छत्तीसगढ़ में इन दिनों सरकार के निर्णयों के चलते यूरिया के दाम आसमान छू रहे हैं। किसान मजबूर हैं या तो वे ब्लैक में यूरिया खरीदें और फिर उच्च लागत पर धान की खेती करें और घाटा सहे। इसके चलते रायपुर, महासमुंद, बिलासपुर से लेकर गरियाबंद तक किसान बेहाल है।
महासमुंद जिले के बाग बहरा क्षेत्र के किसान सुशील भोई कहते हैं, "मैं यह सोचकर सराईपाली गया कि एक ट्रक यूरिया उतरने वाला है और मुझे कम से कम पांच से सात बोरी यूरिया तो मिल ही जाएगा, लेकिन यहां आने पर मायूसी हाथ लगी। हम लोगों ने सरकारी एजेंसियों से शिकायत की कि किसानों को ब्लैक में 600 रूपये से ज्यादा कीमत पर यूरिया की बोरियां मिल रही है। प्रशासन ने छापे भी मारे, लेकिन मिलीभगत के चलते कोई बड़ा व्यक्ति पकड़ा नहीं गया। हालत अब यह है कि अब ब्लैक में भी यूरिया मिलना बंद हो गया। कितनी बोरियां सहकारी समितियां (सोसाइटियों) को जा रही है, कितनी दिखाई जा रही है। इसका कोई जवाब नहीं मिल रहा है।"
किसान नेता जूगनू चंद्राकर बताते हैं कि हम लोगों ने चक्का जाम की धमकी दी तो महासमुंद कलेक्टर ने एक हफ्ते का समय मांगा है और कहा है कि स्थितियां जल्द ही सामान्य हो जाएगी। हम इस संबंध में मुख्यमंत्री से भी मिलने का प्रयास कर चुके हैं। कृषि मंत्री ने समस्या का जल्द समाधान करने का आश्वासन भी दिया है। पर स्थिति अभी भी वही ढाक के तीन पात रही है।
जूगनू कहते हैं कि जो किसान सोसायटियों में रजिस्टर्ड नहीं है उनकी स्थिति और भी खराब है। क्योंकि सोसायटियों में प्रति बोरी करीब 280 से लेकर 350 रुपए में मिल जाती हैं, लेकिन उन्हें ही मिलती है जो रजिस्टर्ड हैं। बाकि किसान दुकानों से यूरिया खरीदते हैं, लेकिन उन्हें यूरिया के साथ उसका सप्लीमेंट भी लेना पड़ता है और यूरिया की कीमत 600 रुपये प्रति बोरी से अधिक हो जाती है।
बसना के किसान सोहन पटेल बताते हैं कि किसान सोसाइटी के रेट से थोड़ा बहुत अधिक कीमत पर यूरिया खरीदने को तैयार भी रहते हैं, लेकिन उन्हें यूरिया मिल ही नहीं रहा। सहकारी समिति विपणन संघ, सालडीह, शाखा - सांकरा, जिला - महासमुंद में अभी तक यूरिया की सप्लाई नहीं हुई है।
राजनांदगांव के आदिवासी किसान नेता सुदेश टीकम कहते हैं कि किसानों की दुर्दशा के पीछे सरकार की नीति और निर्णय जिम्मेदार है। यूरिया की जो पहली रैक आई उसी समय सरकार के पास पर्याप्त अवसर थे कि सोसाईटियों के माध्यम से पहले रासायनिक उर्वरक की पहली आपूर्ति सोसायटियों की जानी थी। लेकिन 60 प्रतिशत यूरिया व्यापारियों को बांट दी गयी और अब जबकि समय नहीं है और व्यापारी उसका काला बाजारी कर रहें हैं तो इसके लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाए व्यापारी को या फिर सरकार को।
लेकिन जब सरकार लगातार प्रचार कर रही है कि उनके पास पर्याप्त मात्रा में वर्मी कंपोस्ट उपलब्ध है तो किसानों को यूरिया ही क्यूं चाहिए?
सुदेश कहते हैं कि सरकार ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा देना चाहती है, लेकिन गुणवत्तायुक्त वर्मी कंपोस्ट पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं है। अभी प्रति एकड़ करीब दो बोरे यूरिया की जरूरत होती है, लेकिन वहां पर कम से कम एक ट्रॉली वर्मी कंपोस्ट की खपत होगी। उससे भी महत्वपूर्ण बात छत्तीसगढ़ में आर्गेनिक खेती से बने उत्पाद के लिए बाजार उपलब्ध नहीं है, जहां किसानों को उनके उपज का सही दाम मिल सके।
गर्मी में धान की खेती करने वाले किसानों के साथ एक विडंबना यह भी है इसकी खरीदी समर्थन मूल्य पर सरकार नहीं करती है बल्कि किसानों को उसे खुले बाजार में बेचना पड़ता है।
किसान नेता जूगनू बताते हैं, यूरिया की कालाबाजारी के पीछे एक और महत्वपूर्ण कारण है, उसका आधार कार्ड से लिंक होना। मोदी सरकार के कार्यकाल में यूरिया, डीएपी और अन्य खाद्य के लिए आधार कार्ड होना देश भर में अनिवार्य कर दिया गया है, क्योकि मामला सब्सीडी से जुड़ा हुआ है। लेकिन इसमें एक खामी यह है कि इसको जमीन से लिंक नहीं किया गया है। जिसके कारण एक आधार कार्ड पर एक व्यक्ति जितना चाहे यूरिया खरीद सकता है और यूरिया की स्टॉक सीमित आ रही है ऐसे में काला बाजारी नहीं होगी तो और क्या होगी।
धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ में हालत यूं ही रहे कि या तो किसान या तो धान की खेती छोड़ दे या फिर कर्ज में डूबने में तैयार रहे। दोनों स्थितियां कृषि प्रधान राज्य के लिए स्वीकार्य नहीं हो सकती है।