केंद्र सरकार द्वारा लागू तीन नए कानूनों में एक कानून का मकसद देश में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा देना है। इसके फायदे-नुकसान जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने प्रो. सुखपाल सिंह से बात की। सिंह इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मैनेजमेंट (आईआईएम) अहमदाबाद के सेंटर फॉर मैनेजमेंट इन एग्रीकल्चर के चेयरमैन एवं प्रोफेसर हैं। प्रस्तुत हैं, बातचीत के प्रमुख अंश-
अब तक यह बात स्पष्ट नहीं हो पाई है कि क्या आने वाले दिनों में कॉरपोरेट ही खेतों में उतर कर खेती करने लगेंगें। लेकिन मेरा मानना है कि खेती में इनपुट कॉस्ट और लेबर कॉस्ट काफी आती है, इसलिए कॉरपोरेट खुद खेती नहीं करेंगे। कॉरपोरेट खेती का यह प्रयोग अमेरिका में फेल हो चुका है। भारत में मैंने आधा दर्जन कॉरपोरेट फार्मिंग के केसों का अध्ययन किया और पाया कि ये फेल हो चुके हैं। ये अध्ययन आईआईएम अहमदाबाद की वेबसाइट पर मिल जाएंगे।
यह जरूर है कि कुछेक लोग और कुछेक अर्थशास्त्री कॉरपोरेट फार्मिंग को कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के साथ मिक्स कर के देख रहे हैं। इससे काफी कन्फ्यूजन पैदा हो रहा है। हाल ही में मंजूर हुआ नया कानून कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की बात करता है। अमेरिका में भी कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग 30-35 प्रतिशत तक ही है। कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग भारत में काफी लंबे समय से चल रही है।
भारत में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग पिछले 30 वर्षों से हो रही है। कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के तहत जो किसान खेती करने लगे हैं, खासकर पंजाब और हरियाणा के किसान उनको फायदा भी हुआ है और वे अन्य किसानों की तुलना में कम नुकसान में गए हैं। मैं अपने 25 वर्षों के शोध के आधार पर कह सकता हूं कि इससे किसानों को फायदा होता है। इसमें भारी लागत लगती है और कंपनी इस खेती के बहुत सारे जोखिम उठाती है। वह गुणवत्ता युक्त बीज, खाद से लेकर किसान के कई जरूरतों को पूरा करती है, लेकिन इससे सभी किसानों को फायदा होगा, ऐसा पुख्ता तौर पर नहीं कहा जा सकता है।
कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की पहली जरूरत होती है बड़ा भू-भाग जो सभी किसानों के पास नहीं होता है कम से कम 5 एकड़ और वह भी पूरी तरीके से सिंचित। दूसरी बात, यह किसान और कॉन्ट्रेक्टर के बीच का समझौता होता है और समझौता का आधार तय होता है कि किसान को कितना फायदा या नुकसान। दुःखद पहलू यह है कि सभी किसान पढ़े-लिखे नहीं हैं। एक बात स्पष्ट है कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का लाभ छोटे किसानों को नहीं होगा। अलाभकारी खेती के कारण वे एक न एक दिन अपनी जमीन बेच देंगे।
इसके बावजूद भी कहा जा सकता है कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के तहत खेती करने वाले किसानों को फायदा होता है। भारत में किसान दो प्रकार के जोखिम उठाते हैं, एक मार्केट रिस्क दूसरा प्रोटेक्शन रिस्क। कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के तहत कंपनियां काफी हद तक ये रिस्क उठाती हैं। किसानों की इस बात की चिंता नहीं रहती है, उनका माल किस रेट में किस मार्केट में बिकेगा। यह सब पहले ही तय हो जाता है।
कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के तहत यह स्पष्ट होता है कि किसी भी सूरतेहाल में कंपनी, किसान की जमीन की न तो खरीद-बिक्री कर सकती है और न ही गिरवी रख सकती है। अतः इस लिहाज से किसानों के हित यहां पर संरक्षित है। अतः जो लोग कह रहे हैं कि कॉरपोरेट किसानों की जमीनें हथिया लेंगे, वह बस लोगों को बरगला रहे हैं, इसके अलावा कुछ भी नहीं है।
पंजाब में जरूर कुछेक केस देखने को मिले हैं, जिसमें बड़े किसानों ने छोटे किसानों की जमीनें कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग के तहत हथिया ली हैं, पर कंपनियों ने ऐसा किया है ऐसा देखने को नहीं मिला।
रही बात किसान या उसके खेत के फायदेमंद बनाने का, तो खेत का आकार तय यह नहीं कर पाता है कि उक्त किसान की खेती फायदेमंद रहेगी या नुकसानदायक। वह इस बात पर निर्भर करता है कि वह किन हालतों में खेती कर रहा है, किस प्रकार की फसल लगा रहा है और किस प्रकार के मार्केट सिस्टम से जुड़ा है। क्योंकि भारत में ही शोध यह कहता है कि एक-एक एकड़ से किसान वर्ष में 6 से 7 लाख रुपए तक कमाता है। इसलिए छोटी जोत होने पर भी किसान मुनाफा कमा सकता है।