कृषि

किसानों को बाजार के हवाले करने से खेती मजबूत नही होगी: टिकैत

कृषि सुधार विधेयक को लेकर किसान क्यों नाराज है, इस बारे में जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत से बात की

Shagun

भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) के प्रवक्ता राकेश टिकैत ने बताया कि कृषि सुधार विधेयक, 2020 के विरोध में देशभर के किसान आगामी 25 सितम्बर को सभी जिला मुख्यालयों में धरना-प्रदर्शन और चक्का जाम करेंगे। उन्होंने कहा है कि देश की संसद के इतिहास में पहली दुभार्ग्यपूर्ण घटना है कि अन्नदाता से जुड़े तीन कृषि विधेयकों को पारित करते समय न तो कोई चर्चा की और न ही इस पर किसी सांसद को सवाल करने का अधिकार दिया गया। उनका तर्क है कि मंडी के बाहर खरीद पर कोई शुल्क न होने से देश की मण्डी व्यवस्था समाप्त हो जाएगी। सरकार धीरे-धीरे फसल खरीदी से हाथ खींच लेगी। वह कहते हैं कि किसानों को बाजार के हवाले छोड़कर देश की खेती को मजबूत नहीं किया जा सकता। डाउन टू अर्थ ने इन सभी मुद्दों पर उनसे बातचीत की। 

   प्रश्न- राज्य सभा में तीन कृषि सुधार बिल गत 20, 2020 को किए गए। केंद्र सरकार का कहना है  कि इन कानूनों से मंडियों और अढ़तियों के एकाधिकार से किसानों को मुक्ति मिलेगी। वास्तव में सरकार को कितनी चिंता है किसानों की?

टिकैत-  देखिए हमारी सबसे बड़ी चिंता यह है कि मंडियों और बाहर के लेनदेन अलग-अलग होंगे। जबकि मंडी शुल्क लगाएगी और बाहर कोई कर या बाजार शुल्क नहीं लगेगा। इससे मंडी व्यवस्था धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी। यहां देखा जाए तो सरकार सीधे कृषि उपज मंडी समितियों को समाप्त नहीं कर रही है। हालांकि यह ध्यान देने वाली बात है कि मंडी प्रणाली न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित करती है, जो धीरे-धीरे खत्म हो जाएगा।

प्रश्न- केंद्र सरकार का कहना है कि समर्थन मूल्य जारी रहेगा, यही नही यह बात प्रधानमंत्री ने भी कही है, ऐसे में किसान क्यों नहीं उन पर विश्वास कर पा रहे हैं?  

टिकैत- हम बार-बार सरकार से यह बात कह रहे हैं कि एमएसपी को अनिवार्य बनाते हुए बिल में इतना संशोधन किया जाए कि कीमत नीचे होने पर खरीदना गैर कानूनी हो। यदि प्रधानमंत्री कहते हैं कि एमएसपी रहेगा तो इसे कानून के अंतर्गत लाने में क्या मुश्किल है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक बार बड़े कारपोरेट और निजी कंपनियां बाजार में प्रवेश करते हैं तो वे कीमतों पर बोली लगाएंगे। हमारा सरकार से सबसे बड़ा सवाल है कि संसद में बिल पारित करने से पहले सरकार ने बिल से जुड़े देश में किसी भी हितधाकों से परामर्श करना मुनासिफ क्यों नहीं समझा? मेरा कहना है कि जब भूमि अध्यादेश अधिनियम लाया गया था तो इसी भाजपा सरकार की ही नेत्री सुमित्रा महाजन तब स्टैंडिंग कमेटी की चेयरमैन थी तो उन्होंने एक बार नही कम से कम सात से आठ बार किसानों से सलाहमशविरा किया था। ऐसे में अब ऐसी क्या मजबूरी आ गई है सरकार के सामने कि उसने किसानों से जुड़े इस महत्वपूर्ण बिल के संबंध में उनसे बात करना भी गवारा नहीं समझा।  

प्रश्न- संसद में पारित किसान बिलों का मुख्य लक्ष्य है कि भारत में कांट्रैक्ट फार्मिंग को कानूनी जामा पहनाना, इससे किसानों के हित पूरी तरह से सुरक्षित होंगे, इस पर आपका क्या दृष्टिकोण है?

टिकैत- कानून के अनुसार कंपनी वाला हो या कोई भी खरीदार, किसान को तीन दिनों के भीतर भुगतान किया जाना चाहिए। और यदि इस भुगतान में देरी होती है तो किसान कैसे इस भुगतान को वसूलेगा और कहां भटकेगा? उदाहरण के लिए गन्ना नियंत्रण आदेश, 1966 के अंतर्गत नियम है कि गन्ने की आपूर्ति के 14 दिन के अंदर बकाया भुगतान किया जाना चाहिए। लेकिन क्या यह नियम जमीनी स्तर पर अब तक लागू हो पाया है? इसका अंदाजा इस एक बात से लगाया जा सकता है कि वर्तमान में किसानों का गन्ना बकाए की राशि 14 हजार करोड़ तक जा पहुंची है। अनुबंध खेती का हमारा पिछला अनुभव बहुत कड़वा रहा है। इसके तहत बताया गया था कि खरीददार उपज की गुणवत्ता को आधार बनाकर अंतिम समय में खरीदने से इंकार कर सकता है। और सबसे बड़ा सवाल है कि इस महत्वपूर्ण मुद्दे की निगरानी करने वाला कौन है? हालांकि सरकार का तर्क है कि इस संबंध में किसान कानूनी रास्ता अपना सकते हैं। लेकिन क्या आपको लगता है कि इस बात के लिए देश के लाखों  किसानों के पास समय और संसाधन है?

प्रश्न- किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) का कहना है कि मंडियों के बाहर किसानों को बेहतर मोलभाव करने का अवसर मिलेगा और इससे छोटे किसानों का शोषण से बचाव संभव होगा। लेकिन हमारे एफपीओ अभी भी नवजात अवस्था में हैं। नए ढांचे में वे कितने कुशल हैं?  

टिकैत- एफपीओ को अभी भी पूरी तरह से प्रभावी नहीं माना जा सकता है। वर्तमान समय में वे कई मामलों में उन्हें किसान समूहों की तरह नहीं चलाया जाता है। हां एफपीओ को केवल एक छोटे व्यापारी के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। जिसके तहत एक व्यक्ति एफपीओ बनाता है और कुछ और लोगों को समूह में शामिल करता है। एक तरह से यह एक व्यक्ति का एक लाभदायक व्यवसाय मात्र बन कर रह गया है। यही नहीं मैं यहां यह भी बताना चाहूंगा कि हमारे उत्तर भारतीय राज्यों में तो बहुत अधिक एफपीओ हैं भी नहीं। लेकिन हां इसे सरकार का एक अच्छा कदम कहा जा सकता है, लेकिन यह देखने वाली बात होगी कि इस प्रणाली के लाभ हमें कुछ सीलों में ही ज्ञात होंगे।