फसल अवशेष (पराली) जलाने से होने वाले वायु प्रदूषण के प्रभाव सर्वविदित हैं, लेकिन एक नए अध्ययन ने पाया है कि यह प्रथा कृषि-पर्यावरणीय जैव विविधता पर भी गंभीर असर डालती है और खेतों में कीट प्रकोप को बढ़ावा देती है।
यह अध्ययन साइंस ऑफ द टोटल एनवायरनमेंट नामक जर्नल में प्रकाशित हुआ है। इसमें बताया गया कि फसल अवशेष जलाने से मिट्टी के पोषक तत्व घटते हैं और दीर्घकालिक उत्पादकता में गिरावट आती है। इस प्रक्रिया से निकलने वाला वायु प्रदूषण आर्थ्रोपोड (कीट-पतंगे) और पक्षियों के पारिस्थितिक कार्यों को भी बाधित करता है।
यह निष्कर्ष 250 पियर रिव्यूड अध्ययनों की एक गुणात्मक समीक्षा पर आधारित है, जिसमें अवशेष जलाने के प्रत्यक्ष प्रभावों, उसके वायु प्रदूषण संबंधी असर और आर्थ्रोपोड व पक्षियों पर परिणामों को शामिल किया गया। समीक्षा में एशिया, उत्तर और दक्षिण अमेरिका तथा अफ्रीका के शोध पत्र शामिल थे, जिनमें ब्राजील, चीन, भारत, मैक्सिको और पाकिस्तान जैसे देश शामिल हैं।
आर्थ्रोपोड पर खतरा
कृषि-तंत्र का एक प्रमुख हिस्सा आर्थ्रोपोड पोषक चक्र, कीट नियंत्रण और मिट्टी की वायु प्रवाह प्रणाली जैसी अहम पारिस्थितिकी सेवाएं प्रदान करते हैं। लेकिन अध्ययन में पाया गया कि पराली जलाने से इनकी बड़ी संख्या सीधे तौर पर नष्ट हो जाती है। जलने से इनके आवास नष्ट हो जाते हैं और अचानक तापमान बढ़ने से सूक्ष्म-जलवायु बदल जाती है। उदाहरण के लिए, प्राकृतिक परभक्षी जैसे मकड़ियां, लेडीबर्ड बीटल, कनखजूरा, परभक्षी माइट, बीटल और मेंढक इस प्रक्रिया में घट जाते हैं, जिससे बागानों और खेतों में प्रजातियों की विविधता और समृद्धि कम हो जाती है।
इसी प्रकार, अन्य अपघटक जैसे सौ बग्स, लाल आग चींटियां, जलीय सूक्ष्मजीव, मिलिपीड और केंचुए भी घटते हैं, जिससे मिट्टी की जैव विविधता प्रभावित होती है।
ये जीव मिट्टी की संरचना बनाए रखने, कीट नियंत्रण करने और पोषक चक्र को बेहतर बनाने में अहम भूमिका निभाते हैं। इनके कम होने से कीट और परजीवी (जैसे नेमाटोड, चूहे और अन्य जीव) बढ़ जाते हैं, जिससे प्राकृतिक कीट नियंत्रण तंत्र कमजोर होता है। परिणामस्वरूप फसलें अधिक कीटों के प्रति संवेदनशील हो जाती हैं और रासायनिक-गहन खेती पर निर्भरता बढ़ जाती है।
अन्य प्रभावित कीट वर्गों में हाइमेनोप्टेरा (चींटियां), हेमिप्टेरा (सपाट कीट / बग्स), लेपिडोप्टेरा (तितलियां व पतंगे), डिप्टेरा (मक्खियां और परजीवी) तथा ब्लैटोडीया (तिलचट्टे) शामिल हैं।
मिट्टी का क्षरण
शोधकर्ताओं ने पाया कि पराली जलाने से मिट्टी का तापमान 33.8 डिग्री सेल्सियस से 42.2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाता है, जिससे नाइट्रोजन की हानि, मिट्टी के कार्बनिक पदार्थ में कमी और 2.5 सेंटीमीटर तक की गहराई में सूक्ष्मजीवों की संख्या घट जाती है।
अवशेष जलाने से कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड, सल्फर ऑक्साइड, भारी धातुएं, विषैले यौगिक और कण (पीएम 2.5 और पीएम 10) जैसे प्रदूषक निकलते हैं। यह न केवल वायु गुणवत्ता को खराब करते हैं बल्कि परागण करने वाले लाभकारी आर्थ्रोपोड की गतिविधि, प्रजनन और जीवित रहने की क्षमता को भी प्रभावित करते हैं।
सेकेंडरी एविडेंस फॉर रेसिड्यू बर्निंग दृष्टिकोण अपनाकर शोधकर्ताओं ने पाया कि पक्षी चाहे सामान्य प्रजातियां हों या कीटों पर निर्भर विशिष्ट प्रजातियां, उन पर भी वायु प्रदूषण का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
शोधकर्ताओं ने कहा, “वायु प्रदूषण से पक्षियों में श्वसन संबंधी समस्याएं होती हैं, जिससे उनकी प्रजनन क्षमता घटती है, अंडों के छिलके पतले हो जाते हैं, पंखों और शरीर के अन्य हिस्सों में भारी धातुओं का जमाव होता है और भोजन के लिए उपलब्ध कीट भी कम हो जाते हैं।” उन्होंने आगे जोड़ा कि अंडों से बच्चे निकलने और किशोर विकास पर भी नकारात्मक असर पड़ता है।
अवशेष जलाने से कीटों सहित आर्थ्रोपोड के लिए संसाधनों की उपलब्धता घट जाती है, जिससे पक्षियों पर परोक्ष रूप से असर होता है। सुरक्षित आवास न होने से आर्थ्रोपोड खुले में आ जाते हैं, जिससे वे आसानी से परभक्षियों का शिकार बन जाते हैं और अस्थिर शिकार-परभक्षी चक्र बनता है।
अध्ययन का निष्कर्ष है कि इस तरह की प्रक्रियाएं खाद्य चक्र की स्थिरता को कमजोर करती हैं, विभिन्न पोषण स्तरों के जीवों को नुकसान पहुंचाती हैं और आवश्यक पारिस्थितिकी सेवाओं को नष्ट करती हैं।