक्षिप्त रूपरेखा यहां प्रस्तुत की जा रही है।
1. जल संसाधनों के समग्र विकास हेतु एक दसवर्षीय योजना बने ताकि भारत के प्रत्येक खेत को सुनिश्चित सिंचाई और प्रत्येक गांव को शुद्ध पेय जल प्राप्त हो सके। इस मद पर होनेवाले निवेश का व्यय केंद्र एवं सभी राज्य सरकारें आधा-आधा वहन करें।
2. केवल भंडारण योग्य जिंसें ही नहीं बल्कि दूध, फल, सब्ज़ी आदि जल्दी खराब होने वाले उत्पादों सहित सब उत्पादों की लागत का आकलन औद्योगिक उत्पादों की लागत के फार्मूले से किया जाए और उसके ऊपर एक वाजिब मुनाफा जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य दिए जाने को कानूनी अधिकार बनाया जाए।
3. कृषि लागत एवं मूल्य आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया जाए और उसकी सदस्यता में कृषकों, व्यापारियों, प्रशासकों, उपभोक्ताओं, न्यायविदों, अर्थशास्त्रियों को सम्मिलित किया जाए तथा उसकी सिफारिशें सरकार पर बाध्यकारी हों।
4. पूरे देश में नियमित मंडियों के निर्माण की पंचवर्षीय योजना क्रियान्वित की जाए ताकि प्रत्येक दस-पंद्रह गांवों के समूह को एक मंडी की सुविधा उपलब्ध हो और उसमें सब जिंसों की बोली न्यूनतम समर्थन मूल्य से शुरू हो।
5. मंडियों में व्यापार करने वालों को लाइसेंस लिए जाने की बाध्यता समाप्त हो, जिसके कारण एकाधिकार और भ्रष्टाचार होता है। इसके बजाय केवल पंजीकरण की व्यवस्था हो ताकि अन्य व्यवसायों की भांति इस व्यापार में प्रवेश और निकासी मुक्त रूप से हो और प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहन मिले।
6. सब प्रकार की कृषि जिंसों के भंडारण की देशव्यापी समयबद्ध योजना बने जिसके तहत मंडी स्थलों के आसपास गोदामों और शीतभंडारों की स्थापना हो जिनमें किसान अपनी जिंस रखकर रसीद प्राप्त करें जिसे हुंडी के तौर पर बैंक से भुनाया जा सके और यथासमय जिंस बेचकर बैंक की अदायगी कर सके। जापान में ऐसी व्यवस्था लंबे समय से उपलब्ध है।
7. उपरोक्त व्यवस्थाओं के साथ-साथ कृषि उत्पादों के व्यापार, भंडारण, प्रसंस्करण और निर्यात आदि पर लगे सब प्रतिबंध समाप्त कर दिये जाएं ताकि देश-विदेश के बाजार का लाभ कृषि को मिल सके। भारत के सब्जी, फल, बीटा केसीन युक्त दूध, देसी अनाजों, दालों, खाद्य तेलों की विविधता और पौष्टिक गुणवत्ता विश्वभर में अनूठी है। इनके उत्पादन और निर्यात की महती संभावना है।
8. पशुधन की हमारी जैव विविधता और नस्लें भी अनुपम हैं। उनकी और उनके उत्पादों की विश्वभर में भारी मांग है। अत: उनके संरक्षण और चयनित संवर्धन की भी एक राष्ट्रव्यापी योजना अत्यंत लाभकर हो सकती है।
9.सर्वाधिक संभावना हमारे औषधीय एवं सुगंधिदायक पौधों की खेती और उनके आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध, आमची और तिब्बी जैसी परंपरागत चिकित्सा पद्धतियों में उपयोग और मूल्य संवर्धन की है, जिनका पूरे विश्व में निर्यात हो सकता है।
10.चीनी मिलों और उनके उत्पादों पर बचे खुचे नियंत्रण तुरंत समाप्त किए जाएं। इस उद्योग में एथनॉल सहित अनेक बहुमूल्य रासायनिक पदार्थों और औषधियों के निर्माण की भारी संभाव्यता से देश आयात कम और निर्यात बढ़ाकर लाभान्वित हो सकता है।
11.खेतों में उगाए जाने वाले वृक्षों पर वन कानून लगाकर नियंत्रण लगाया जाना सर्वथा अनुचित है। इसे तुरंत समाप्त कर कृषि वानिकी को फिनलैंड जैसे देश की नीति के अनुसार प्रोत्साहित किया जाए तो लगभग 50,000 करोड़ रुपए का आयात कम हो सकता है और बहुमूल्य विदेशी मुद्रा की बचत हो सकती है।
12. जैविक कृषि को प्रोत्साहित करने की एक सार्वदेशिक योजना बनाकर कृषि अनुसंधान और शिक्षण की सब संस्थाओं और विश्व विद्यालयों को उसके जीवंत मॉडल बनाने और प्रसारित करने के समयबद्ध निर्देश दिए जाएं ताकि देश की खाद्य श्रृंखला विषरहित हो सके और पर्यावरण एवं स्वास्थ्य पर होने वाले दुष्प्रभावों से मुक्ति मिल सके। इन जैविक उत्पादों के निर्यात की भी अनंत संभावनाएं हैं।
ये सब उपाय कर दिए जाएं तो भारत अपनी कृषि के सहारे विश्व की अग्रणी आर्थिक शक्ति बन सकता है।
(सोमपाल शास्त्री भारत सरकार में पूर्व कृषि मंत्री एवं योजना आयोग के सदस्य रह चुके हैं)