उत्तरी कपास क्षेत्र में किसानों को इस साल पिछले दो दशकों में गुलाबी सुंडी के सबसे गंभीर प्रकोप का सामना करना पड़ा है। हालांकि हाल के वर्षों में कपास की फसल पर कीटों का हमला आम रहा है। ऐसे में लगातार घाटे और अनिश्चितता के चलते किसान दूसरी फसलों की ओर रुख करने को मजबूर हो रहे हैं।
डाउन टू अर्थ (डीटीई) द्वारा पंजाब और हरियाणा में इसकी जमीनी हकीकत को समझने के लिए की गई पड़ताल से पता चला है कि कई किसान कपास के विकल्प के रूप में बागवानी और धान की फसलों की ओर रुख कर रहे हैं। वहां सफेद कपास के विशाल खेतों की जगह अब धान और संतरे के बागानों ने ले ली है।
हरियाणा में सिरसा के खारिया गांव में, किसान राजेश नैन डेढ़ एकड़ जमीन पर धान को लेकर प्रयाग किया है। उनका कहना है कि, "मैंने करीब 20 एकड़ में कपास लगाया था, लेकिन उसका 90 फीसदी हिस्सा गुलाबी सुंडी की भेंट चढ़ गया है।" उनका आगे कहना है कि यह सही है कि धान को कपास से ज्यादा पानी की जरूरत होती है जिससे भूजल पर दबाव बढ़ सकता है, लेकिन अगर सफल रहा, तो मैं पूरी तरह से धान की खेती शुरू कर दूंगा।"
उसी गांव के एक दूसरे किसान नवीन सुरेंद्रकुमार ने समझाया कि, धान की खेती में कम मेहनत लगती है और संक्रमण का खतरा भी कम रहता है। उनका कहना है, "भले ही गुणवत्ता एक दम बेहतर न हो, फिर भी यह अच्छी कीमत पर बिकेगा।"
उनके मुताबिक कपास का एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) अधिक है, वहीं धान की कीमत करीब 3,200 रुपए प्रति क्विंटल है। हालांकि उनका कहना है कि, "यदि बासमती की बुवाई की जाए तो अच्छी कीमत मिलेगी।" इसके विपरीत कपास का एमएसपी 6,235 रुपये प्रति क्विंटल है। उनके मुताबिक बाजार में कम कीमत के बावजूद, धान के लिए कीटनाशकों और मजदूरी के रूप में लगने वाली लागत बहुत कम होती है, जिससे वो फायदे का सौदा बन जाता है।
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पंजाब में मौजागढ़ के किसान रणवीर कुमार ने अपने 20 एकड़ के कपास के खेत को संतरे के बगीचे में बदल दिया है। गौरतलब है कि गुलाबी सुंडी और सफेद मक्खी के आक्रमण के चलते 2021 में उनकी कपास की फसल को अच्छा खासा नुकसान हुआ था।
32 वर्षीय इस किसान के मुताबिक संतरे का बाग कम रखरखाव वाला है। इसलिए, इस फसल में निवेश करना अधिक भरोसेमंद लगता है, जबकि कपास में जोखिम बहुत है, जो जुए जैसा लगता है।
राजस्थान में किसानों के पास नहीं कोई विकल्प
पंजाब के पारंपरिक कपास क्षेत्र में किसान तेजी से बागवानी या धान की ओर रुख कर रहे हैं। राज्य कृषि विभाग के अनुसार, 2014-15 कपास की खेती का कुल क्षेत्रफल 4.21 लाख हेक्टेयर था जो 2022-23 में घटकर 248,900 हेक्टेयर रह गया है। इसका कपास उत्पादन पर भी असर पड़ा है। इस दौरान कपास उत्पादन 1,347 से आधा होकर 444 गांठ ही रह गया है। वहीं दूसरी तरफ इस दौरान धान की खेती 28,95,000 हेक्टेयर से बढ़कर 31,67,800 हेक्टेयर में फैल गई है।
बठिंडा के तेओना पुजारियन गांव के 72 वर्षीय किसान राजविंदर सिंह ने बताया कि इस क्षेत्र के अधिकांश कपास किसान, धान की ओर शिफ्ट हो गए हैं। उनका आगे कहना है कि, “यहां की जमीन और पानी में पीएच का स्तर धान के लिए सही नहीं है। मैंने आठ एकड़ में धान के साथ प्रयोग किया था , जिसमें से तीन एकड़ खो दिया है। लेकिन अभी भी घाटा कपास से कम है, जो पूरे निवेश को खा गई थी।”
नाम उजागर न करने की शर्त पर एक कृषि अधिकारी ने बताया कि धान की ओर रुख करने वाले किसान इसके पड़ने वाले प्रभावों पर विचार नहीं कर रहे हैं। धान को बहुत ज्यादा पानी की जरूरत पड़ती है। उनका कहना है कि, "भूजल के अत्यधिक दोहन से पर्यावरण को नुकसान हो सकता है। हालांकि भविष्य के परिणामों के बारे में सोचने की जगह अस्तित्व को बनाए रखने के लिए तत्काल फायदा और आर्थिक नफा अधिक जरूरी है।
वहीं राजस्थान में किसानों के पास यह विकल्प भी नहीं है। हनुमानगढ़ में बम्बूवाली ढाणी के राम प्रताप ने बताया कि, "यहां की मिट्टी धान के लिए उपयुक्त नहीं है। साथ ही पानी भी खारा है। हमारे पास कपास के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है, भले ही इससे नुकसान हो।"
प्रताप का कहना है कि उनके जैसे किसानों के पास कोई दूसरा विकल्प ही नहीं है। उनके मुताबिक, "हमारी भौगोलिक स्थिति कपास से जुड़े रहने को मजबूर करती है। ऐसे में सरकार को बाजार में बेहतर बीज लाकर हमारी मदद करनी चाहिए।"
प्रताप का कहना है कि, “बीटी कपास को निशाना बनाने वाली गुलाबी सुंडी की पहचान 2008 में की गई थी, लेकिन अधिकारी अभी भी इससे बचने के लिए प्रतिरोधी बीज क्यों नहीं ढूंढ पाए हैं।" उन्होंने पूछा कि, "हम अभी भी 2006 में तैयार बीजों का उपयोग क्यों कर रहे हैं और इसे उन्नत करने के लिए तकनीक का उपयोग क्यों नहीं किया गया है?”