महाराष्ट्र में 180 चीनी मिलों पर राजनीतिज्ञों का कब्जा है। लोकसभा चुनाव से पहले तक इनमें से 77 पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), 43 पर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) और शेष मिलों पर कांग्रेस से जुड़े नेताओं का कब्जा था। चुनाव के बाद यह परिदृश्य बदल चुका है। अब एनसीपी लॉबी पस्त हो चुकी है और भाजपा-शिवसेना का चीनी उद्योग पर पूरी तरह से कब्जा हो गया है। राज्य की कुल 48 लोकसभा सीटों में से भाजपा ने 23 और शिवसेना ने 18 सीटों पर कब्जा जमाया है। राज्य की 100 चीनी मिलों पर इन दोनों पार्टी का कब्जा हो गया है। यह बात स्वभिमानी शेतकरी संघटना के नेता राजू शेट्टी ने डाउन टू अर्थ से कही। राज्य के मराठवाड़ा व पश्चिम महाराष्ट्र की राजनीति में आजादी के बाद से ही चीनी मिल मालिकों का दबदबा रहा है। ये मिल मालिक वास्तव में असली चुनावी भविष्यवक्ता होते हैं। ये हवा का रुख समय रहते भांप जाते हैं तभी तो महाराष्ट्र के गन्ना किसानों के बीच काम करने वाले नासिक के समीर चौंगावकर कहते हैं, “अधिकांश मिल मालिक चुनाव से पहले ही भाजपा में शामिल हो गए और जो शामिल नहीं हुए थे, अब वे कतार में हैं।” उनका कहना है कि चीनी मिलें राजनीतिज्ञों के कब्जे में हैं। सरकार की कोशिश होती है कि उसे (नेताओं को) अधिक से अधिक लाभ मिले, तभी तो सरकार चीनी मिल खड़ी करने पर बिजली, पानी से लेकर रासायनिक उर्वरकों तक पर सब्सिडी देती है। ऐसे में कैसे इस उद्योग को लाभ नहीं होगा। राज्य की राजनीति में चीनी मिलों का इतना वर्चस्व है कि गन्ने किसानों के बीच उनके अधिकारों के लिए काम करने वाले सुनील निमसरकार कहते हैं, “यदि किसान चीनी मिलों से जुड़ जाएं तो नेताओं के लिए राजनीति आसान हो जाती है और यदि किसान विरोध करते हैं तो चीनी मालिक उन्हें पानी, बिजली के लिए परेशान करते हैं। कुल मिलाकर कहा जाता है कि एक चीनी मिल का मतलब होता है एक विधायक।”
गन्ना छोड़ ऐसी दूसरी कोई फसल नहीं है, जो किसी राज्य की राजनीति से इतने करीब से जुड़ी हो, जितनी उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक की सियासत में गन्ने की अहमियत है। तीनों बड़े गन्ना उत्पादक राज्यों में कुल 156 लोकसभा सीटें हैं। 2019 में इन सीटों में बीजेपी के हिस्से में 128 सीटें आई हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि गन्ना और चीनी मिल पर कब्जे का अर्थ है देश की 545 लोकसभा सीटों में से एक तिहाई सीटों पर अपना राजनीतिक वर्चस्व कायम करना। उत्तर प्रदेश में गन्ने का रबका तेजी से बढ़ा है। इसके पीछे कारण है कि राज्य में गन्ना किसानों के बीच गन्ने की “सीओ 0238” एक किस्म काफी लोकप्रिय है। बिजनौर के किसान महेंद्र परिहार कहते हैं, “राज्य में गन्ने का रकबा बढ़ने का अर्थ होगा कि उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों की राजनीति में हैसियत और बढ़ेगी।”
गन्ने पेराई की राजनीति
महाराष्ट्र की तर्ज पर उत्तर प्रदेश में भी मिठास की राजनीति काम करती है। इस बार संपन्न हुए लोकसभा चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश में किसान नेताओं और विपक्ष ने भले ही गन्ना भुगतान को मुद्दा बनाया लेकिन सत्ता पक्ष ने गन्ना किसानों को कई वर्षों का भुगतान कर उनके मतों को जीत लिया। 17वीं लोकसभा का नतीजा यह रहा कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ना उत्पादक क्षेत्रों की करीब 28 सीटों और पूर्वी उत्तर प्रदेश में गन्ना उत्पादन वाली कुल 8 से 9 सीटों पर भाजपा का वर्चस्व बना रहा। चुनावी विश्लेषण कहता है कि विपक्ष या किसान नेताओं के साथ जाने के बजाए गन्ने का भुगतान मिलने व गन्ना उद्योग को ठीक करने के वादे पर किसानों ने अपना मत दिया। पश्चिमी यूपी में कुल 28 सीटे ऐसी थीं, जिन पर गन्ना किसानों का मत सीट की हार-जीत को प्रभावित करता है। चुनाव के वक्त पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री ने किसानों के 1,000 करोड़ रुपए बकाया भुगतान का वादा किया था। वहीं, राज्य सरकार ने इसका आधा भुगतान 5 अप्रैल, 2019 तक गन्ना किसानों को कर दिया था।
इतना ही नहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर-बस्ती मंडल में कुल 7 से 8 जिले हैं, जहां चुनावों के दौरान गन्ना किसानों को रिझाने के लिए ट्रॉयल के तौर पर वर्षों से बंद पड़ी दो निगम की चीनी मिलों को खोल भी दिया गया। प्रदेश में कुल 119 चीनी मिलें चल रही हैं। इनमें से 94 प्राइवेट चीनी मिले हैं। इनकी मनमानी भी ज्यादा है। यहां निजी चीनी मिलों का प्रभुत्व बहुत ज्यादा है। लाल बहादुर शास्त्री गन्ना किसान संस्थान प्रशिक्षण केंद्र की गोरखपुर इकाई के सहायक निदेशक ओम प्रकाश गुप्ता बताते हैं, “उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों को पैदावार से लेकर उसकी कटाई, सर्वे, पर्ची व मिलों तक पहुंचाने और घटतौली जैसी मुसीबतों का सामना करना पड़ता है।” पूर्वी उत्तर प्रदेश में गोरखपुर मंडल में पिपराइच व बस्ती मंडल में मुंडेरवा में चीनी मिल को खोला गया है। अगले वर्ष इस मंडल में गन्ने की पैदावार बढ़ाने के साथ ही पेराई का भी बड़ा लक्ष्य (50 हजार कुंतल प्रतिदिन) है। वहीं, अब गन्ने की ज्यादा पैदावार वाली प्रजाति और सीधे किसान को मोबाइल पर पर्ची मिलने की ऑनलाइन सुविधा इस बेल्ट में मृतप्राय गन्ना उद्योग को जिंदा कर सकती है। यही नहीं अब गन्ने का ज्यादा उत्पादन सियासी मुद्दा बना रह सकता है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कैराना गन्ने का बड़ा उत्पादक क्षेत्र है। यहां इस बार समाजवादी पार्टी की तबस्सुम बेगम को हराकर भाजपा के उम्मीवार प्रदीप कुमार जीतने में कामयाब रहे। राजनीति में चलने वाले मजहबी ध्रुवीकरण से इतर इस जीत में गन्ने के भुगतान और गन्ने की सरकारी खरीद के ऐलान ने अहम भूमिका निभाई। ओम प्रकाश गुप्ता ने बताया कि प्रदेश में सहकारी चीनी मिल की सबसे सफल मिसाल बिजनौर की नजीराबाद में स्थित चीनी मिल है। यहां पेराई किसी निजी चीनी मिल के बराबर ही होती है। इससे अन्य सहकारी चीनी मिलों को ठीक करने की कवायद की जा सकती है। वह बताते हैं कि पूर्वी यूपी में कुल 4 सहकारी मिल हैं। ये सुल्तानपुर, आजमगढ़ (मंडियाव), मऊ (घोषी) व बहराइच (नानपारा) में स्थित हैं। पूरे प्रदेश में 24 सहकारी चीनी मिल हैं। इसके अलावा निगम की दो चीनी मिलें (पिपराइच–गोरखपुर और बस्ती का मुंडेरवा) में खोली गई हैं। इसके अलावा मुजफ्फरनगर में सिर्फ एक निगम की चीनी मिल है।
प्रदेश के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि निजी मिल लगातार किसानों का भुगतान करने में आनाकानी करती हैं। इन पर सरकारी दबाव होता है। इतना ही नहीं स्थानीय स्तर पर निजी चीनी मिलें नेताओं के गुर्गों को सर्वे और अन्य कामों के लिए पालती हैं। ऐसे में स्थानीय स्तर पर गन्ना माफिया को निजी चीनी मिलें शरण दे रही हैं। किसानों को न तो पर्ची मिलती है और न ही उनके गन्ने का सर्वे होता है। गन्ना माफिया असहाय किसान से कम दाम पर उनके गन्ने को औने-पौने दाम पर खड़े खेतों से खरीद लेते हैं और चीनी मिलों तक पहुंचा देते हैं। बहराइच के अहिरौरा गांव निवासी विशाल चौधरी बताते हैं कि उन्होंने पहली बार गन्ने की खेती की थी। चिलवरिया चीनी मिल के जरिए न ही उनके गन्ने का सर्वे किया गया और न ही उन्हें पर्ची मिली। उनका समूचा गन्ना बर्बाद हो गया। सहकारी व निगम की चीनी मिलों की लगातार उपेक्षा की गई है। यहां करीब 35 लाख से भी ज्यादा किसान परिवार गन्ने की खेती से जुड़े हैं। ऐसी स्थिति में प्रदेश में गन्ना एक बड़ा सियासी मुद्दा था, है और भविष्य में बना रहेगा।
आढ़तियों का दल
चीनी के बड़े उद्योगपतियों और राजनेताओं के बीच की सांठगांठ से दोनों को लाभ हुआ है और करोड़ों किसानों को नुकसान। महाराष्ट्र के राधाकृष्ण विखे पाटिल एक दिग्गज कांग्रेसी नेता और पूर्व मंत्री हैं, जिनके पिता, बालासाहेब विखे पाटिल भी कांग्रेसी और मंत्री थे। राधाकृष्ण के बेटे सुजय विखे पाटिल 12 मार्च, 2019 को कांग्रेस पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए। उन्हें पार्टी ने अहमदनगर निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए टिकट भी दे दिया। चुनाव में वे जीत भी गए। ध्यान देने की बात है कि महाराष्ट्र विधानसभा में विपक्ष के नेता रहते हुए भी राधाकृष्ण ने अपने बेटे के लिए लोकसभा चुनाव में प्रचार भी किया। यह तो इस राज्य में गन्ना सियासत का मात्र एक उदाहरण है।
राधाकृष्ण अहमदनगर स्थित सहकारी संस्था विठ्ठल विखे-पाटिल को-ऑपरेटिव शुगर फैक्ट्री के निदेशकों में से एक हैं। उनके बेटे, सुजय, इस कारखाने के अध्यक्ष हैं। उनकी फैक्ट्री पर इस सीजन में किसानों का उचित पारिश्रमिक मूल्य (फेयर रिम्यूनरेटिव प्राइस अथवा एफआरपी ) मद में 68 करोड़ रुपए बकाया है। विखे पाटिल परिवार महाराष्ट्र के राजनीतिक इतिहास व गन्ना राजनीति में एक दुर्जेय नाम है। दो लोकसभा और 12 विधानसभा सीटों वाले अहमदनगर जिले में गन्ना किसानों पर इस परिवार का प्रभाव निर्विवाद है। इन कारखानों से जुड़े लगभग 1,00,000 किसान व हजारों अन्य कर्मचारी हैं जो इस सत्तारूढ़ परिवार के लिए एक बंधुआ वोट बैंक दशकों से बने हुए हैं।
किसी को-ऑपरेटिव संस्था का नियंत्रण न केवल राजनेताओं को एक बंधुआ वोट बैंक देता है बल्कि यह उन्हें वित्तीय सुविधा भी मुहैया कराता है। विश्वस्त शोधों से पता लगा है कि राजनेता को-ऑपरेटिव चीनी मीलों का इस्तेमाल सरकारी लोन का पैसा पाने के लिए करते हैं। वे इस पूंजी का इस्तेमाल चुनावों व अन्य नए धंधों को शुरू करने के लिए भी करते हैं। वर्जीनिया विश्वविद्यालय (अमेरिका) में एसोसिएट प्रोफेसर संदीप सुखतंकर बताते हैं, “चुनावी वर्षों में राजनीतिक रूप से नियंत्रित मिलों में गन्ने की कीमत लगभग 20 रुपए कम हो जाती है। इस तरह से हर चुनावी वर्ष में प्रति मिल 60 लाख रुपए के राजस्व की हानि होती है। पता चलता है कि लाभ में गिरावट मिल संचालन पर असर पड़ने के कारण न होकर चुनावी जरूरतों के लिए पूंजी का इस्तेमाल किए जाने के कारण है (देखें साक्षात्कार, पृष्ठ 38 ।” यह सांठगांठ काफी गहरी है। उदाहरण के लिए राधाकृष्ण विखे पाटिल को लें, जिन्होंने 2017 में अपने गन्ने के कारखाने के लिए मुंबई जिला केंद्रीय सहकारी बैंक से 35 करोड़ रुपए का सस्ता ऋण प्राप्त करने में कामयाबी हासिल की। संयोग से वे इस बैंक के निदेशकों में से एक हैं। इस सहकारी बैंक के चेयरपर्सन प्रवीण दरेकर एक भाजपा विधायक हैं, जिन्होंने अन्य निदेशकों के विरोध के बावजूद ऋण को मंजूरी दे दी।
गन्ना किसानों की यूनियन, स्वाभिमानी शेतकारी संगठन (एसएसएस) के अनुसार, महाराष्ट्र की जिन 180 के लगभग चीनी मिलों पर किसानों के पैसे बकाया हैं, उनमें से 77 भाजपा नेताओं, 53 एनसीपी नेताओं, 43 कांग्रेस नेताओं और शेष शिवसेना नेताओं के स्वामित्व में हैं। राजू शेट्टी कहते हैं, “महाराष्ट्र की इन मिलों का बकाया 5,000 करोड़ रुपए है, यह चौंका देनेवाला आंकड़ा है।” औरंगाबाद के अर्थशास्त्री एचएम देसार्दा कहते हैं, “सत्तारूढ़ पार्टियां अक्सर सहकारी बैंकों से ऋण मंजूर करा लेती हैं या अपनी मिलों के लिए तोहफों की घोषणा कर देती हैं।” यही कारण है कि महाराष्ट्र के चीनी उद्योगपति सत्ता में बने रहने के लिए हर चुनाव में पार्टी बदल लेते हैं।
विजय सिंह मोहित पाटिल, जो पहले एनसीपी में थे, 2014 में भाजपा में चले गए। विजय सिंह सोलापुर के चीनी व्यापारी हैं और सबसे बड़े बकाएदारों में से एक हैं। उन्होंने हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा किया। सोलापुर जिले में उनकी कंपनी महर्षि शंकरराव मोहिते पाटिल को-ऑपरेटिव शुगर फैक्ट्री है, जिस पर 400 करोड़ रुपए का ऋण बकाया है। राजनीतिक दलों के बीच को-ऑपरेटिवों में पदों पर कब्जा करने के लिए हमेशा तीव्र प्रतिस्पर्धा होती है। प्रत्येक को-ऑपरेटिव में 22 निदेशकों का होना अनिवार्य है। उद्योग पर नजर रखने वालों ने शरद पवार और उनकी पार्टी के नेताओं पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लगभग 187 चीनी कारखानों के कामकाज को नियंत्रित करने का आरोप लगाया है। चूंकि प्रत्येक कारखाने में किसानों का नेटवर्क है, यह इन राजनेताओं को बंधुआ वोटबैंक मुहैया कराता है। देसार्दा कहते हैं, “अगर 1999 में कांग्रेस से अलग होने के बाद एनसीपी बच पाई तो वह केवल पश्चिमी महाराष्ट्र में चीनी उद्योग में उसके भारी प्रभाव के कारण।”
राजनेताओं के हस्तक्षेप की वजह से चीनी मिलों का कुप्रबंधन हुआ है। 2008 और 2014 के बीच राज्य में 39 को-ऑपरेटिव मिलें कौड़ियों के भाव बेचीं गईं। अधिकांश खरीदार एनसीपी, कांग्रेस और बीजेपी के नेता थे, जिनका अधिग्रहण करने वाली पार्टी के साथ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध था। परिणामस्वरूप, इन निजी फर्मों में किसानों की आवाज कोई नहीं सुनता। इस बिक्री के खिलाफ अन्ना हजारे व राजू शेट्टी ने बॉम्बे हाई कोर्ट में एक याचिका दायर की है। इसी केस के वकील योगेश पांडे के अनुसार “यह 10,000 करोड़ रुपए का दिनदहाड़े हुआ घोटाला है।” शेट्टी कहते हैं, “सत्तारूढ़ दल के नेताओं पर ही सबसे अधिक बकाया है। अब ऐसी हालत में किसान किससे न्याय मांगे? राज्य के सहकारिता मंत्री सुभाष देशमुख की चीनी फैक्ट्री में 104 करोड़ रुपए बकाया है, जबकि ग्रामीण विकास मंत्री पंकजा मुंडे की फैक्ट्री में 64 करोड़ रुपए बकाया है।”
पड़ोसी कर्नाटक में भी चीनी उद्योग और राजनेताओं के बीच सांठगांठ तेजी से मजबूत हो रही है। कर्नाटक राज्य गन्ना उत्पादक संघ के अध्यक्ष कुरुबुरु शांताकुमार का कहना है कि कई चीनी कारखाने राजनीतिक नेताओं के स्वामित्व में हैं, जिनमें सतीश जारकोली, डीबी इनामदार, एसआर पाटिल, शामनूर शिवशंकरप्पा, संगमेश निरानी और उमेश कट्टी शामिल हैं। किसानों का इन पर भारी मात्रा में बकाया है। किसानों के लिए संघर्ष करने वाले एक कार्यकर्ता शांता कुमार दावा करते हैं कई भाजपा नेता, जैसे कि जारकोली बंधु, बेलगामी में प्रभाकर कोरे, राज्य कांग्रेस के नेता एवं पिछले तीन दशकों में पार्टियों के कोषाध्यक्ष रहे शमनूर शिवा शंकरप्पा जैसे नेताओं ने अपना व्यवसाय चीनी मीलों से ही शुरू किया था लेकिन उन्होंने मिलों को मिलने वाली पूंजी से शैक्षणिक संस्थान खोल लिए हैं।
चीनी उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। यहां के चीनी उद्योगपतियों ने सभी सत्तारुढ़ राजनीतिक दलों के साथ राजनीतिक निकटता का लाभ लिया है। वे सभी दलों की मदद करते हैं और बदले में लाभ पाते हैं। सभी 44 चीनी उत्पादक जिलों में सरकार द्वारा समर्थित एक गन्ना समिति है जो चीनी मिलों और किसानों के बीच एक सेतु का काम करती है। 1993 में, जब समाजवादी पार्टी सरकार सत्ता में आई, तो उसने चीनी उद्योग की मदद के लिए को-ऑपरेटिव सोसाइटी मैनेजमेंट कर को 5 प्रतिशत से घटाकर 2.75 प्रतिशत कर दिया। इससे कई को-ऑपरेटिव सोसाइटियों को मजबूरी में बंद करना पड़ा क्योंकि वे अपने कर्मचारियों को भुगतान करने में असमर्थ थीं। 2012 में जब समाजवादी पार्टी सत्ता में लौटी तो मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने फिर से कर कम कर दिया। किसी सोसाइटी के एक बार बंद हो जाने के बाद निजी चीनी मीलों को किसानों से सीधा मोलभाव करने की पूरी छूट मिल जाती है। इसके फलस्वरूप किसानों को कम पैसे तो मिलते ही हैं, कई बार भुगतान में लम्बी देरी भी होती है। चौंकाने वाली बात यह है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा 2017 में उत्तर प्रदेश सरकार को गन्ना किसानों का भुगतान करने के आदेश के बाद भी, सरकार ने उद्योगपतियों का पक्ष लिया और बकाए पर ब्याज माफ कर दिया।
वास्तव में मुलायम सिंह यादव और मायावती जैसे राजनीतिक दिग्गजों ने सत्ता में रहने के दौरान गन्ने के पोर्टफोलियो को अपने साथ बनाए रखा। 2010 में मायावती के नेतृत्व वाली बहुजन समाज पार्टी सरकार ने राज्य के चीनी निगम के स्वामित्व वाली 21 मिलों को बेच दिया। पोंटी चड्ढा ग्रुप ने पांच चीनी मिलें कौड़ियों के दाम खरीदीं। नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की 2012 में आई रिपोर्ट में पाया गया कि सरकार द्वारा संचालित, लाभ में चल रही चीनी सहकारी समितियां बाजार मूल्य से नीचे बेची गईं। इस साल 26 अप्रैल, 2019 को केंद्रीय जांच ब्यूरो ने सरकारी स्वामित्व वाली चीनी मिलों के विनिवेश में भ्रष्टाचार के आरोप में मायावती के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की है।
मजदूर किसान संगठन केवीएम सिंह कहते हैं, “उद्योगपति दिवंगत पोंटी चड्ढा ने बाद में मायावती के चुनाव अभियानों को वित्त पोषित किया।” चीनी व्यापारियों की मदद करते हुए मायावती ने गन्ना किसानों को लुभाने की कोशिश भी की। 2012 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले उन्होंने स्टेट एडवाइजरी प्राइस (एसएपी) के तहत अधिकतम गन्ना मूल्य 235 रुपए प्रति क्विंटल से बढ़ाकर 280 रुपए प्रति क्विंटल कर दिया। इसके अलावा मिलों की मदद के लिए केंद्र सरकार निर्यात पर सब्सिडी भी दे रही है।
किसानों के लिए कुछ मीठा हो जाए
जब तक चीनी उद्योग से राजनैतिक हस्तक्षेप खत्म न हो जाए और किसानों को उनका बकाया न मिल जाए तब तक गन्ना किसानों की हालत नहीं सुधरेगी। आजादी के बाद से चीनी कृषि के क्षेत्र की सबसे दुलारी फसल रही है। कृषि नीति विशेषज्ञ देविंदर शर्मा पूछते हैं, “चीनी लॉबी कहती है कि उनका व्यापार घाटे में चल रहा है। फिर बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज में चीनी का स्टॉक हमेशा ऊपर क्यों रहता है? हालांकि पिछले 10 वर्षों में चीनी का उत्पादन लगातार बढ़ता आया है और चीनी मीलों को सरकार से सॉफ्ट लोन एवं अन्य मदद मिलती रही है। इसके बावजूद किसानों को बकाए का भुगतान नहीं किया गया है।
हालांकि, चीनी लॉबी इतने में संतुष्ट नहीं है। इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (आईएसएमए ) के महानिदेशक, अविनाश वर्मा कहते हैं, “अगर सरकार हमें शून्य प्रतिशत ब्याज पर ऋण देती है, तो हम समय पर बकाया का भुगतान कर पाएंगे।” उनकी संस्था के अनुसार एफआरपी भी घटाए जाने की आवश्यकता है क्योंकि इससे राजस्व की हानि होती है। सच्चाई यह है कि चीनी उद्योग अपना मुनाफा छिपा रहा है।
यही नहीं, यह भी आरोप है कि चीनी उद्योग को मिले सॉफ्ट ऋणों का भी दुरुपयोग हुआ है। मजदूर किसान संगठन के किसान नेता वीएम सिंह कहते हैं, “सॉफ्ट लोन एक स्वांग है।” सिंह ने दावा किया कि एक मामले में बजाज हिंदुस्तान शुगर मिल लिमिटेड ने ललितपुर (उत्तर प्रदेश) में पावर प्लांट स्थापित करने के लिए चीनी मिल की 1,162 करोड़ रुपए के सॉफ्ट लोन की राशि इस्तेमाल कर ली।
चीनी मिलें केवल चीनी के उत्पादन और उसके व्यापार को सार्वजनिक क्षेत्र में रखती हैं और उसके उपउत्पाद (बायप्रोडक्ट्स) द्वारा हुई आय को छिपाती हैं। नेशनल फेडरेशन ऑफ को-ऑपरेटिव शुगरकेन फैक्ट्रीज (एनएफसीएसएफ ), नई दिल्ली के प्रबंध निदेशक प्रकाश पी नाइकनवाडे कहते हैं, “लगभग 70 प्रतिशत आय चीनी और बाकी 30 प्रतिशत इसके उपउत्पादों से होती है।”
गन्ने के 26 उपउत्पाद हैं। उदाहरण के लिए इथेनॉल को लें जो एक बायप्रोडक्ट है। सरकारी नीति ने ईंधन के साथ 20 प्रतिशत इथेनॉल के सम्मिश्रण का लक्ष्य रखा है। 2018 में केंद्र सरकार ने चीनी मिलों की मांग को स्वीकार करते हुए बी-हैवी मोलासेज (द्वितीय श्रेणी का शीरा) से प्राप्त प्रीमियम इथेनॉल के लिए 52 रुपए प्रति लीटर और सी-हैवी मोलासेस (तृतीय श्रेणी का शीरा) से 46 रुपए प्रति लीटर निर्धारित किया। अब चीनी मिलें तेल बनाने वाली कंपनियों को 2.45 बिलियन लीटर इथेनॉल की आपूर्ति करने की योजना बना रही हैं, जो 7 प्रतिशत मिश्रण के आसपास है। इसका मतलब है कि आने वाले वर्षों में मिलें मुनाफे की खोज में इस क्षेत्र में निश्चित तौर पर प्रवेश करेंगी
चीनी की उत्पादन लागत 35 रुपए प्रति किलोग्राम है जो 0.6 लीटर प्रीमियम इथेनॉल का उत्पादन कर सकती है। इसलिए, एक लीटर प्रीमियम इथेनॉल की कीमत 52 रुपए हुई। अगर कोई मिल बी-हैवी मोलासेस से निकला हुआ रस इथेनॉल उत्पादन में लगा दे तो चीनी की लागत निकल जाएगी। लेकिन मिल मालिक इथेनॉल से होने वाली किसी भी आय से इनकार करते हैं। वर्मा कहते हैं, “इथेनॉल का उत्पादन हमारा मक्खन है, रोटी नहीं और इसलिए हम इससे हुई आय का हिसाब नहीं रखते।”
हर प्रकार की वित्तीय सहायता के बावजूद, व्यापारियों ने किसानों को उनकी उपज के एवज में भुगतान करने में बहुत कम रुचि दिखाई है। भुगतान में देरी से किसान का कर्ज बढ़ सकता है। किसानों को फसल में निवेश करने के लिए ऋण उच्च ब्याज पर मिलता है। गन्ने की फसल तैयार होने में एक साल लेती है। उत्तर प्रदेश के गन्ना किसान नेता सुधीर पंवार कहते हैं, “पहले तो भुगतान में देरी और जब वे भुगतान करते भी हैं तो विलंबित अवधि के लिए ब्याज नहीं देते हैं।” वह आगे बताते हैं, “जब किसान मिलों से भुगतान की मांग करते हैं, तो सरकार बाजार से सात से दस प्रतिशत कम की दर पर ब्याज के साथ सॉफ्ट लोन्स की योजना चालू कर देती है।”
इसलिए एक तरफ, किसान अपने निवेश पर उच्च ब्याज का भुगतान करते हैं, और दूसरी तरफ, चीनी मिलों को कम ब्याज पर सॉफ्ट लोन मिलते हैं। यही नहीं, मिलें किसानों को दिए जाने वाले बकाए पर ब्याज का पैसा कमाती हैं। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश में बकाया राशि 2,750 करोड़ रुपए है और यह 2012 -13 से ही बकाया है। डायरेक्टरेट ऑफ शुगर, मिनिस्ट्री ऑफ कंज्यूमर अफेयर्स, फूड एंड पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन के अनुसार मार्च, 2019 तक चीनी मिलों पर विभिन्न योजनाओं के तहत लिए गए ऋणों का कुल 2,081 करोड़ रुपए बकाया है। भारतीय राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम सहकारी मिलों को हर साल विकास और आधुनिकीकरण के लिए हजारों करोड़ रुपए प्रदान करता है।
अन्य मूलभूत समस्याएं भी हैं। एक हेक्टेयर के भूखंड पर गन्ने की खेती के लिए लगभग 16 लाख लीटर पानी की आवश्यकता होती है, जिससे 8.5 टन चीनी का उत्पादन होता है। अतः एक किलो चीनी का उत्पादन करने के लिए 1,900 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। पारिस्थितिकीय समझ तो यही बताती है कि महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे राज्य, जहां जलापूर्ति को लेकर अक्सर तनाव बना रहता है, वहां गन्ने की खेती न की जाए। ऐसे में यह जरूरी है कि सरकार और न्यायपालिका इस संकट पर ध्यान दे और लाखों गन्ना किसानों की पीड़ा को कम करने के लिए सुधारात्मक कदम उठाए।