कृषि

कॉफी: अमीर होती कंपनियां, गरीब होते किसान

Lalit Maurya

एक तरफ जहां कॉफी व्यापार से जुड़ी बड़ी कंपनियां अरबों डॉलर कमा रही हैं, वहीं दूसरी ओर इसकी खेती कर रहे किसान दिन प्रतिदिन और गरीब होते जा रहे हैं। यह जानकारी हाल ही में जारी कॉफी बैरोमीटर रिपोर्ट 2020 में सामने आई है। जिसने इन किसानों पर बढ़ते जलवायु परिवर्तन के खतरे को भी उजागर किया है।

2020 में यह अपनी प्रतिबद्धताओं पर खरा  उतरने में पूरी तरह विफल रही हैं। रिपोर्ट के अनुसार न तो यह कंपनियां पर्यावरण पर ध्यान दे रही हैं। न ही इन्होने किसानों और खेती की दशा में सुधार लाने के लिए कोई खास प्रयास किए हैं। इन कंपनियों की लिस्ट में नेस्ले, स्टारबक्स, लवाज़्ज़ा, यूसीसी और स्ट्रॉस जैसे नाम शामिल हैं।

पूरी दुनिया में 1.25 करोड़ खेतों में कॉफी उगाई जाती है। इनमें से 95 फीसदी फार्म 5 हेक्टेयर से छोटे हैं जबकि 84 फीसदी का आकार 2 हेक्टेयर से भी कम है| इन छोटे खेतों में दुनिया की करीब 73 फीसदी कॉफी उगती है| हालांकि इन लाखों फार्म्स के बावजूद इनके द्वारा उगाई करीब आधी कॉफी केवल 5 कंपनियों द्वारा निर्यात की जाती है। जिन्हें इसके बाद भूनने के लिए बड़ी कंपनियों द्वारा आयात किया जाता है।

35 फीसदी कॉफी को केवल 10 कंपनियों द्वारा किया जाता है तैयार

विश्व में केवल 10 कंपनियों द्वारा 35 फीसदी कॉफी को रोस्ट किया जाता है| 2019 के आंकड़ों को देखें तो इन कंपनियों ने करीब 4,03,299 करोड़ रुपय (5,500करोड़ डॉलर) कमाए थे। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इस तैयार कॉफी को बेचने से जो आय होती है उसका 10 फीसदी से भी कम इन कॉफी उगाने वाले देशों को मिलता है| उसमें से भी काट छांटकर जो बचता है वो वहां के किसानों की जेबों तक पहुंचता है| ऐसे में उनका गरीब होना स्वाभाविक ही है।

कॉफी से जुड़ी अनेक समस्याओं में से किसानों को उपज की मिलने वाली कम कीमत भी है। जबकि यदि कॉफी उत्पादन के खर्च को देखा जाए तो उसका करीब 60 फीसदी उससे जुड़ी मजदूरी में जाता है। पहले ही इसकी खेती कर रहे किसान गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर कर रहे हैं। ऐसे में न तो यह किसान अपने खेतों पर निवेश कर पाते हैं, न ही अपनी उपज को पर्यावरण अनुकूल बना पाते हैं| उनकी छोटी सी आय में जहां घर चलाना मुश्किल हो जाता है वहां पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन पर निवेश की बात करना तो बेमानी ही लगता है| ऊपर से बाढ़, सूखा, तूफान, कीट और बीमारियां उनकी आय में कमी और खर्चों में इजाफा कर रही हैं| ऐसे में केन्या, अल साल्वाडोर और मेक्सिको  जैसे देशों में जहां बेहतरीन कॉफी पैदा होती है, वहां इसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है| जिस तरह से कॉफी की मांग बढ़ रही है उसके चलते भूमि पर दबाव बढ़ रहा है और मांग को पूरा करने के लिए तेजी से जंगलों को काटा जा रहा है।

यह कॉफी उत्पादक देश और बड़ी कंपनियां आपस में मिलकर पर्यावरण और समाज से जुड़ी कई समस्याओं को हल करने में मदद कर सकती है| लेकिन अपने निजी स्वार्थ, नीतियों और योजनाओं के चलते यह स्थानीय मुद्दों से बहुत दूर हो जाते हैं| रिपोर्ट से पता चला है कि इन रोस्टरों और व्यापारियों में से 15 प्रमुख कंपनियां ऐसी हैं जो एसडीजी में अपना कोई सार्थक योगदान नहीं दे रही हैं| न ही पर्यावरण संरक्षण और न ही किसानों और उससे जुड़े लोगों के विकास पर ध्यान दे रही हैं| हालांकि कुछ कंपनियों ने इस विषय पर व्यापक नीतियां बनाई हैं, लेकिन वो अपनी प्रतिबद्धताओं और वादों पर खरी नहीं हैं।

ऐसे में क्या यह उन कंपनियों की जिम्मेवारी नहीं है कि वो कॉफी उत्पादन में लगे किसानों के हितों का भी ध्यान रखें साथ ही साथ ही कॉफी उत्पादन से लेकर उसकी पूरी सप्लाई चेन को दुरुस्त करें जिससे वो पर्यावरण पर कम से कम असर डालें|