केन्द्र सरकार ने सालाना औपचारिकता को पूरा करते हुए 19 जून 2024 को विभिन्न खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की घोषणा कर दी। जिसमेंं धान का समर्थन मुल्य 2300 रुपए प्रति कुंतल घोषित किया गया है। वही ज्वार का समर्थन मूल्य 3371 रुपए, बाजरे का 2625 रुपए, रागी का 4290 रुपए , मक्की का 2225 रुपए, अरहर का 7550 रुपए, मूंग का 8682 रुपए, उरद का 7400 रुपए, मूंगफली का 6783 रुपए, सुरजमुखी का 7280 रुपए, सोयाबीन का 4892 रुपए, तिल का 9267 रुपए, नीजरसीड का 8717 रुपए, मध्यम रेशे वाली कपास का 7121 रुपए और लम्बे रेशे वाली कपास का 7521 रुपए प्रति कुंतल घोषित किया है, लेकिन सरकार ने जानबुझ कर सी-2 कुल लागत और वार्षिक लागत मूल्य सूचकांक से कम पर फसल समर्थन मूल्यों की घोषणा करके किसानोंं का खुला शोषण किया है।
निसंदेह 'कृषि लागत और मूल्य आयोग' देश में फसल उत्पादन की लागत, घरेलू व अंतरराष्ट्रीय कीमतों के रुझान जैसे विभिन्न कारकों को ध्यान मेंं रखते हुए सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्यों की सिफारिश करता है। हालांकि, कृषि लागत और मूल्य आयोग के सुझाव सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं हैं। कृषि लागत और मूल्य आयोग की ताजा रिपोर्ट 'खरीफ फसलों की मूल्य नीति विपणन मौसम 2024- 25' सरकार के आंकड़े और कारकों पर आधारित फसल समर्थन मूल्य घोषणा की पोल खोल रही है कि कैसे सरकार पक्षपातपूर्ण नीति अपनाते हूए किसानों का दशको से आर्थिक शोषण कर रही है।
दूनियाभर मेंं अर्थशास्त्र के मानदंडों के अनुसार किसी भी वैश्विक वस्तु के बेचने के लिए दाम व्यापक लागत (कंप्रिहेंसिव कॉस्ट) के आधार पर निर्धारित किए जाते हैं, लेकिन सरकार ने जानबुझ कर कृषि लागत और मूल्य आयोग द्वारा सुझाए गए धान फसल के लिए व्यापक लागत सी-2 लागत+50% लाभ पर आधारित समर्थन मूल्य 3012 रुपए प्रति कुंतल को नहीं मानकर, ए2+एफएल +50% लाभ आधारित समर्थन मूल्य 2300 रुपए प्रति कुंतल घोषित किए, जिससे धान किसानोंं को 712 रुपए प्रति कुंतल का नुकसान होगा। इसी तरह आंकड़ेबाजी आधारित बाकी फसलों के घोषित समर्थन मूल्य पर भी किसानोंं को भारी नुकसान होगा।
भारत सरकार द्वारा 24 मई 2024 को जारी सूचनानुसार वर्ष- 2023-24 मेंं सरकार ने लगभग 72 करोड़ क्विंटल धान 98 लाख किसानोंं से और 26.6 करोड़ कुंतल गेहूं 22 लाख किसानोंं से खरीद की, यानि देश के कुल 12 करोड़ किसानोंं में से केवल एक करोड़ बीस लाख किसानोंं ने समर्थन मूल्य पर गेहूं-धान फसल बेची। सरकार ने वर्ष 2023 -24 में 1.2 करोड़ किसानों से लगभग 100 करोड़ कुंतल गेहूं-धान की खरीद करके कपटी आंकड़े पर घोषित फसल समर्थन मूल्य की बदौलत लगभग 700 रुपए प्रति कुंतल और कुल 70,000 करोड़ रुपए वार्षिक का शोषण किया, जो लगभग 60,000 रुपए प्रति किसान वार्षिक आर्थिक शोषण है। सरकार मात्र 6 हजार रुपए वार्षिक किसान सम्मान निधि देकर प्रसारण माध्यम से खूब प्रचार कर रही है।
पिछले वर्ष के मुकाबले सरकार द्वारा घोषित धान के समर्थन मूल्यों में की गई वार्षिक वृद्धि मात्र 5.4 प्रतिशत है। जोकि वार्षिक लागत मुलय सूचकांक 6.1 प्रतिशत से भी कम है। यानि किसानों को वर्ष 2024- 25 के लिए घोषित समर्थन मूल्य का वास्तविक /असल मूल्य वर्ष 2023-24 के मूल्य भी कम मिलेगा। इस सरकारी नीति द्वारा लगातार हो रहे किसानों के शोषण का सबसे ज्यादा नुकसान पंजाब और हरियाणा के किसानों को भुगतना पड़ रहा है। क्योंकि इन प्रदेशों के किसानों का पिछले 6 दशकों में गेहूं की सरकारी खरीद में लगभग 70 प्रतिशत और धान की खरीद में 30 प्रतिशत से ज्यादा योगदान रहा है। इसीलिए इन प्रदेशों के किसान बार-2 सरकारी किसान विरोधी नीति के खिलाफ अन्दोलन करने को मजबूर हुए है।
पिछले कई दशको से सरकारी नीतिकार और साहूकार बिचौलियो के पैरोकार किसान विरोधी अर्थशास्त्री व्यापक लागत (सी-2 लागत) पर फसल समर्थन मूल्य नहीं घोषित करने का इस तर्कहीन आधार पर समर्थन कर रहे है कि 'किसानों को समर्थन मूल्य ज्यादा देने का बुरा असर देश की गरीब जनता पर पड़ेगा और यह वैश्विक अन्तरराष्ट्रीय विश्व व्यापार संगठन के नियमों के खिलाफ है''। जो वास्तविक तथ्यो पर आधारित नही है, क्योकि भारतीय खुले बाजार और अन्तरराष्ट्रीय बाजार में गेहूं-धान व दुसरी फसलो के दाम आमतौर पर समर्थन मूल्य से ज्यादा रहते है । फिर देश के खुले बाजार में फसलों के दाम फसल उत्पादन और मांग आपूर्ति पर आधारित नहीं होते हैं। बल्कि ये साहूकार बिचौलियों द्वारा जमाखोरी, कालाबाजारी जैसे बाजारी कुचक्रो पर निर्भर करते है जो भ्रष्ट सरकारी तन्त्र की छत्रछाया में फलते फूलते हैं।
इसके ताजा उदाहरण के लिए, वर्ष-2024 में गेहूं के रिकॉर्ड उत्पादन के सरकारी दावो के बावजुद, सरकारी खरीद लक्ष्य से बहुत कम मात्र 26.6 मिलियन टन हूई, क्योंकि साहूकार बिचौलियो और जमाखोरो ने गेहूं का बडा स्टाक (लगभग 70 मिलियन टन) घोषित समर्थन मूल्य से ज्यादा दाम पर खरीदकर जमाखोरी कर ली है। जिसके कारण, अब कालाबाजारी के चलते भारतीय खुले बाजार में गेहूं के दाम समर्थन मुल्य के मुकाबले दिन प्रतिदिन बढते ही जा रहे हैं।
इसलिए समर्थन मूल्य का गरीब जनता पर बुरा असर पड़ने के तर्क बिल्कुल तथ्यहीन हैं। क्योंकि पिछले पांच दशकों से, फसल समर्थन मूल्य की अनिवार्यता केवल सरकारी खरीद तक ही सीमित है। जो देश के कुल अनाज, दलहन, तिलहन आदि फसलो के उत्पादन का औसतन 20-30 प्रतिशत तक ही सीमित रहता है। बाकि कृषि उत्पादन खुले बाजार में समर्थन मूल्य की बिना अनिवार्यता के ही बिकता है। जिसे बिचौलिए समर्थन मूल्य से लगभग 30 प्रतिशत तक कम दाम पर खरीद कर दुगने दामो में उपभोगता को बेचकर, किसान और उपभोगता दोनो का शोषण करते है, जबकि सरकार फसल उत्पादन की खरीद सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए करती है। जिसे पिछले पांच दशको से गरीब जनता में मुफ्त या सब्सिडी दरों पर राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा योजना में बांटा जा रहा है। सरकारी तथ्यों के अनुसार पिछले कुछ वर्षों से सरकार 80 करोड़ गरीब जनता को मुफ्त अनाज बांट रही है। जो समर्थन मूल्य पर की गई खरीद की बदौलत ही सम्भव हो सका है और जो उन किसान विरोधी अर्थशास्त्रियों के सफेद झूठ की पोल खोल रहा है कि फसल समर्थन मूल्य योजना राष्ट्रीय हित में नहीं है।
कृषि लागत और मूल्य आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, आमतौर पर खरीफ फसलो में केवल धान की खरीद केन्द्र सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए करती है। जिससे देश के कुल धान किसानों में से लगभग 18 प्रतिशत किसानों को समर्थन मूल्य पर धान बेचने का लाभ मिलता है। सरकार बाकी फसलों की समर्थन मूल्य पर खरीद यदा कदा ही करती है। समर्थन मूल्य गारन्टी कानून नहीं बनने के कारण, ये फसलें घोषित समर्थन मूल्य से लगभग 30 प्रतिशत कम दाम पर खुले बाजार में बिकती हैं, लेकिन बिचौलियों द्वारा किसानों के लगातार शोषण के बावजूद, पिछले 6 दशको से सरकार द्वारा बिना समर्थन मूल्य गारन्टी कानुन बनाए ही फसलों के समर्थन मूल्य की घोषणा किसानों के शोषण का माध्यम बन गई है।
सरकार द्वारा जारी 6,000 रुपए वार्षिक की किसान सम्मान निधि, किसानों के लिए ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। क्योंकि न्यूनतम समर्थन मूल्य की सी-2 लागत पर घोषणा नहीं होने और घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य पर गारंटी खरीद कानून सरकार द्वारा नहीं बनाने से किसानों को औसतन 15-25 हजार रुपए प्रति एकड़ प्रति फसल का नुक्सान पिछले 57 सालों से हो रहा है। अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक सहयोग और विकास संगठन और अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंधों पर अनुसंधान के लिए भारतीय परिषद के एक प्रमुख अध्ययन मेंं अनुमान लगाया गया है कि 2000 से 2016 तक भारतीय किसानोंं को अपने कृषि उत्पादन के उचित मूल्य नहीं मिलने से 2017-18 की कीमतों के आधार पर 45 लाख करोड़ रुपये (600 बिलियन अमेंरिकी डॉलर) का नुकसान हुआ। जिसके कारण भारतीय कृषि आर्थिक तौर पर घाटे का व्यापार बनी हुई है और हरित क्रान्ति में अग्रणी सघन कृषि उत्पादक प्रदेश हरियाणा और पंजाब के ग्रामीण युवा पुश्तैनी कृषि व्यवसाय छोड़कर, विदेश में मजदूर बनने पर मजबूर हो रहे है। जो देश के कृषि उत्पादन और खाद्य सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा साबित होगा।
वैसे भी देश दलहन और तिलहन के उत्पादन में आत्मनिर्भर नही है और गेहूं-धान का उत्पादन भी घरेलू खपत के बराबर ही हो रहा है। इसलिए सरकार इन फसलो के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने पर मजबूर हुई है। इसलिए सरकार कपटी आँकडेबाजी से भ्रमित प्रचार की बजाय, देश में आर्थिक घाटे की कृषि से किसानों को उबारने के लिए, न्यूनतम समर्थन मूल्य पर गारंटी खरीद कानुन, बीज-कृषि रसायन व मशीनों के मूल्य पर उचित नियंत्रण व समुचित सप्लाई , सिंचाई -कृषि विपणन, खेती की आवारा पशुओं से रक्षा जैसी सुविधाओं में सुधार जैसे नीतिगत किसान हितैषी निर्णय लागू करने चाहिए। एमएसपी कानूनी गारंटी लागू करने पर ही किसानोंं का असली कल्याण होगा और देश की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित होगी ।