फसलों के थोक बाजार के लिए केंद्र सरकार द्वारा तैयार की गई राष्ट्रीय कृषि विपणन नीति के मसौदे (ड्राफ्ट) ने किसानों की चिंता फिर से बढ़ा दी है। किसान संगठन इसे थोक बाजारों के निजीकरण की ओर बढ़ाया गया एक और कदम मान रहे हैं।
ध्यान रहे कि ये थोक बाजार किसानों की उपज की बिक्री का सबसे महत्वपूर्ण पहला पड़ाव होता है। ये बाजार अकेले व्यापार केंद्र नहीं हैं, बल्कि वे सभी फसलों की मांग, कीमतों और अंत में ये किसानों की आजीविका को निर्धारित करते हैं।
इस बारे में संयुक्त किसान मोर्चे का कहना है कि हमें लगता है कि यह मसौदा केंद्र सरकार द्वारा 2020-21 में लाए गए कृषि कानूनों को पिछले दरवाजे से लाने की एक अदद कोशिश है।
ध्यान रहे कि इन्हीं कृषि कानूनों के विरोध में देशभर के किसानों ने विरोध प्रदर्शन किया था, क्योंकि उनको लगता था कि इन कानूनों से कृषि पर नियंत्रण मुट्टीभर कारपोरेट के हाथों हवाले कर दिए जाएंगे। पुरानी मसौदा नीति 25 नवंबर 2024 को जारी की गई थी, जिसमें टिप्पणियों के लिए केवल 14 दिनों की अल्प अवधि दी गई थी।
इसमें कहा गया है कि भारत में 27 राज्यों और तीन केंद्र शासित प्रदेशों में लागू कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) कानूनों के तहत विनियमित 7,057 एपीएमसी की मंडियां हैं। साथ ही 125 निजी थोक बाजार और लगभग 500 अनियमित थोक बाजार हैं। देश में ग्रामीण हाट और अन्य छोटे बाजार भी हैं जो या तो एपीएमसी के अधीन हैं या निजी स्तर पर और स्थानीय निकायों द्वारा चलाए जाते हैं।
हालांकि 15 राज्यों ने निजी थोक बाजारों को अनुमति दी है, लेकिन वे वर्तमान में सीमित सफलता के साथ केवल पांच राज्यों में संचालित होते हैं। फिर भी मसौदा नीति उन्हें देश भर में विस्तारित करने का प्रस्ताव करती है।
अहमदाबाद स्थित भारतीय प्रबंधन संस्थान में कृषि प्रबंधन केंद्र के प्रोफेसर और पूर्व अध्यक्ष सुखपाल सिंह कहते हैं, “जब आप कृषि बाजार को निजी थोक विक्रेताओं के लिए खोल रहे हैं तो आप एपीएमसी को भी सार्वजनिक-निजी मॉडल के तहत क्यों रखना चाहते हैं? इसका मतलब होगा मंडियों के दैनिक संचालन को निजी संस्थाओं को सौंपना।”
इसके अलावा 21 राज्यों में बागवानी उत्पादों के विपणन में निजी व्यापारियों को अनुमति दी गई है। सिंह कहते हैं, “फिर भी किसानों को जल्दी खराब होने वाली फसलों पर खराब रिटर्न मिल रहा है। ये उच्च मूल्य वाली फसलें हैं और उन्हें बाजार की ताकतों के भरोसे छोड़ने से किसानों के हितों की पूर्ति नहीं करेगा।” मसौदा नीति अधिक निजी भागीदारी पर जोर दे रही है लेकिन निजी बाजारों में बिक्री करने वाले किसानों के लिए एक मजबूत शिकायत निवारण तंत्र प्रदान नहीं करती है, जिसकी मांग किसान 2020-21 से करते आ रहे हैं।
मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में स्कूल ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज के प्रोफेसर आर रामकुमार कहते हैं, “हालांकि मसौदा नीति में अनिच्छा से स्वीकार किया गया है कि कृषि विपणन राज्य का विषय है लेकिन केंद्र सरकार हस्तक्षेप करने के प्रलोभन का विरोध नहीं कर सकी।” इसमें जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) परिषद की तरह केंद्रीय कृषि मंत्री की अध्यक्षता में एक सशक्त कृषि विपणन सुधार समिति का प्रस्ताव है।
मसौदे में आगे एपीएमसी और राज्य कृषि बाजार बोर्डों द्वारा एकत्र किए जाने वाले बाजार शुल्क को खराब होने वाले उत्पादों के लिए 1 प्रतिशत और गैर-खराब होने वाले उत्पादों के लिए 2 प्रतिशत तक सीमित करने का प्रस्ताव है। पंजाब सरकार ने इस कदम का विरोध करते हुए तर्क दिया है कि राजस्व का उपयोग ग्रामीण सड़क नेटवर्क स्थापित करने और मंडी के बुनियादी ढांचे में सुधार के लिए किया जाता है।
नीति और शोध संगठन आर्कस पॉलिसी रिसर्च की श्वेता सैनी कहती हैं, “यह विजन 10 साल के लिए है लेकिन इसमें सुझाए गए हस्तक्षेप आज की जरूरत हैं। 10 साल पहले भी यही मुद्दे थे।” दस्तावेज में राज्यों के लिए 12 कार्य क्षेत्रों की रूपरेखा दी गई है, जिसमें निजी थोक बाजार, जल्दी खराब होने वाली वस्तुओं का विनियमन, ई-ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म और बाजार शुल्क को युक्तिसंगत बनाना शामिल है।
हालांकि इनमें से कई उपाय पहले से ही लागू हैं। उदाहरण के लिए 25 राज्यों ने पहले ही बाजार शुल्क को युक्तिसंगत बनाने की अधिसूचना जारी कर दी है। 15 राज्य निजी बाजारों को अनुमति देते हैं और 12 राज्यों के पास ई-ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म हैं। रामकुमार कहते हैं, “अब वही पुराने बिंदु फिर से पेश किए गए हैं।”
मसौदे में एक महत्वपूर्ण चूक यह है कि इसमें पशुधन विपणन को शामिल नहीं किया गया है जो किसान की आय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। सैनी कहती हैं, “किसानों के लिए पशुधन उनकी आय का एक अभिन्न अंग है। हालांकि नीति निर्माण में पशुधन मंडियां अनाथ बनी हुई हैं।”