संयुक्त राष्ट्र ने पिछले साल मार्च में जारी विश्व जल विकास रिपोर्ट में चेतावनी दी थी कि जलवायु परिवर्तन वैश्विक खाद्य उत्पादन के तरीके को पूरी तरह बदल देगा। इससे गंभीर और व्यापक खाद्य असुरक्षा पैदा होगी क्योंकि खेती पूरी तरह से जलवायु और स्थानीय मौसम से जुड़ी है। मौसम और जल उपलब्धता में मामूली बदलाव से उपज में भारी अंतर आता है। इसका नतीजा पैदावार में भारी नुकसान के तौर पर सामने आता है। दूसरी ओर इन परिवर्तनों के कारण खाद्य कीमतों में वृद्धि होगी, जिससे ग्रामीण गरीबी बढ़ेगी। भारत सहित विश्वभर की प्रमुख कृषि प्रणालियां जलवायु प्रभावों से सबसे अधिक खतरे में हैं।
मई 2019 में प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल अकैडमी ऑफ साइंसेस ऑफ द यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका जर्नल द्वारा प्रकाशित लेख के अनुसार, 2040 तक चार प्रमुख फसलों- गेहूं, सोयाबीन, चावल और मक्का पर क्षेत्रीय वर्षा पैटर्न का प्रभाव दिखेगा। रिपोर्ट में कहा गया है कि इन फसलों को प्रमुखता से उगाने वाले भारत सहित अन्य देश स्थायी सूखे का सामना करेंगे। अन्य देश जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से आर्द्र परिस्थितियों का सामना करेंगे।
वर्तमान में भारत में गेहूं की खेती के लिए जो समर्पित भूमि है, वहां ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) उत्सर्जन के वर्तमान रुझानों के तहत 2020 और 2060 के बीच सामान्य से अधिक वर्षा होगी। जबकि मेक्सिको और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों के भूमि क्षेत्रों में क्रमशः 87 और 99 प्रतिशत भूमि कम वर्षा होगी।
रिपोर्ट के अनुमान से पता चलता है कि ऊष्णकटिबंधीय और उत्तरी भौगोलिक हिस्सा आर्द्र हो जाएगा, जबकि अफ्रीका के कुछ हिस्से, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप सूखे हो जाएंगे। वहीं, भारत में चावल की खेती वाली 100 फीसदी भूमि, मक्का की 91 प्रतिशत भूमि और सोयाबीन की 80 प्रतिशत भूमि अगले 40 वर्षों के भीतर आर्द्र परिस्थितियों से गुजरेगी।
रिपोर्ट में कहा गया है कि अगले 50 से 100 वर्षों के दौरान तापमान और वर्षा की प्रवृत्ति में बदलाव के चलते न सिर्फ कृषि प्रभावित होगी बल्कि इसका खाद्य सुरक्षा पर भी असर पड़ेगा। उच्च तापमान के साथ बढ़ी हुई वर्षा, सूखा और बाढ़ ही जलवायु परिवर्तन का रूप है। इसके फलस्वरूप सतह का जल और भूजल घटेगा, मौसमी पानी तेजी से बह जाएगा, बाढ़ आएगी, लवणता बढ़ेगी और उत्पादकता कम हो जाएगी। रिपोर्ट के अनुसार, सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र के कृषि क्षेत्र को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बनाने की गुंजाइश कम है। ये क्षेत्र जलवायु परिवर्तन प्रति बहुत संवेदनशील हैं।
करीब दो साल पहले सरकार ने स्वीकार किया था जलवायु परिवर्तन के चलते 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के वादे को अमलीजामा पहनाने में दिक्कत आएगी। आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 ने कहा कि कृषि पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए चिंता का विषय है। सर्वेक्षण में कहा गया है, “जलवायु परिवर्तन से मध्यम अवधि में कृषि आय में 20-25 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है।” इसमें कहा गया कि कृषि संकट को दूर करने और किसानों की आय दोगुनी करने के लिए ठोस कार्रवाई की जरूरत है। सर्वेक्षण में कहा गया है, “खरीफ और रबी के मौसम में तापमान के झटके से किसानों की आय औसतन क्रमश: 4.3 और 4.1 प्रतिशत कम हो जाती है। वहीं अत्यधिक वर्षा से इन दोनों फसल चक्रों में आय क्रमश: 13.7 और 5.5 प्रतिशत घट सकती है।”
जलवायु परिवर्तन का आय पर प्रभाव उन क्षेत्रों पर अधिक होगा जहां खेती वर्षा पर आश्रित है। इन क्षेत्रों में 60 प्रतिशत कृषि भूमि क्षेत्र है और देश के 60 प्रतिशत किसान भी यहीं रहते हैं। सर्वेक्षण के अनुसार, ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट नहीं है कि कृषि से प्राप्त होने वाली आय किस दिशा जाएगी क्योंकि एक तरफ मौसम के झटकों से उत्पादन कम होगा और दूसरी तरफ आपूर्ति में कमी से स्थानीय स्तर पर कीमतें बढ़ जाएंगी। इससे स्पष्ट संकेत मिलता है कि आपूर्ति में कमी या झटके का नतीजा कम राजस्व के रूप में दिखेगा।
सर्वेक्षण के अनुसार, जिस साल तापमान 1 डिग्री सेल्सियस अधिक होगा, तब खरीफ सीजन के दौरान किसान की आय में 6.2 प्रतिशत गिरेगी। वर्षा वाले जिलों में रबी के दौरान आय में 6 प्रतिशत की गिरावट होगी। इसी तरह, जिस साल बारिश औसत से 100 मिलीमीटर कम होगी, तब खरीफ के दौरान किसान की आय में 15 फीसदी और रबी सीजन के दौरान 7 फीसदी की गिरावट आएगी। अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन से किसानों की आय औसतन 15 से 18 प्रतिशत कम होगी। बारिश वाले क्षेत्रों में यह नुकसान 20 से 25 प्रतिशत के बीच रहेगा। ये आंकड़े डरावने हैं क्योंकि भारत में कृषि से प्राप्त होने वाली आय पहले से निम्न स्तर पर है। सीधे शब्दों में इसका अर्थ है कि किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य अप्रासंगिक हो चुका है।
अब 2020 की स्थितियों पर अगर नजर डालते हैं। यह साल मौसम के लिहाज से उथल-पुथल वाला रहा। इसने ज्यादा उत्तर प्रदेश और बिहार जैसी घनी आबादी वाले राज्यों को बुरी तरह प्रभावित किया। मौसम विभाग के अनुसार, साल 2020 में इन दोनों राज्यों में गर्जन, आसमानी बिजली और शीतलहर के चलते 350 से ज्यादा लोगों की मौत हुई। देश के अलग-अलग हिस्सों में भारी बारिश और बाढ़ के कारण 600 से अधिक लोगों को जान गंवानी पड़ी। मौसम विभाग के मुताबिक, “जनवरी में शीतलहर से कम से कम 150 लोगों की मौत हुई। इनमें 88 लोग अकेले उत्तर प्रदेश में मारे गए। बिहार में 45 व झारखंड में 16 लोगों की जान गई।
मौसम विभाग के अनुसार, 2020 में सतह का सालाना औसतन तापमान सामान्य से 0.290 डिग्री सेल्सियस (1981-2010 के आंकड़ों के आधार पर) अधिक था। यह साल 1901 के बाद आठवां सबसे गर्म साल रहा। 2020 में उत्तरी हिंद महासागर के ऊपर पांच चक्रवात बने। इनमें सुपर चक्रवात अम्फान, बेहद गंभीर चक्रवात निवार और गति, गंभीर चक्रवात की श्रेणी में निसर्ग और चक्रवात बुरेवी शामिल थे। इनमें निसर्ग और गति अरब सागर में बने, शेष तीन बंगाल की खाड़ी के ऊपर बने। अम्फान प्री-मॉनसून सीजन में बना था और जिसने 20 मई 2020 को सुंदरवन से पश्चिम बंगाल तट को पार किया। इससे 90 लोगों और 4,000 पशुओं की मौत हुई। गंभीर श्रेणी वाला चक्रवात निसर्ग मॉनसून सीजन में बना और इसने 3 जून 2020 को महाराष्ट्र तट को पार किया। इससे चार लोगों और 2,000 पशुओं की मौत हो गई।
मौसम की इन सभी घटनाओं ने 2 करोड़ हेक्टेयर से अधिक कृषि भूमि को प्रभावित किया। जलवायु परिवर्तन से जुड़ी आपदाएं भारतीय किसानों पर लगातार कहर ढा रही हैं। वर्ष 2019-20 में इन मौसमी घटनाओं ने भारत में 1.4 करोड़ हेक्टेयर से अधिक कृषि भूमि को प्रभावित किया। वर्ल्ड रिस्क इंडेक्स (डब्ल्यूआरआई) 2020 के अनुसार, जलवायु आपदाओं से निपटने के लिए भारत की तैयारी काफी कमजोर है। यही वजह है कि वह प्राकृतिक आपदाओं के प्रति बेहद संवेदनशील है।
भारत डब्ल्यूआरआई 2020 रैंक में 181 देशों में 89वें स्थान पर रहा। इंडेक्स में भारत दक्षिण एशिया के देशों में चौथा सबसे जोखिम वाला देश था। भारत दक्षिण एशियाई देशों में बांग्लादेश, अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बाद चौथा सबसे ज्यादा जोखिम वाले देश था। जलवायु परिवर्तन से जुड़ी आपदाएं केवल फसलों को ही नुकसान नहीं पहुंचा रही हैं बल्कि ये पलायन भी बढ़ा रही हैं और पलायन करने वाले अधिकांश लघु और सीमांत किसान हैं। सितंबर 2020 में नेचर क्लाइमेट चेंज नामक जर्नल में प्रकाशित एक नए अध्ययन में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन से जुड़ा पलायन मुख्य रूप से उन देशों में होता है जहां कृषि पर निर्भरता अधिक है। मौसमी आपदाओं से आजिज आकर ही लोग पलायन को मजबूर होते हैं।
अध्ययन के मुख्य लेखक और पोट्सडेम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च (पीआईके) व ऑस्ट्रियन अकैडमी ऑफ साइंसेस के विएना इंस्टीट्यूट ऑफ डेमोग्राफी में वैज्ञानिक रोमन हॉफमैन के अनुसार, “पर्यावरण के कारक पलायन बढ़ा सकते हैं लेकिन यह काफी हद तक देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक स्थितियों पर निर्भर है।” उन्होंने आगे कहा, “निम्न और उच्च आय वाले देशों में जलवायु परिवर्तन का पलायन पर असर अलग-अलग है।
अक्सर गरीब लोग गरीबी के कारण पलायन की स्थिति में नहीं होते इसलिए आपदाओं में फंस जाते हैं। अमीर देशों में लोगों के पास संकट से जूझने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन होते हैं और इनके दम पर वे आपदाओं से जूझ सकते हैं। मध्यम आय वाले क्षेत्रों में कृषि पर निर्भर लोग ही पलायन अधिक करते हैं और इन्हीं पर आपदाओं का ज्यादा असर होता है।” अध्ययन में पाया गया है कि लैटिन अमेरिकी, कैरेबियन, उप सहारा अफ्रीका, पश्चिम और दक्षिण पूर्वी एशिया में पर्यावरण से संबंधित नुकसान अधिक नजर आता है।
अध्ययन के अनुसार, इन क्षेत्रों की आबादी चक्रवाती तूफानों, भारी बारिश, बाढ़ आदि से सबसे ज्यादा नुकसान झेलती है। पिछले दो वर्षों में उत्तरी हिंद महासागर क्षेत्र में अप्रत्याशित तौर पर चक्रवातों की संख्या और तीव्रता में बड़ी वृद्धि देखी गई है। इनमें मई 2020 में बंगाल की खाड़ी में आए चक्रवाती तूफान अम्फान और मई 2019 में फानी ऐसे ही खतरनाक चक्रवाती तूफान थे। इन दोनों बड़े तूफानों ने भारत और बांग्लादेश के पूर्वी तट पर बड़े पैमाने पर जानमाल को नुकसान पहुंचाया। साल 2015 में सीरिया से बड़ी संख्या में निकले शरणार्थी और 2018 में मध्य अमेरिका से संयुक्त राज्य में लोगों का पलायन इन देशों में पड़े भयंकर सूखे का भी परिणाम था।
हैदराबाद स्थित इंटरनेशनल सेंट्रल रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर ड्राईलैंड एग्रीकल्चर (सीआरआईडीए) के पूर्व निदेशक बी. वेंकटेश्वरवर का कहना है, “जलवायु परिवर्तन खाद्य सुरक्षा के सभी तीन पहलुओं- उपलब्धता, पहुंच और खपत को प्रभावित करता है। जब उत्पादन कम हो जाता है तो भोजन की उपलब्धता भी कम हो जाती है। जलवायु परिवर्तन सबसे ज्यादा नुकसान गरीबों को पहुंचाता है क्योंकि उनके पास भोजन खरीदने के लिए पर्याप्त आय नहीं है। इससे भोजन तक उनकी पहुंच प्रभावित होती है। उनका स्वास्थ्य और उपभोग भी प्रभावित होता है।”
उनके अनुसार, भारत में हर साल जलवायु परिवर्तन का कृषि पर लगभग 4 से 9 प्रतिशत प्रभाव पड़ता है। भारत की जीडीपी में कृषि का योगदान 15 प्रतिशत है। जलवायु परिवर्तन से जीडीपी में लगभग 1.5 प्रतिशत का नुकसान होता है। उनका कहना है कि चावल, गेहूं, मक्का और बाजरा इससे सर्वाधिक प्रभावित हैं।
जलवायु परिवर्तन के असर से 2030 तक चावल और गेहूं की पैदावार में 6 से 10 प्रतिशत की कमी देखी जा सकती है। आलू, सोयाबीन, चना और सरसों जैसी फसलों में इसका नगण्य अथवा सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। उनका कहना है, “सोयाबीन और चना जैसी फसलें वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड के उच्च स्तर से बेहतर होंगी। लेकिन इसका सकारात्मक प्रभाव 10-15 साल से अधिक रहने की संभावना नहीं है।”
उत्तर भारत के पंजाब और हरियाणा में सरसों की खेती पर सकारात्मक असर हो सकता है क्योंकि यहां का तापमान सर्दियों में बहुत कम होता है। तापमान में 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि इसके उत्पादन पर अधिक असर नहीं डालेगी। लेकिन पूर्वी और मध्य भारत में तापमान में इतनी वृद्धि का नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
कार्बन डाईऑक्साइड के बढ़े हुए स्तर पर फायदा आलू की पैदावार को होगा। केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान के विशेषज्ञों ने अपने शोधपत्र में भी यही निष्कर्ष निकाला है। शोधपत्र कहता है कि तापमान में 1 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी और कार्बनडाईऑक्साइड 550 पीपीएम होने पर आलू की पैदावार 11.12 प्रतिशत बढ़ जाएगी।
हालांकि, कार्बन डाईऑक्साइड में वृद्धि के चलते तापमान में 3 डिग्री सेल्सियस वृद्धि की संभावना है जिसके कारण 2050 में आलू उत्पादन में 13.72 प्रतिशत गिरावट की संभावना है। बारिश की अनिश्चितता से खरीफ की फसल अधिक प्रभावित होगी, जबकि रबी की फसल पर कम तापमान का असर पड़ेगा। तापमान में 1 डिग्री सेल्सियस वृद्धि से रबी के मौसम में गेहूं पर नकारात्मक प्रभाव की आशंका है। बढ़े तापमान से 4 मीट्रिक टन गेहूं को नुकसान हो सकता है। इसी तरह वायुमंडल में कार्बनडाईऑक्साइड के ऊंचे स्तर के कारण फलियों की पैदावार बढ़ सकती है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि जलवायु परिवर्तन का कृषि पर व्यापक असर पड़ेगा और अधिकांश असर नकारात्मक होगा।