कृषि

गेहूं की जल्दी बुआई से पूर्वी भारत की पैदावार में 69 फीसदी तक की हो सकती है वृद्धि: शोध

भारत को गेहूं उत्पादन के मौजूदा स्तर 11 करोड़ टन से बढ़ाकर 2050 तक 14 करोड़ टन करने की जरूरत पड़ेगी

Dayanidhi

दक्षिण एशिया में गेहूं एक प्रमुख फसल है जिसकी खेती 3.61 करोड़ हेक्टेयर में की जाती है। भारत में इस क्षेत्र की लगभग 73 फीसदी में गेहूं की खेती की जाती है। जो कुल खाद्य ऊर्जा का लगभग 21 फीसदी और राष्ट्रीय स्तर पर आहार प्रोटीन का 17 फीसदी प्रदान करता है।

अनुमानों से पता चलता है कि घरेलू आवश्यकताओं के साथ तालमेल रखने के लिए केवल भारत को गेहूं उत्पादन के मौजूदा स्तर 11 करोड़ टन से बढ़ाकर 2050 तक 14 करोड़ टन करने की जरूरत पड़ेगी। उपज को बढ़ाने के लिए काफी चीजों में बदलाव करना होगा।

नए शोध में कहा गया है कि पूर्वी भारत में गेहूं की बुवाई की तारीखों में बदलाव करने से संभावित उत्पादन में 69 फीसदी की वृद्धि हो सकती हैं। इससे एक गर्म होती धरती पर खाद्य सुरक्षा और कृषि उपज में वृद्धि सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी।

प्रोफेसर एंड्रयू मैकडॉनल्ड ने कहा कि कई वर्षों से हम भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के सहयोगियों के साथ बहुत बड़े डेटा सेट का निर्माण कर रहे हैं। जिससे हमें व्यापक आंकड़ों के विश्लेषण के माध्यम से कृषि की जटिल वास्तविकताओं को जानने में मदद मिली।

उन्होंने कहा साथ ही यह निर्धारित करने के लिए कि कृषि प्रबंधन प्रथाओं में छोटी-छोटी प्रणालियां क्या मायने रखती हैं। मैकडॉनल्ड कृषि और जीव विज्ञान कॉलेज में मिट्टी और फसल विज्ञान के प्रोफेसर हैं। इस प्रक्रिया ने पुष्टि की है कि फसल बोने की तिथियां जलवायु लचीलापन और उत्पादकता परिणामों की नींव हैं भारत के पूर्वी क्षेत्र में प्रमुख फसल चावल और गेहूं है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि पूर्वी भारत में किसान फसल के परिपक्व होने के साथ-साथ गर्मी की समस्या से बचने के लिए पहले गेहूं बोकर उपज बढ़ा सकते हैं। इस क्षेत्र के लिए पैदावार और कृषि राजस्व में होने वाले फायदे की मात्रा निर्धारित कर सकते हैं।

उन्होंने यह भी पाया कि इस तरह के हस्तक्षेप से चावल की उत्पादकता पर भी बुरा असर नहीं पड़ेगा, जो किसानों के लिए एक महत्वपूर्ण सोच है। फसल कैलेंडर पर धान और गेहूं के साथ वैकल्पिक होता है, कई किसान नमी वाले मौसम में धान और शुष्क मौसम में गेहूं उगाते हैं।

अध्ययन में धान की बुवाई की तारीखों और किस्मों के लिए नए सुझाव भी दिए गए हैं, ताकि गेहूं की पहले की बुवाई को समायोजित किया जा सके।

मैकडॉनल्ड ने कहा कि किसान केवल एक फसल का प्रबंधन नहीं कर रहे हैं। वे निर्णयों के अनुक्रम का प्रबंधन भी कर रहे हैं। फसल प्रणाली से संबंधित दृष्टिकोण को अपनाना और समझना कि कैसे चीजें एक दूसरे से अलग या जुड़ी हुई हैं। हमारा शोध विश्लेषण से उभरे सुझावों को सामने रखता है। जलवायु सहनशील गेहूं की शुरुआत चावल से होती है।

मैकडॉनल्ड ने कहा कि शोध भारत में अंतरराष्ट्रीय समूहों और सरकारी एजेंसियों के सहयोग के वर्षों का परिणाम है, जिन्होंने पूर्वी गंगा के मैदानों को उत्पादन में सबसे अधिक वृद्धि वाले क्षेत्र के रूप में पहचाना है। यह क्षेत्र इस बात के लिए भी आवश्यक हो जाएगा, जैसे-जैसे गेहूं की मांग बढ़ेगी और जलवायु परिवर्तन उत्पादन को और अधिक कठिन और अप्रत्याशित बना देगा।

इस वर्ष मार्च और अप्रैल में रिकॉर्ड लू या हीट वेव और यूक्रेन में युद्ध के कारण भोजन की कमी, दोनों ने भारत सरकार को गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने के लिए प्रेरित किया। इन सभी परिस्थितियों ने बढ़ी हुई पैदावार और अधिक टिकाऊ कृषि प्रथाओं की आवश्यकता पर जोर डाला है।

मैकडॉनल्ड्स ने कहा, यह शोध अहम और सही समय पर किया गया है क्योंकि जलवायु परिवर्तन के खतरे सिर्फ काल्पनिक नहीं हैं। इनमें से कई इलाके तनाव-प्रवण वाले हैं और चरम मौसम पहले से ही उत्पादकता पर लगाम लगा रहा है। व्यावहारिक रणनीतियों की पहचान करना जो किसानों को वर्तमान चरम सीमाओं के बुरे प्रभावों से निपटने में मदद करने, प्रगतिशील जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होने के लिए एक ठोस आधार स्थापित करेंगे।

पूर्वी गंगा के मैदानी इलाकों में गरीबी स्थानीय आधार पर है और इस क्षेत्र में अलग-अलग प्रथाओं और संसाधनों तक पहुंच के साथ छोटे भूमिधारकों का वर्चस्व है। अध्ययन में एकत्र और विश्लेषित किए गए आंकड़ों की अधिकता और विशिष्टता क्षेत्र और घरेलू सर्वेक्षण आंकड़ों, उपग्रह के आंकड़ों और गतिशील फसल सिमुलेशन सहित क्षेत्रीय छोटे खेतों की चुनौतियों और बदलने की बाधाओं को समझने में मदद करता है।

मैकडॉनल्ड्स ने कहा अंत में इसमें से कोई भी चीज मायने नहीं रखती जब तक कि किसान इसे नहीं अपनाते हैं। अवसर के लिए एक स्थानीय और एक घरेलू आयाम है। तदनुसार दृष्टिकोणों को अपनाने के लिए किसानों को प्रबंधन में बदलाव करने की स्थिति में लाने की आशा करते हैं जिससे संपूर्ण खाद्य प्रणाली को लाभ होगा। यह शोध नेचर फूड नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।