बाढ़ की पीड़ा शायद किसी गृहयुद्ध जैसी ही दुखद और त्रासद होती है। पंजाब जिसे देश का फूड बास्केट भी कहा जाता है, वहां बीते सात वर्षों में तीन बार आई बाढ़ ने किसानों को घुटनों के बल ला दिया है। इस बार महज 10-15 दिन के सैलाब ने तीन करोड़ की आबादी वाले इस राज्य के 2,520 गांवों को डुबो दिया।
खेती-किसानी से जुड़े करीब 4,00,000 लोग सीधा प्रभावित हुए। करीब 10 हजार कच्चे-पक्के घर क्षतिग्रस्त हो गए और 25,000 लोगों को अपना घर और खेत छोड़कर भागना पड़ा। 58 जानें गईं, 38 लोग घायल हुए और पांच लोग लापता हैं। सबसे खतरनाक यह हुआ कि करीब सात लाख हेक्टेयर तक पानी फैला और 2,02,094.701 हेक्टेयर खेती योग्य जमीनों पर लगभग तैयार खड़ी फसल पूरी तरह बर्बाद हो गई और करीब 1,000 बड़े जानवर व 35,000 पोल्ट्री का नुकसान हो गया। जब पानी उतरना शुरू हुआ तो डूब क्षेत्रों के आस-पास मौजूद खेत गाद और रेत के टीले बन गए। यहां तक कि जांच में पाया गया है कि खेतों की मिट्टी के रसायन तक में बदलाव हो गए।
गुरुदासपुर में शिकार गांव के जैविक खेती करने वाले किसान तेजप्रताप सिंह एक लाइन में इस वीभत्स स्थिति को समझाते हैं, “जलवायु परिवर्तन और सरकारी कुप्रबंधन दोनों के खामियाजे की इससे ज्यादा बड़ी मिसाल क्या हो सकती है।” वह आगे कहते हैं, “यह भी समझ लेना चाहिए कि इसकी सबसे बड़ी मार भी किसान और मजदूरों पर ही पड़नी है।”
रावी नदी के तट से करीब 12 किलोमीटर दूर गुरुदासपुर के हरदोवाल गांव में अपने बर्बाद हो चुके खेतों का जायजा ले रहे ज्योबनजीत सिंह कहते हैं, “घुटने भर मिट्टी की गाद से दलदल हो चुके खेतों में टैंक युक्त कंबाइन मशीन बढ़िया काम कर सकती है, ट्रैक्टर ऐसे खेतों में नहीं दौड़ाए जा सकते।” सिंह, कंबाइन से निकलते अनाज को मुट्ठी में लेकर दिखाते हुए कहते हैं, “यह देखिए यह धान के दाने अब किस काम के रह गए हैं। दाने काले पड़ चुके हैं, इसका एक रुपए भी मिलना मुश्किल है।”
हरदोवाल गांव में ही अपने डूबे और कीचड़ से सने हुए खेतों को निहार रही 60 वर्षीय दरबीर कौर कहती हैं, “25 अगस्त को रात 12 बजे अचानक सैलाब आया। हमें घरों की छत पर भागना पड़ा। कोई अनाउसमेंट भी नहीं हुई थी। इतनी दूर तक पानी आ जाएगा, हम तो यकीन भी नहीं कर रहे थे। अब भी घरों में और इन खेतों में दो फुट तक की गाद भरी है।” हरदोवाल गांव के एक तरफ रेलवे लाइन है दूसरी तरफ स्टेट हाइवे।
इसके चलते आस-पास के सभी गांव भी जलमग्न हैं। गन्ने और धान की फसलें पानी में अब भी डूबी हुई हैं। बाढ़ ने पंजाब में बहुत कुछ बदल दिया है। अमृतसर में किसान गुरनूर सिंह कहते हैं, पहले पंजाब से कंबाइन मशीनें हरियाणा और उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तक जाया करती थीं, यह पहली बार है जब उत्तर प्रदेश से टैंक युक्त कंबाइन मशीन पंजाब पहुंची हैं। इन दिनों यही हमारे बर्बाद हो चुके खेतों का सहारा बन रही है।
तीन एकड़ के खेतिहर ज्योबनजीत सिंह उंगलियों पर हिसाब जोड़ते हैं, “एक एकड़ खेत में करीब 22 हजार रुपए की लागत आई थी। अब छह हजार रुपए प्रति एकड़ यह टैंक वाली कंबाइन हार्वेस्टिंग मशीन ले रही है। एक एकड़ में सीधा-सीधा 28 हजार रुपए का खर्चा है। अभी तक कोई गिरदावरी नहीं हुई। 100 फीसदी नुकसान महज 20 हजार रुपए मुआवजे की घोषणा है। वह मिलेगा या नहीं, इसका भी कुछ पता नहीं है।”
ज्योबनजीत सिंह खेतों में मौजूद गाद की मिट्टी उठाकर कहते हैं कि यह कौन खरीदेगा? “जिसदा खेत, उसदा रेत” नारे में ही अच्छा है। यह शुद्ध रूप में रेत कहां है, यह मिट्टी है और यह दलदल रबी सीजन तक तो नहीं सूखेगा। हम गेहूं इस बार नहीं लगा पाएंगे। रबी सीजन में आने वाली मुश्किल को पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी (पीएयू) ने भी बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में मिट्टी की जांच के बाद उजागर किया है।
पीएयू की रिपोर्ट में पाया गया कि बाढ़ से मिट्टी में फॉस्फोरस और पोटाश का स्तर घटा है, जबकि आयरन, मैंगनीज और जैविक कार्बन की मात्रा बढ़ गई है। कई इलाकों में कठोर परतें बनने से पानी का रिसाव और जड़ों की वृद्धि प्रभावित हो सकती है। पीएयू ने किसानों को गहरी जुताई, जैविक खाद मिलाने और संतुलित उर्वरक उपयोग की सलाह दी है। बहरहाल ज्योबनजीत सिंह बाढ़ की मार से पूरी तरह टूट चुके हैं।
वह कहते हैं, “हमारे पशु भूखे हैं, उनके पास चारा तक नहीं है। रिश्तेदारों से चारा लेकर पशुओं को जिंदा रख रहे हैं। कोई सरकारी सहायता नहीं है। मेरे पास आठ जानवर हैं और सभी भूखे हैं।” किसानों के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि वह उस गाद का क्या करें जहां सिर्फ 95 फीसदी मिट्टी और पांच फीसदी ही रेत है। ऐसे किसान पसोपेश में हैं। न ही उनके पास आर्थिक संसाधन है कि वह उसे हटा पाएंगे और न ही उनके पास कोई और दूसरा रास्ता। इसने रबी सीजन पर संकट खड़ा कर दिया है।
पीएयू के एक प्रोफेसर नाम न जाहिर करने के शर्त पर कहते हैं कि पंजाब में इस बार रबी सीजन में न सिर्फ गेहूं की बिजाई में देरी होगी बल्कि उपज में बड़ी कमी आएगी। साथ ही उन किसानों की भी कमर टूट गई है जो धान और गेहूं के बीच में सब्जी या कोई अन्य फसल ले रहे थे।
अमृतसर शहर से रावी के तट की ओर उत्तरी दिशा में बढ़ने पर करीब 20 किलोमीटर दूरी पार करते ही समूचे खेत पानी में ही नजर आते हैं। त्रासदियों के निशान राह चलते हुए गांव-गांव में फैले हुए हैं। धूंसी बांध टूटने के कारण कहीं-कहीं बाढ़ का पानी 10 से 12 किलोमीटर दूर तक भी फैला। रावी तट के सबसे नजदीक करीब चार किलोमीटर दूर माछीवाल और घोनेवाला गांव इस त्रासदी के सबसे बड़े शिकार हुए हैं। यहां, प्रमुख तौर पर धान और गन्ना की फसलें पूरी तरह तबाह हो गईं। घोनेवाला गांव के किसान अतर सिंह के घर में दो-दो फुट गाद भरी है। पूरा घर रहने लायक नहीं रह गया है। उन्होंने कुल 10 एकड़ में इस बार दो एकड़ धान और आठ एकड़ गन्ना लगाया था। अभी उनके खेतों में पानी भरा हुआ है और फसलें सड़ गई हैं।
अतर सिंह बताते हैं यह पहली बार नहीं है। 2023 में भी फसलों की ऐसी ही स्थिति हुई थी, मुआवजे की बात कही गई लेकिन कोई मुआवजा नहीं मिला। वह शक जाहिर करते हैं कि उन्हें इस बार भी मुआवजा मिलेगा। गिरदावरी में छोटे किसानों के फसलों के नुकसान को नहीं लिखा जाता। भ्रष्टाचार के कारण किसानों को घूस देनी पड़ती है और असल प्रभावित किसान रह जाता है। घोनेवाला गांव के ही जोबन सिंह एक बड़ा बयान देते हैं, “हम किसान पूरे 10 साल पीछे चले गए हैं।” वह अपनी आप-बीती साझा करते हैं, मैं चार एकड़ खेत का मालिक हूं। 2019 में पहले बाढ़ आई फिर 2023 में आई। दोनों बार फसलें नष्ट हुई। 2023 की बाढ़ का उन्हें सिर्फ 1,500 रुपए मुआवजा मिला।”
वह आगे कहते हैं, करीब दो साल उनके खेतों में फसल नहीं आएगी। कई किसान जो ठेके पर खेती करते हैं उन पर और बड़ी आफत है क्योंकि उन पर कर्ज भी ज्यादा है। जोबन सिंह ने खुद ही तीन लाख रुपए का कर्ज घर बनाने के लिए लिया था उन्होंने खेतों को ठीक करने और इस बार फसल लगाने के लिए दो लाख का कर्ज साहूकार से लिया था, जिस पर साल का 24 फीसदी ब्याज है। वह कहते हैं किसी तरह हिम्मत जुटाकर इस बार अपने चार एकड़ खेत के अलावा चार एकड़ खेत ठेके पर लिया था। 4 एकड़ खेत में पीआर-127, दो किले में पूसा-1692, ढाई एकड़ में गन्ना लगाया था। सारी फसल बर्बाद हो गई।
इतना ही नहीं उन्होंने आधे की हिस्सेदारी में 2 एकड़ में करीब 400 पेड़ पॉपुलर के लगाए थे, वह सब पानी के बहाव में टूट गए या अब सड़ रहे हैं। जोबन सिंह कहते हैं, “हमारे आगे सिर्फ अंधेरा है। किसान के घर में पशु होते हुए दूध आना बंद हो जाए तो आप खुद अंदाजा लगा लें कि हम कितनी कठिनाई में हैं।” सरकार अगर सचमुच मदद करना चाहती है तो हम जैसे किसानों का पटवारी से बिना भ्रष्टाचार के खेतों का सर्वे कराए, खाद-बीज, यूरिया और खेतों को ठीक कराने के लिए मदद दे।
वह आगाह करते हैं कि आगे से यह भी तय हो कि रावी दरिया में उतना ही पानी छोड़ा जाए जितनी उसकी क्षमता है। वह आरोप लगाते हैं कि तीन लाख क्यूसेक के बजाए उसका तीन-चार गुना पानी इस बार छोड़ा गया। वह सवाल उठाते हैं क्यों?
घोनेवाला गांव में ही एक और किसान सुखमन प्रीत का 1.5 एकड़ गन्ने का खेत तीन फीट रेत से भर गया है। वह कहते हैं कि आखिर इस रेत को बिना मदद निकाले कैसे?
यह सारे सवाल पंजाब में रावी, ब्यास और सतलुज दरिया के किनारे मौजूद हर उस छोटे और मझोले किसान का है जो लगातार बाढ़ की मार से जूझ रहा है।
रावी, ब्यास और सतलुज में उफनाईं इस भीषण बाढ़ में खड़ी फसलों के साथ सब्जियों के खेत भी बर्बाद हुए। नदी किनारों पर डूब क्षेत्र और उसके आसपास मौजूद खेतों में बाढ़ का पानी उतर रहा है और नदियों के किनारे रेत में डूबे हुए सैकड़ों ट्यूबवेल के मुंह दिखाई पड़ रहे हैं। यह ट्यूबवेल इस बात की निशानी भी हैं कि पंजाब में इन्हीं नदियों के किनारे पानी इतना कम रहता था कि लोगों को सिंचाई की जरूरत पड़ती थी।
बाढ़ का पानी भले ही उतर रहा हो लेकिन रबी सीजन के लिए नाउम्मीदी पसर चुकी है। फिरोजपुर के दिनेके गांव में अजीत सिंह की छह एकड़ का खेत सतलुज में समा गया। वह सतलुज दरिया के तट से दो किलोमीटर दूर धूंसी बांध के पास रहते हैं।
उनके खेतों में आठ फुट की रेत भरी हुई है। एक नजर में हजारों एकड़ खेत जैसे रेगिस्तान का एक छोटा सा हिस्सा दिखाई देता है। इसी रेत में उनके धान और गन्ने के खेत पूरी तरह नष्ट हो गए। वह कहते हैं कि 2023 की बाढ़ के बाद 3.5-4 लाख रुपए खर्च करके खेतों को तैयार किया था। अब यह आफत इतनी बड़ी है कि इस बार कोई रास्ता नहीं सूझ रहा।
इस रेत में घर और खेत के बीच रास्ता बनाने के लिए उन्होंने अपने पैसे से पांच हजार रुपए खर्च करके जेसीबी लगाया है। वह कहते हैं, कि इतना बालू कोई किसान कैसे हटा पाएगा। अब यहां फिलहाल कुछ नहीं होगा।
दिनेके गांव के सतपाल सिंह हरिके बैराज पर सवाल खड़ा करते हैं। वह कहते हैं कि तरनतारन की तरफ बैराज बनाने से पहले 1965 में करीब 20 गांवों को मुआवजा देकर हटाया गया था। हमारे यहां किसी किसान को मुआवजा नहीं दिया गया। यदि मुआवजा दिया जाए तो हम नदी के आस-पास खेती ही न करें। हमें इतना मुआवजा मिल जाना चाहिए था कि हम कहीं और जाकर खेती लायक थोड़ी जमीनें खरीद सकते। अब यहां खेत नहीं सिर्फ रेत दिख रही है। किसान कितना पैसा और कहां से लाएगा? वह कहते हैं, इन खेतों से रेत को हटाने के लिए करोड़ों रुपए की जरूरत होगी। कौन करेगा हमारी मदद?
फिरोजपुर में ही घुरम गांव की रणजीत कौर करीब 3 एकड़ नष्ट हो चुके खेतों को दिखाती हैं। उनके खेतों में रेत नहीं लेकिन मिट्टी वाली गाद दो से तीन फुट तक भर गई है। बोरवेल इस गाद में समा गए हैं। वह कहती हैं, मक्के की फसल और धान की फसल बर्बाद हो गई। रिश्तेदार और अन्य जगहों से आने वाली मदद के चलते किसान इस आपदा में लड़ पा रहा है। सरकार की मदद सिर्फ घोषणाओं में है। तरनतारन के हरिके कॉलोनी में गुरप्रीत सिंह 40 एकड़ खेत किराए पर लेकर खेती कर रहे थे। उनकी समूची फसल पीली पड़कर सड़ गई है। वह खेतों को दिखाकर कहते हैं कि कम से कम 20 हजार रुपए मुआवजे की जो घोषणा है वह किसानों को जल्द से जल्द मिल जानी चाहिए।
गुरप्रीत सिंह के छह जानवर इस बाढ़ में बह गए। अब उनके पास एक भी मवेशी नहीं हैं। गौशाला सूनी पड़ी है और एक किनारे चारा रखा हुआ है जो सड़ने लगा है। विंडबना यह है कि कहीं चारा है तो पशु नहीं और कहीं पशु बच गए हैं तो चारा नहीं।
डाउन टू अर्थ ने फाजिल्का के सबसे ज्यादा प्रभावित महातम नगर गांव और राम सिंह भैनी गांव का भी दौरा किया। गांव का मुख्य मार्ग बाढ़ के कारण कट चुका है। गांवों में दो से तीन फुट तक मिट्टी की गाद भरी हुई है। सतलुज नदी की बाढ़ ने यहां के ग्रामीणों की पूरी फसल छीन ली है। मुख्य रूप से धान (परमल किस्में) का यह क्षेत्र है। चरणजीत सिंह चेताते हैं कि बाढ़ ने जो किया वह तो दिख रहा है लेकिन सबसे बड़ी चिंता आने वाले सीजन की है। वह कहते हैं कि हम गेहूं नहीं लगा पाएंगे और हमें इस नुकसान का कुछ नहीं मिलेगा। महातम नगर गांव के लोगों का कहना है कि उनकी जमीनों पर उनका मालिकाना हक अभी तक नहीं दिया गया है। 2007 में अपने खेतों के लिए लाखों रुपए तक लोगों ने लगान भी भरा है लेकिन अभी जमीनों पर वह अधिकार नहीं दिखा सकते। इस वजह से इस आपदा में भी प्रभावित होने के बावजूद पीड़ितों में उनकी गिनती नहीं है।
राम सिंह भैनी गांव के गुरमीत सिंह दुखभरी आवाज में कहते हैं कि हम न पाकिस्तान के हैं और न हिंदुस्तान के रह गए हैं। वह गेहूं की बिजाई को लेकर कहते हैं कि इस बार उनके क्षेत्र में बहुत ज्यादा तो 30 फीसदी ही गेहूं की बुआई हो पाएगी।
पंजाब का किसान समस्याओं की कई परतों में फंसा हुआ है। जैसे-जैसे बाढ़ का पानी उतर रहा है, वैसे-वैसे दुख की कहानियां बाहर आ रही हैं। सुखदेव सिंह ट्रैक्टर से अमृतसर के अजनाला तहसील में कोट गुरबख्श गांव के नजदीक घर में रखा हुआ चारा और गेहूं सड़क किनारे फेंकने आए हैं। अनाज के दाने और पशु चारा दोनों बुरी तरह सड़ गए हैं। उनसे बदबू आ रही है।
सुखदेव बताते हैं कि उन्होंने इस बार 38 एकड़ खेत में बासमती की फसल तैयार की थी। इनमें पूसा 1718, पूसा 110 और पूसा 1692 जैसी किस्में थीं। इसके अलावा 18 किला गन्ने की फसल थी। सब बर्बाद हो गई है। वह बताते हैं कि 25-26 अगस्त की सुबह 7 बजे पानी आया था और उनके गांव में 10 लाशें बहकर आई थीं। इनमें कुछ फौजी थे और कुछ गांव के लोग थे। सुखदेव बताते हैं कि घर में जो अनाज भंडारण के लिए रखा था वह भी बाढ़ के पानी में सड़ गया। गांव में गोभी की सैकड़ों एकड़ फसल बर्बाद हो गई।
सुखदेव कहते हैं कि अगले खरीफ सीजन तक यहां खेती के कोई आसार नहीं हैं। हमारे गांव में बाहर के और राज्य के मजदूरों का भी आना-जाना लगा रहता है। लेकिन इस बार वह भी नहीं आ पाएंगे। गुरुदासपुर में डेरा बाबा नानक तहसील में किसान तेजप्रताप सिंह बताते हैं कि यहां सबसे ज्यादा गोभी की फसल पसंद की जाती है। हालांकि, बाढ़ ने इस फसल को बर्बाद कर दिया है। डेरा नानक बाबा तहसील में भी रावी नदी के उफान और करतारपुर साहिब बॉर्डर पर मौजूद बांध टूटने के कारण पाकिस्तान सीमा तक पानी भरा हुआ है। इन दिनों बांध की मरम्मत का काम जारी है। खेतों में चारों तरफ पानी ही पानी भरा हुआ है। चारे के लिए पशुओं को लेकर इधर से उधर लोग भटक रहे हैं। तेजप्रताप बताते हैं कि मक्की का चारा पैलेट बना बनाकर प्रभावित किसानों की आपस में मदद की जा रही है। पशु चारे की किल्लत काफी बड़ी है। तेजप्रताप सिंह धान की बालियों को दिखाते हुए कहते हैं यह अनाज के दाने बेकार हो गए हैं। इनका कोई मोल नहीं बचा है।
रावी के तट से 30 किलोमीटर दूर अमृतसर के मज्जुपुरा गांव के पास पहुंचते ही धान के खेतों की खुशबू आना शुरू हो जाती है। यह क्षेत्र बाढ़ से बचा हुआ है। पंजाब में अमृतसर और तरनतारन के आस-पास जो भी ऐसे क्षेत्र हैं जो बाढ़ से बचे हुए हैं, उन खेतों में मध्य सितंबर से ही बासमती धान की कटाई जारी है।
पंजाब की साढ़े छह लाख हेक्टेयर से अधिक बासमती क्षेत्र में रावी और सतलुज के किनारों पर पूसा 1121 (40 फीसदी लगभग) और पूसा 1509 वैराइटी (25 फीसदी) का प्रभुत्व है। मज्जुपुरा गांव में प्रमुख तौर पर पूसा 1509 वैराइटी की बासमती लगाई गई है। वहीं, अमृतसर जिला अकेले कुल बासमती क्षेत्र में 1.46 लाख हेक्टेयर यानी कुल 21.75 फीसदी की हिस्सेदारी करता है।
मज्जुपुरा गांव के गुरनूर सिंह के खेतों में भी उत्तर प्रदेश से मंगाई गई टैंक कंबाइन हार्वेस्टिंग मशीन के जरिए कटाई जारी है। सिंह कहते हैं, तीन दिन अमृतसर मंडी में धान की बिक्री के लिए बैठे रहे और अंत में 2,500 रुपए प्रति क्विंटल धान बेचकर आना पड़ा है। वह कहते हैं कि अगस्त में हुई तीव्र और असाधारण वर्षा के कारण उनके खेतों में प्रति एकड़ 10 से 12 क्विंटल का नुकसान हुआ है। पूसा 1509 किस्में लगभग 110 से 115 दिन यानी 3.5 महीने में पक जाती है और करीब प्रति एकड़ 20 से 25 कुंतल तक इसकी उपज होती है। गुरनूर कहते हैं कि 50 फीसदी तक मेरे खेतों में नुकसान हुआ है। यही बासमती धान पिछले साल मंडी में 3,200 रुपए एक क्विंटल की दर से बिका था। इस बार वर्षा के कारण फसल मारी गई है और मंडी में रेट भी नहीं मिल रहा।
पंजाब में अधिकांश किसान ठेके पर खेती करते हैं। गुरनूर ने भी 20 एकड़ खेती 70 हजार रुपए प्रति एकड़ के किराए से ली थी। प्रति क्विंटल करीब 700 रुपए का मंडी के दाम में फर्क और करीब आधी फसल के नुकसान से उन्हें बड़ा झटका लगा है।
पंजाब में लाल किला ब्रांड से बासमती का निर्यात और व्यापार करने वाले तेजेंद्र सिंह बताते हैं, पंजाब में कुल 10 से 12 फीसदी बासमती का नुकसान हुआ है, भारत के मुकाबले पाकिस्तान के बासमती क्षेत्र में काफी नुकसान (16 फीसदी) हुआ है। वह कहते हैं कि इस बार पंजाब में बासमती का रकबा भी कम हुआ था।
अमृतसर की दाना मंडी में पूसा 1509 किस्म का धान बेचने पहुंचे बलजिंद्र सिंह बताते हैं कि इस बार प्रति एकड़ करीब पांच कुंतल उनकी उपज में गिरावट आई है। वह सवाल के अंदाज में कहते हैं, “मैं यह नहीं समझ रहा कि जब बासमती का रकबा कम है और बारिश व बाढ़ के कारण नुकसान भी है तो कुल उत्पादन भी कम होगा। ऐसे में हमें ज्यादा रेट मिलने चाहिए लेकिन हमें बीते वर्ष से करीब 800 रुपए कम मिल रहे हैं।”
केंद्र ने बाढ़ का आकलन करने के बाद पंजाब को कुल 1,600 करोड़ रुपए के मदद की घोषणा की है। साथ ही पंजाब को “गंभीर रूप से बाढ़ प्रभावित” घोषित किया और 595 करोड़ का 50 वर्षीय सॉफ्ट लोन भी मंजूर किया, जिसे सार्वजनिक अवसंरचना की मरम्मत के लिए उपयोग किया जाएगा। हालांकि, पंजाब का नुकसान राज्य को मिली मदद से कई गुना ज्यादा है।
पंजाब राज्य कृषि विपणन बोर्ड के अध्यक्ष हरचंद सिंह बरसात के मुताबिक पंजाब का नुकसान करीब 20,000 करोड़ रुपए का है। केंद्र की ओर से दी गई मदद को लेकर उन्होंने कहा , “पंजाब को उसकी सरकार और उसके लोगों के भरोसे छोड़ दिया गया है।” पंजाब में बाढ़ और अतिवृष्टि के कारण कुल नुकसान यदि 20 हजार करोड़ का है तो सिर्फ खरीफ सीजन में धान के नुकसान का यदि आकलन किया जाए तो 37 फीसदी से ज्यादा की क्षति धान (परमल और बासमती) की है।
अगस्त के दौरान हुई अत्यधिक बारिश और बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित खरीफ सीजन में न सिर्फ उपज घटी है बल्कि तीन लाख एकड़ धान के खेतों में फॉल्स स्मट यानी हल्दी रोग भी फैल गया है। डाउन टू अर्थ ने बासमती और परमल किस्म की धान की क्षति का आकलन किया और प्राथमिक तौर पर पाया कि करीब 7,500 करोड़ रुपए का घाटा हुआ है। लुधियाना के तलवंडी कलां में बीक्कर सिंह अपने धान के खेतों में डंडा मारते हैं और खेत में हल्दी या पीला गुलाल जैसे उड़ पड़ता हो। वह दाने को हाथ में लेते हैं और उनके हाथ पीले पड़ जाते हैं। यह स्थिति सिर्फ उनके खेतों तक नहीं है। डाउन टू अर्थ ने लुधियाना के बाढ़ प्रभावित तलवंडी कला से लेकर होशियारपुर के रारा गांव तक करीब 150 किलोमीटर की यात्रा में धान में हल्दी रोग की मौजूदगी देखी। किसानों ने धान की बालियों में झुलसा और अन्य रोग भी दिखाया।
फाल्स स्मट के बारे में अप्रैल, 1987 में इंटरनेशनल राइस रिसर्च न्यूज लेटर के वॉल्यूम 12 और अंक 2 में एक स्थिति रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। यह रिपोर्ट पूर्वी उत्तर प्रदेश से संबंधित थी। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि वैज्ञानिकों ने 1975 से फाल्स स्मट का अध्ययन शुरू किया। अध्ययन में मिला कि यह अलग-अलग स्थानों और अलग-अलग वैराइटियों में एक ही समय पाया गया। खासतौर से बारिश के समय जब आर्द्रता 90 फीसदी से ज्यादा और तापमान 20 डिग्री सेल्सियस के आस-पास रहा और वर्षा का वितरण सतत बना रहा। ऐसी स्थिति में फाल्स स्मट का प्रकोप काफी तेजी से बढ़ा। 1984 से लेकर 1986 तक फाल्स स्मट ने महामारी का रूप ले लिया। 1984 में जहां इसका नुकसान 10 फीसदी था वह 1986 में बढ़कर 30 फीसदी तक हो गया। इसने उस वक्त काफी धान के खेतों को प्रभावित किया। इस रिपोर्ट में यह भी स्पष्ट किया गया कि जिन खेतों में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटैशियम की अधिकता है यानी उर्वरता ज्यादा है वहां इसका प्रकोप काफी ज्यादा रहा।
इस आधार पर देखें तो पंजाब के भीतर बाढ़ से बच गई धान के खड़ी फसलों में फाल्स स्मट का फैलाव क्षति के आंकड़ों को और बढ़ा सकता है। कई जगह पानी अब भी नहीं निकला है और फसलें नम हैं। यदि पंजाब में धान (परमल और बासमती) ताजा नुकसान के 7,500 करोड़ के गणित को देखा जाए तो यह समूचे देश के लिए केंद्रीय फंड नेशनल डिजास्टर रिस्पॉन्स फंड (एनडीआरएफ) के सालाना औसत बजट 10 हजार करोड़ रुपए के आसपास ही है। एनडीआरएफ हर वर्ष असाधारण और बड़ी आपदाओं के लिए केंद्र का अतिरिक्त बजट होता है।
पंजाब में धान के इतने व्यापक नुकसान को समझने की कोशिश करते हैं। राज्य में इस वर्ष कुल 32.5 लाख हेक्टेयर में धान बोई गई थी, जिसमें से लगभग 6.81 लाख हेक्टेयर में बासमती की खेती है। किसानों और कृषि विभाग के आकलन के आधार पर करीब दो लाख हेक्टेयर (पांच लाख एकड़) खेतों में पूरी तरह से फसल नष्ट हो गई है, जबकि बाकी क्षेत्रों में किसानों ने बताया कि औसतन 10 प्रतिशत पैदावार की कमी का अनुमान है। पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर डाउन टू अर्थ के इस अनुमान में मदद की।
सबसे पहले पूरी तरह से डूबे हुए खेतों का हिसाब लगाया गया। परमल किस्म धान (गैर बासमती) का औसत उत्पादन पंजाब में करीब 5.35 टन प्रति हेक्टेयर है। अगर एक लाख हेक्टेयर खेत पूरी तरह बर्बाद मानें तो यह करीब 5.35 लाख टन धान का नुकसान हुआ। सरकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) इस बार 2,369 रुपए प्रति क्विंटल है, यानी 23,690 रुपए प्रति टन। इस तरह धान में सीधे-सीधे करीब 1,267 करोड़ रुपए का नुकसान बैठता है। वहीं, बासमती का औसत उत्पादन लगभग 4.46 टन प्रति हेक्टेयर है। एक लाख हेक्टेयर पूरी तरह डूबने पर 4.46 लाख टन बासमती बर्बाद हुई। बासमती की बाजार कीमत औसतन 3,200 रुपए प्रति क्विंटल यानी 3.2 लाख रुपए प्रति टन है। इसके हिसाब से बासमती में लगभग 1,427 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। यानी सिर्फ डूबे हुए खेतों में धान और बासमती मिलाकर करीब 2,694 करोड़ रुपए का सीधा नुकसान है।
अब आते हैं उन खेतों पर जो पूरी तरह नहीं डूबे लेकिन जिनमें पैदावार घटी है। धान की बाकी 31.5 लाख हेक्टेयर जमीन पर अगर 10 फीसदी पैदावार घट गई तो यह करीब 16.85 लाख टन का नुकसान है। एमएसपी पर इसकी कीमत लगभग 3,990 करोड़ बैठती है। बासमती की बाकी 5.81 लाख हेक्टेयर जमीन पर 10 फीसदी पैदावार घटने से लगभग 2.59 लाख टन का नुकसान हुआ। मौजूदा बाजार भाव पर इसका आर्थिक असर करीब 829 करोड़ रुपए है।
यदि परमल धान (गैर बासमती) में कुल नुकसान का आकलन करें तो पूरी तरह बर्बाद धान की आर्थिक कीमत 1,267 करोड़ और अगर सूबे में 10 फीसदी उपज में कमी माने तो 3,990 करोड़ रुपए की क्षति को आपस में जोड़ने पर 5,257 करोड़ रुपए का घाटा सामने आता है। वहीं, बासमती में कुल नुकसान पूरी तरह बर्बाद 1,427 करोड़ रुपए और 10 फीसदी की कमी यानी 829 करोड़ रुपए को आपस में जोड़े तो 2,256 करोड़ रुपए का घाटा सामने आता है। वहीं, परमल और बासमती के कुल नुकसान को आपस में जोड़ने पर पंजाब के किसानों को इस सीजन में कुल मिलाकर करीब 7,500 करोड़ रुपए का शुरुआती नुकसान सिर्फ फसलों की क्षति का है। इस आकलन में गन्ना जो करीब एक लाख हेक्टेयर क्षेत्र में था और मक्का व कुछ पशु चारे के नुकसान को नहीं शामिल किया गया है। यह मुख्य तौर पर धान (परमल और बासमती) के नुकसान को दर्शाता है। पंजाब की यह विपदा इतनी विनाशकारी क्यों है? आईआईएम अहमदाबाद के प्रोफेसर सुखपाल सिंह डाउन टू अर्थ को बताते हैं, “बाढ़ से हुए नुकसान बहुत बड़े और गंभीर हैं, विशेष रूप से उन लोगों के लिए जो धान की कटाई के लगभग समय पर थे। बासमती की कटाई और कुछ जिलों में सब्जियों के लिए मजदूरी का काम भी प्रभावित हुआ है। इसके अलावा पशुधन और आवासीय नुकसान भी हुए हैं। दुर्भाग्य से, पंजाब के पास अपनी खुद की फसल बीमा योजना नहीं है और न ही पीएम एफबीवाई (प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना) का कवरेज, जिससे स्थिति और भी बदतर हो गई है।”
वहीं, ग्राउंड पर किसानों ने बताया कि धान (परमल और बासमती) में प्रति एकड़ खर्च 22 हजार से 30 हजार रुपए तक का है। ऐसे में राज्य सरकार के द्वारा 20 हजार प्रति एकड़ घोषित की गई मुआवजे की राशि बहुत ही कम है। यह भी संदेह है कि 20 हजार रुपए सभी को मिलेंगे। किसानों के मुताबिक जिसकी क्षति 100 फीसदी है उसे ही मुआवजा दिया जाएगा। इसके अलावा 50 फीसदी से कम वालों को मुआवजे पर संदेह है।
होशियारपुर के फूलपुर गांव में ब्यास नदी के किनारे किसान जरनाल सिंह कहते हैं कि धान के दाने काले पड़ गए हैं। इनमें कुछ नहीं बचा है। ऐसे में खेत में फसल दिख भर रही है लेकिन असलियत में उनमें कुछ नहीं है। वह डर रहे हैं कि उन्हें मुआवजा श्रेणी में रखा जाएगा या नहीं, क्योंकि उनकी फसल अतिवृष्टि के कारण खराब हुई है। अखिल भारतीय किसान सभा ने बाढ़ प्रभावित किसानों के लिए यह मांग की है कि सरकार 70,000 रुपए प्रति एकड़ मुआवजा दे, जिन किसानों की मौत हुई है उन्हें 20 लाख रुपए की क्षतिपूर्ति दी जाए, पशुधन के नुकसान के लिए एक लाख रुपए प्रति जानवर मुआवजा हो और खेत मजदूरों को भी उनकी खोई हुई मजदूरी का पूरा मुआवजा मिले।
प्रोफेसर सुखपाल भी इस बात पर जोर देते हैं,“जब किसानों को उनकी फसलों के नुकसान का मुआवजा दिया जाए, तो यह भी जरूरी है कि खेत मजदूरों (जो ज्यादातर जमींदार नहीं हैं) को उनके मजदूरी खोने के लिए पर्याप्त मुआवजा दिया जाए। पशुधन का नुकसान और भी गंभीर है क्योंकि ये उच्च मूल्य वाले जीवित संपत्ति हैं, जिन्हें छोटे किसानों और भूमिहीन लोगों के लिए भी तेजी से पुनर्स्थापित नहीं किया जा सकता। यह भविष्य में पशुधन बीमा की आवश्यकता को भी उजागर करता है, भले ही वे औपचारिक क्षेत्र से लिए गए ऋणों के साथ न खरीदे गए हों।”
पंजाब के एग्रीकल्चर डायरेक्टर जसवंत सिंह ने डाउन टू अर्थ को कहा कि तीन लाख एकड़ से ज्यादा क्षेत्र में फैली फॉल्स स्मट स्थिति को और गंभीर करेगा। इस बात को नहीं नकारा जा सकता कि अतिवृष्टि ने किसानों की फसलों की उपज को काफी हद तक कम कर दिया है। उन्होंने कहा, “हम अगले 15 दिनों बाद जब पंजाब के सभी जिलों से फसल के नमूने ले लेंगे तभी उपज की कमी और नुकसान का सही आंकड़े का अंदाजा लगा सकेंगे।” वह आगे कहते हैं कि इसके लिए पंजाब के सभी जिलों में अलग-अलग एग्रो-क्लाइमेटिक एरिया से फसलों के नमूने लिए जाएंगे। हालांकि, अभी तक वह किसी नतीजे पर नहीं हैं।
1988 की बाढ़ के जख्म अभी तक बुजुर्ग किसानों के दिल में मौजूद हैं। घोनेवाला के किसान अतर सिंह कहते हैं कि तब बैलों की खेती थी और न ही इतनी खेती का विस्तार था। यह जरूर था कि हम दो फसलें ले रहे थे। हमारे घर भी पक्के नहीं थे तो उस वक्त आर्थिक नुकसान भी इतना बड़ा नहीं था। अब सरकार की नाकामी के चलते नदियों के किनारों तक खेती हो रही है। मशीनों ने इन्हें बड़ा विस्तार दे दिया है। इसलिए 2025 की बाढ़ की क्षति का एक अलग और सभी बातों को ध्यान में रखकर आकलन होना चाहिए क्योंकि यह हमारी खरीफ का नुकसान भर नहीं है यह पहली बार होगा कि रबी सीजन में हम कुछ नहीं उगा पाएंगे।
पीएयू ने बाढ़ग्रस्त इलाकों में मिट्टी के रसायन में हुए बदलावों से यह पुष्टि कर दी है कि अब किसान पहले की तरह सामान्य तरीके से अपने खेतों में वापस नहीं लौट पाएंगे, उन्हें अपने अभ्यास में बदलाव करना होगा। साथ ही उन्हीं खेतों में उगने वाली फसलें भी अब सामान्य नहीं होंगी। पीएयू ने किसानों को नसीहत दी है कि वे गेहूं और अन्य फसलों में बुवाई के 40-50 दिन बाद प्रति एकड़ 4 किलो यूरिया को 200 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। गेहूं और बरसीम में यदि मैंगनीज की कमी के लक्षण दिखें तो 0.5 प्रतिशत मैंगनीज सल्फेट का फोलियर स्प्रे (100 लीटर पानी में 0.5 किलो प्रति एकड़) करें और एक सप्ताह बाद इसे दोहराएं भी। बदली हुई मिट्टी में खेतों में क्या पैदा होगा यह इस बार की ठंड के धुंध के बाद ही असल उपज का पता चलेगा।