कृषि

सूखा सहन करने वाली फसलें बेहतर पोषण और टिकाऊ कृषि के लिए अहम

Dayanidhi

इंसान और पर्यावरण के स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़े घटकों में से एक खाद्य पदार्थ है, जिन्हें हम उगाते हैं और उनका उपभोग करते हैं। जबकि वर्षों से स्थायी आहार को परिभाषित करने और दुनिया भर में लोगों को उचित पोषण देने के लिए कई प्रयास किए गए हैं। इनमें से कई प्रयास स्थानीय आहार और जो कुछ खाद्य फसलों को हम उगाते हैं उनसे पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों को ध्यान में नहीं रखते हैं।

डेलावेयर विश्वविद्यालय के डोंगयांग वेई और काइल डेविस के एक नए पेपर ने इस स्थिति का समाधान ढूंढने का प्रयास किया है। किस तरह मुख्य अनाज को आहार में बदलाव के लिए एक प्रभावी खाद्य समूह के रूप में उपयोग किया जा सकता है। जो सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त होने के साथ-साथ पर्यावरणीय रूप से भी टिकाऊ हो सकता है।

भूगोल और स्थानिक विज्ञान विभाग में डॉक्टरेट वेई के प्रमुख अध्ययनकर्ता ने कहा कि पिछले अध्ययनों ने इस मुद्दे के कुछ हिस्सों पर गौर किया है - जैसे कि ऐसे खाद्य पदार्थों पर विचार करना जिनका पर्यावरण पर कम प्रभाव हो, साथ ही उच्च पोषण भी प्रदान करते हों। यह अध्ययन यह देखने के लिए स्थानीय आहार संबंधी प्राथमिकताओं को शामिल करना चाहता था कि क्या सुझाए गए बदलाव वास्तव में संभव होंगे।

वेई ने कहा हम स्थानीय प्राथमिकताओं और सांस्कृतिक स्वीकृति को ध्यान में रखना चाहते थे। क्योंकि इससे संभावना बढ़ जाएगी कि स्थायी आहार वास्तव में स्वीकार किए जाएंगे या नहीं।

कृषि और प्राकृतिक संसाधन विभाग के सहायक प्रोफेसर और यूडी के डेटा साइंस इंस्टीट्यूट के वी ने जांच की कि कैसे अनाज की आपूर्ति में देश आधारित बदलाव किए जाए। साथ ही यह ऐसा आहार जो वर्तमान में दुनिया भर में कैलोरी, प्रोटीन, लोहा और जस्ता के 40 फीसदी से अधिक के लिए जिम्मेदार है, यह अधिक टिकाऊ आहार में किस तरह योगदान कर सकता है।

जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका, पश्चिमी यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में अनाज का व्यापक रूप से सेवन नहीं किया जाता है, वे कई अन्य देशों में एक महत्वपूर्ण पोषण भूमिका निभाते हैं।

वेई ने कहा खाद्य सुरक्षा चुनौतियों का सामना करने वाले क्षेत्रों में मध्य पूर्व, अफ्रीका और दक्षिण एशिया शामिल हैं। ये क्षेत्र भी हैं जो अनाज के बड़े अनुपात का उपभोग करते हैं, इसलिए अनाज पर स्थायी आहार परिवर्तन इन जगहों पर बड़ा प्रभाव डाल सकता है।

शोधकर्ताओं ने विशेष रूप से दो चक्रों की पहचान की जो स्थानीय रूप से स्वीकार्य होंगी और फसल उत्पादन के पर्यावरणीय प्रभावों को कम करते हुए पोषण बढ़ाने में मदद करेंगी। इसमें अधिक सूखा सहन करने वाले अनाजों को शामिल करना - जैसे कि मक्का, ज्वार और बाजरा। जो साबुत अनाज के हिस्से को  बढ़ाते हैं।

वेई ने कहा कि चावल और गेहूं जैसे अनाजों के विपरीत जिनका व्यापक रूप से सेवन किया जाता है लेकिन इनमें पोषण की कमी होती है। अन्य सूखा-सहिष्णु या सूखा सहन करने वाले अनाज अधिक कुशलता से पानी का उपयोग करते हैं और उत्पादन के दौरान ग्रीनहाउस गैस भी कम छोड़ते हैं। और अपने पोषक तत्व को बनाए रखने में सक्षम होते हैं। इस तरह के सूखा सहन करने वाले अनाजों की काफी खपत होती है।

रिफाइंड या सुधारे हुए अनाज की भी काफी खपत होती है, जैसे कि परिष्कृत आटा, जो अनाज से प्राप्त होता है लेकिन फसल में निहित मूल पोषक तत्वों से रहित होता है। डेविस ने कहा आहार में साबुत अनाज को बढ़ावा देना, जबकि परिष्कृत आटे और अन्य संसाधित वस्तुओं जैसे सफेद ब्रेड को कम करने से पोषण और स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण लाभ हो सकते हैं।

अध्ययनकर्ता वेई और डेविस ने दुनिया भर के पोषक आपूर्ति डेटाबेस से 1961 से 2011 तक के ऐतिहासिक आंकड़ों को देखा, जिसमें 225 खाद्य वस्तुओं की जानकारी दर्ज है। इसमें 152 देशों के आंकड़े  उपलब्ध थे, जो दुनिया की आबादी का 96 फीसदी हिस्सा है।

उन्होंने प्रत्येक देश के ऐतिहासिक और वर्तमान आहार पैटर्न को देखा। आहार परिदृश्यों को बेहतर ढंग से समझने तथा आहार में किए जा रहे बदलाव स्थानीय रूप से स्वीकार्य और व्यवहार्य होंगे या नहीं इस बात का पता लगाया।

उन्होंने पाया कि अधिक सूखा सहन करने वाले अनाज और अधिक साबुत अनाज को शामिल करने के लिए आहार में बदलाव करने से आहार पोषक तत्वों में पर्याप्त वृद्धि होगी। जबकि साथ ही फसल उत्पादन के पर्यावरणीय प्रभावों को कम करने में भी मदद मिलेगी।

उदाहरण के लिए, फसलों की सिंचाई के लिए उपयोग किए जाने वाले ताजे या मीठे पानी के संसाधनों की मांग विश्व स्तर पर 11 फीसदी तक कम हो सकती है। यमन जैसे पानी की कमी वाले देश अपनी पानी की मांग को 60 फीसदी तक कम कर सकते हैं।

चूंकि अध्ययन में विचार की गई सभी फसलें प्रत्येक देश में उगाई और खाई जाती हैं। इसलिए स्थानीय रूप से स्वीकार्य आहार में बदलावों की पहचान करने की संभावना है जिससे कई पर्यावरणीय और मानव स्वास्थ्य के फायदे हो सकते हैं। यह अध्ययन एनवायरनमेंट रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित हुआ है।