कृषि

किसानों की लागत डूबी : हीट वेव से मेंथा में 60-70 फीसदी तक कम निकला तेल

किसानों के मुताबिक मार्च-अप्रैल में हुई भीषण गर्मी के चलते मेंथा का उत्पादन पिछले साल प्रति एकड़ उत्पादन 40 से 50 किलो था वो इस बार 15-20 किलो ही निकल रहा है।

Arvind Shukla

वर्ष 2022 की मार्च-अप्रैल के रिकॉर्ड तोड़ तापमान के चलते सिर्फ गेहूं के उत्पादन में ही 20 फीसदी से ज्यादा की गिरावट नहीं है बल्कि मेंथा समेत दूसरी फसलों का भी उत्पादन काफी कम हुआ है। किसानों के मुताबिक, फसल में पौधे पनप ही नहीं पाए, ज्यादा टहनियां और पत्ते नहीं हुए तो तेल भी कम निकल रहा है।

उत्तर प्रदेश में मेंथा के गढ़ बाराबंकी के किसान गुड्डू के लिए ये सीजन काफी नुकसानदायक रहा है। गुड्डू के मुताबिक, पिछले साल जिस खेत में 30 किलो तेल निकला था वहां इस साल सिर्फ 8-9 किलो ही हुआ है। गुड्डू कहते हैं, “इस बार सब घाटा ही हुआ है। डीजल बहुत महंगा है। पैसा ज्यादा लगा है, पैदावार हुई नहीं। इस बार तो खर्चा भी ज्यादा हुआ है।”

गुड्डू के ही पड़ोसी कस्बे बेलहरा के जागरूक किसान वीरेंद्र सिंह के मुताबिक, ये लगातार दूसरा साल है जब मेंथा किसानों को भारी घाटा हुआ है।

पिछले साल अतिवृष्टि तो इस बार बिन बारिश और गर्मी ने किया नुकसान

डाउन टू अर्थ से बातचीत में उन्होंने बताया, “पिछले साल मई के अंत और जून के पहले हफ्ते की बारिश में करीब 70 फीसदी मेंथा चली गई थी और इस बार बिना बारिश के खराब हुई है। तपन (गर्मी) इतनी ज्यादा थी, फसल में ग्रोथ ही नहीं हुई। गर्मी का आलम ये था कि मेंथा में वैसे तो 9-10 दिन में पानी लगाना (सिंचाई) होता था, लेकिन इस बार कई जगहों पर 4 दिन में लगाना पड़ा। पुरवा हवा चलने से कीट भी बहुत लगे तो खेती में खर्चा बढ़ा, लेकिन उत्पादन कम हो गया।”

बरेली जिला मुख्यालय से करीब 40 किलोमीटर दूर आंवला के प्रगतिशील मेंथा किसान निहाल सिंह जैविक तरीके से मेंथा की खेती करते हैं, उनके साथ कई हजार किसान भी जुडे़ हैं।

निहाल सिंह डाउन टू अर्थ को बताते हैं, “इस बार तेल की रिकवरी 70 फीसदी कम हैं, क्योंकि वेदर कंडीशन (मौसम) अनुकूल नहीं थी।”

336 हजार हेक्टेयर में हुई थी मेंथा की खेती, यूपी सबसे आगे

केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के बागवानी फसलों को लेकर अग्रिम अनुमान के मुताबिक, देश में साल 2021-22 में 336 हजार हेक्टेयर मिंट (मेंथा) की खेती हुई थी जिससे 39 मीट्रिक टन उत्पादन अनुमानित था, साल 2020-21 में 347 हजार हेक्टेयर से 46 मीट्रिक टन उत्पादन हुआ था। लखनऊ स्थित वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) के संस्थान केंद्रीय औषधीय और सुगंधित पौध संस्थान (सीमैप)के मुताबिक देश में कुल उत्पादन में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी यूपी की है। यूपी में मेंथा का औसत रकबा 2,75,000 हेक्टेयर है। यूपी के अलावा पंजाब, बिहार और हरियाणा में भी मेंथा की खेती का रकबा बढ़ रहा है, ये वही राज्य  हैं जहां मार्च-अप्रैल में भीषण गर्मी पड़ी है।

वहीं, यूपी की बात करें तो इसके कुल उत्पादन का लगभग एक तिहाई हिस्सा बाराबंकी में होता है। बाराबंकी में 2021-22 में करीब 62 हजार हेक्टेयर में मेंथा की खेती हुई थी, वहीं उत्पादन के मामले में करीब 33 फीसदी हिस्सेदारी है।

सीमैप के मेंथा विशेषज्ञ और प्रधान वैज्ञानिक डॉ. सौदान सिंह डाउन टू अर्थ को बताते हैं, “जो तापमान अप्रैल में होना था वो मार्च में ही हो गया था। इसलिए पौधा तैयार नहीं हुआ। वो गर्मी सहने के अनुकूल नहीं हो पाया था। इसलिए किसानों का नुकसान हुआ है।”

अपनी बात को समझाते हुए वो आगे बताते हैं, “जब मेंथा की प्लांटनिंग शुरुआती स्टेज में होती है और उसे फेयर टेंपरेंचर (अनुकूल मौसम) मिलता है, जैसे की फरवरी... तो पौधे की बढ़वार और विकास अच्छा होता है। लेकिन शुरू से अगर तापमान ज्यादा हुआ तो विकास नहीं हो पाता है। फरवरी में जो मेंथा लगाई जाती है उसकी हाइट 80 फीसदी तक जाती है, जबकि मार्च वाली की 60 फीसदी और अप्रैल में लगाई गई मेंथा 40 फीसदी ही ग्रोथ कर पाती है। मेंथा की रोपाई फरवरी से मई तक होती है, लेकिन अनुकूल मौसम फरवरी वाला ही होता है।”

हीटवेव में झुलस गई मेंथा किसानों की खुशियां

मेंथा की खेती के लिए अनुकूल तापमान 20 से 40 डिग्री सेल्सियस होता है। क्योंकि मेंथा का तेल उसकी पत्तियों में होता है, इसलिए पौधे में ज्यादा कल्ले और पत्तियां जरूरी होती हैं। लेकिन इस बार तापमान मेंथा के लिए अनुकूल नहीं रहा।

भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) के मुताबिक मार्च 2022 में औसत तापमान (33.10 डिग्री सेल्सियस) था जो पिछले 122 वर्षों में सबसे ज्यादा था। हीट वेव का कहर साल 2010 में हुआ था, लेकिन इतना नहीं था।


“डीजल का खर्च निकालना हुआ मुश्किल”


बाराबंकी जिले में ही तुरकौली गांव के किसान शैलेंद्र कुमार कहते हैं, “ये मेरा खेत है, 16-17 बीघा ( लगभग सवा तीन एकड़) का जिसमें मेंथा लगा रखी थी, इनती मेहनत, खाद और दवा डालने के बाद भी पूरे खेत में सिर्फ एक ब्यॉयल (पेराई टंकी) लांक (फसल) निकली, जिसमें 13 किलो तेल मिला। जबकि पिछले साल इसी खेत में पौने 2 कुंटल तेल निकला था। लेकिन इस बार पौधे ही नहीं बढ़े, कल्ले नहीं निकले तो सब खराब हो गया।”

अपने खेत के एक कोने में लगे डीजल पंपिंग सेट की तरफ इशारा करते हुए वो कहते हैं, “20 हजार की दवा (पेस्टीसाइड) डाले हैं। जितना तेल हुआ है इससे तो डीजल का पैसा भी वापस नहीं आएगा। 3,600 रुपए कटाई और 1,300 रुपए पेराई दी है। मेरा कम से कम 50 हजार का घाटा है।”

लगातार हो रहे घाटे और मौसम की मार से परेशान बाराबंकी के एक अन्य किसान मो. शगीर कहते हैं, ऐसा ही रहा तो खेती छोड़नी पडे़गी। 90 रुपए लीटर का डीजल लेकर इस बार पिपरमिंट में 12 सिंचाई किए थे, और तेल निकल रहा है 2-3 किलो बिगहा (एक एकड़-5 बीघा), ये सब इसलिए हुआ क्योंकि मौसम बहुत गर्म था, बारिश हुई नहीं और फसल तैयार हो गई तो जो खेत में था उसकी पेराई करनी पड़ी।”

शगीर के पास 22 बीघे (सवा 4 एकड़) मेंथा थी। उनके मुताबिक उनका कम से कम 1 लाख का नुकसान होगा।

देरी से रोपाई करने वाले किसानों का ज्यादा नुकसान

किसान और वैज्ञानिक दोनों के मुताबिक ज्यादा घाटा उन्हें हुआ जिन्होंने मार्च में रोपाई की थी, क्योंकि फरवरी में पौध रोपने वालों को मौका मिल गया था, उनका तेल भी अच्छा हुआ क्योंकि बाद में बारिश नहीं हुई तो पौधे पूरे तनाव में रहे, मिट्टी भी सूखी थी तो तेल अच्छा गिरा। लेकिन ऐसा करने वाले किसानों की संख्या सिर्फ 25-30 फीसदी बताई जाती है। ज्यादातर किसान सरसों काटकर, आलू खोदकर या फिर गेहूं काटकर मेंथा लगाते हैं, यानि रबी और खरीफ के बीच के समय में एक फसल लेते थे, ऐसे करीब 70 फीसदी किसान होते हैं, जिनका नुकसान हुआ है।

सौदान सिंह आखिर में कहते हैं, यहां तापमान से ज्यादा अहम तकनीकी है, कि आपने मेंथा की रोपाई कब और कैसे की। बदलती जलवायु को देखते हुए अगर आप देर से रोपाई करते हैं तो पौधे से पौधे की बीच की दूरी घटा दें। दूसरा इस बार भी देखेंगे तो जिन किसानों ने मेड़ के ऊपर मेंथा लगाई थी, उनका उत्पादन अच्छा हुआ है।”