2019 में खरीफ की कटाई का मौसम शुरू होने के तीन सप्ताह बाद कुछ रिपोर्टें सामने आईं, जिनके अनुसार किसान सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से काफी कम मूल्य पर अपनी फसलें बेच रहे हैं। धान और मक्का जैसी कुछ फसलों को छोड़कर मूंग, उड़द, तुअर, रामतिल, बाजरा, ज्वार, रागी, कपास, सोयाबीन और सूरजमुखी सहित 14 खरीफ फसलों में से अधिकतर के लिए बाजार मूल्य, न्यूनतम समर्थन मूल्य से 8 से 37 प्रतिशत तक नीचे गिर गया। इससे जहां किसानों ने बड़े पैमाने पर नुकसान उठाया, वहीं मध्यम वर्ग के बीच इन खबरों से कोई खास आक्रोश नहीं पनपा। इसके कारण को समझना बड़ा आसान है। अगर भोजन की कीमतें कम रहती हैं तो घरेलू बजट पर असर नहीं पड़ता। वास्तव में, खाद्य मुद्रा स्फीति को नियंत्रण में रखने के लिए सरकार की पीठ थपथपाई गई और किसी ने भी यह जानने की जहमत भी नहीं उठाई कि उन किसानों का क्या होता है जो इस सस्ते भोजन का उत्पादन करते हैं।
ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हो रहा है। 2018 और 2019 में किसानों ने न्यूनतम समर्थन मूल्य से 20 से 30 प्रतिशत तक कम कीमतों पर दालों, तिलहन और मोटे अनाजों की बिक्री की और मंडियों में लाई अपनी फसलों की खरीद की मांग करते रहे। यहां तक कि गेहूं और चावल जैसे जिन अनाजों की खरीद सुनिश्चित है, उनके लिए भी पंजाब और हरियाणा जैसी जगहों (जहां एक विशाल और कुशल खरीद-फरोख्त तंत्र मौजूद है) को छोड़कर किसी भी दूसरी जगह वे न्यूनतम समर्थन मूल्य प्राप्त करने में असमर्थ रहे हैं। लेकिन, विश्व व्यापार संगठन की ओर से लगातार खुद की जांच और स्वायत्त उदारीकरण में प्रगति के साथ भारत पर इस खरीद-फरोख्त तंत्र को खत्म करने का काफी दबाव बना हुआ है। अक्टूबर 2019 में धान के खरीद के मौसम के बीच अचानक ही हरियाणा में करनाल जिला प्रशासन ने सीजन के लिए 135 लाख टन के अपने कोटे से ज्यादा धान की खरीद पर रोक लगा दी।
कोई स्पष्टीकरण दिए बगैर सरकार मंडी में लाए गए गेहूं और धान के हर अन्न को खरीदने के अपने वायदे से कदम पीछे खींचने के लिए बिल्कुल तैयार दिख रही है। पंजाब में मुख्यमंत्री ने कथित तौर पर आढ़तियों (कमीशन एजेंटों) की एक बैठक में भविष्य में सार्वजनिक स्टॉक होल्डिंग सीमाओं में कटौती की और इशारा करते हुए कहा है कि वह इस बारे में आश्वासन नहीं दे पाएंगे कि अगले साल खरीद-फरोख्त का संचालन बीते वर्षों की तरह सुचारू रूप से चलता रहेगा। धान्यागारों के पूरी तरह भर जाने से खरीद में कटौती करना अप्रबंधनीय अतिरिक्त खाद्य को कम करने के लिए नीतिगत मार्ग मालूम पड़ता है। लेकिन, ऐसे में उन लाखों लोगों का क्या होगा जो बंपर पैदावार के लिए कठिन परिश्रम करते हैं? किसानों के टमाटर, आलू और प्याज को सड़कों पर फेंकने की घटनाएं बार-बार घटती हैं। इसे अधिकतर कृषि उत्पादों को साल दर साल उचित मूल्य से वंचित करने से जोड़िए। इस तरह आपके सामने निरंतर मौजूद कृषि संकट के कारण पूरी तरह स्पष्ट हो जाते हैं।
अपने 16-28 फरवरी, 2019 के संस्करण में डाउन टू अर्थ अंग्रेजी पत्रिका की ओर से किए गए एक विश्लेषण से पता चलता है कि एक किसान एक हेक्टेयर गेहूं से 32,644 रुपए की उत्पादन लागत के मुकाबले केवल 7,639 रुपए कमाता है। यह 25,005 रुपए प्रति हेक्टेयर का भारी नुकसान है। धान की फसल के लिए ये नुकसान 36,410 रुपए, मक्का के लिए 33,688 रुपए और अरहर के लिए 26,480 रुपए है। सरकार इस बात से अच्छी तरह वाकिफ है। एक आरटीआई के जवाब में हरियाणा कृषि विभाग ने कहा कि 2018-19 के विपणन काल में 2,874 रुपए प्रति क्विंटल की अनुमानित उत्पादन लागत के मुकाबले न्यूनतम समर्थन मूल्य 1,840 रुपए प्रति क्विंटल (100 किलोग्राम) था, जो 234 रुपए का नुकसान दर्शाता है। कपास पर प्रति क्विंटल 830 रुपए का नुकसान दर्ज किया गया। जबकि, बेहतर प्रबंधन और उच्च न्यूनतम समर्थन मूल्य हालात को ठीक करने में मदद कर सकते हैं।
ऐसा लगता है जैसे खरीद मूल्य को जानबूझकर कम रखा गया है। 23 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करने वाले कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) के हिसाब से यह जनादेश न केवल किसानों को एक सुनिश्चित मूल्य प्रदान करने के लिए है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय कीमतों के साथ संतुलन बनाए रखने के लिए भी है, ताकि न्यूनतम समर्थन मूल्य मुद्रा स्फीति को बढ़ावा न दे। खाद्य मुद्रा स्फीति जितनी अधिक होगी, उद्योगों पर श्रमिकों की मजदूरी बढ़ाने का उतना ही दबाव होगा। इससे आर्थिक सुधारों के अनियंत्रित होने का खतरा बढ़ जाएगा। लेकिन, इन सबमें चिंता की बात यह है कि अकेले किसानों पर खाद्य मुद्रा स्फीति को नियंत्रण में रखने का बोझ डालकर छोड़ दिया गया है।
2018 में आर्थिक सहायता एवं विकास संगठन (ओईसीडी) और इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनैशनल इकोनॉमिक रिलेशंस (आईसीआरआईईआर) ने मिलकर एक अध्ययन किया, जो उस चौंका देने वाली लागत को दिखाता है, जिसका बोझ भोजन के मूल्य को कम बनाए रखने के लिए किसानों को उठाना पड़ता है। इस अध्ययन के अनुसार, 2000-01 से 2016-17 के बीच किसानों को उनकी उपज के वाजिब मूल्य से वंचित रखने की वजह से 45 लाख करोड़ रुपए का संचयी नुकसान हुआ। यह लगभग 2.65 लाख करोड़ रुपए प्रति वर्ष का नुकसान है, जो किसानों को व्यापार प्रतिबंधों, कम कीमतों और विपणन नीतियों में भारी गड़बड़ी (जिसमें सुनिश्चित खरीद में कमी भी शामिल है) के कारण झेलना पड़ा। वाजिब आय से वंचित होने पर किसानों की निर्भरता कृषि ऋण पर बढ़ जाती है, जो उनमें आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति का मुख्य कारण है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, 1995 से 2018 के बीच 3,36,516 किसानों ने आत्महत्या की। वास्तविक कृषि आय में निरंतर गिरावट (नीति आयोग के अनुसार, 2011-12 और 2015-16 के बीच वास्तविक कृषि आय 0.44 प्रतिशत से भी कम वार्षिक दर से बढ़ी है) ऐसी परिस्थितियां भी पैदा करती हैं जो किसानों, विशेष रूप से छोटे किसानों को खेती छोड़ने और नौकरी की तलाश में शहरों की ओर पलायन के लिए मजबूर करती हैं। अजीब बात यह है कि ग्रामीण क्षेत्र से शहरों में पलायन को आर्थिक विकास के संकेत के रूप में देखा जाता है। वास्तव में, नीतिगत जोर लोगों को कृषि से विमुख कर उन शहरों में स्थानांतरित करने पर रहा है, जहां सस्ते श्रम की जरूरत है।
जब कृषि अर्थव्यवस्था गहरे संकट में होती है, तो इसका बुरा असर खेतिहर और गैर कृषि श्रमिकों, दोनों पर पड़ता है। दिल्ली की एक व्यवसायिक इंन्फॉर्मेशन कंपनी सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की एक रिपोर्ट बताती है कि कृषि में सकल मूल्य 14 साल में सबसे कम है। अनुमान के मुताबिक 2018-19 में ग्रामीण भारत में 91 लाख नौकरियां और शहरों में 18 लाख नौकरियां खत्म हो गईं। रिपोर्ट में कहा गया है, “ग्रामीण भारत में देश की दो-तिहाई आबादी बसती है, लेकिन 84 फीसदी नौकरियां गांवों में ही खत्म हुई हैं।” इससे पहले, नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) की लीक हुई पीरियडिक लेबर फोर्स सर्वे रिपोर्ट 2017-18 से पता चला था कि 2011-12 से 2017-18 के बीच, 300 लाख खेतिहर श्रमिकों सहित करीब 340 लाख अनियमित मजदूरों को ग्रामीण क्षेत्रों में नौकरियां गंवानी पड़ी थीं। कृषि कार्यबल में इस तरह 40 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई थी। कृषि में कम निवेश से भी इस क्षेत्र के प्रति पूर्वाग्रह स्पष्ट होते हैं।
भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार, 2011-12 और 2016-17 के बीच कृषि में सार्वजनिक क्षेत्र का निवेश जीडीपी के 0.3 से 0.4 प्रतिशत के आसपास ही रहा। सार्वजनिक क्षेत्र के इस तरह कम निवेश करने का असर निजी क्षेत्र के निवेश पर भी पड़ा और उसने भी अपने हाथ खींच लिए। 2016-17 में कृषि में संयुक्त निवेश जीडीपी का 2.2 प्रतिशत रहा। इससे पता चलता है कि प्रचलित धारणा के विपरीत, कृषि कम उत्पादकता से खास प्रभावित नहीं होती है, बल्कि जानबूझकर कृषि आय को कम रखने का इस पर अधिक असर पड़ता है। फिलहाल, तत्काल चुनौती किसानों के हाथों में अधिक धन उपलब्ध कराने की है, जिससे अधिक मांग पैदा होगी और इस प्रक्रिया में अर्थव्यवस्था फिर से सुदृढ़ होगी। सबसे बड़ा नियोक्ता होने के नाते अकेले कृषि में अर्थव्यवस्था को रिबूट करने की क्षमता है।
ऐसे समय में जबकि देश की 60 प्रतिशत आबादी के पास राष्ट्रीय संपत्ति का केवल 4.8 प्रतिशत हिस्सा है और इस महत्वपूर्ण अनुपात में किसान और कृषि श्रमिक शामिल हैं, तो ऐसे में कृषि को पुनर्जीवित करने की तत्काल आवश्यकता है। सबका साथ, सबका विकास का यह पक्का रास्ता है। किसानों को सीधे आर्थिक सहायता प्रदान करने की योजना के साथ इसकी शुरुआत भी हो चुकी है। अब समय आ चुका है कि आर्थिक चिंतन में संरचनात्मक बदलाव करते हुए “मूल्य नीति” से “आय नीति” की तरफ बढ़ा जाए। पीएम किसान योजना के तहत आवंटन को दोगुना करके इसे सुनिश्चित किया जा सकता है।
वर्तमान में, किसानों को तीन बराबर किस्तों में 6,000 रुपए हर साल दिए जाते हैं। प्रभावी रूप से देखें तो यह महज 500 रुपए प्रति माह की बेहद मामूली सहायता है और इसे बढ़ाने की जरूरत है। मुझे उम्मीद है कि जल्द ही किसानों को सीधे तौर पर प्रत्येक महीने 5,000 रुपए की सहायता मुहैया कराई जाएगी। यह तेलंगाना की रायतु बंधु योजना सहित विभिन्न राज्यों में लागू की गई आय सहायताओं के लिए सप्लीमेंट के तौर पर काम करेगी। इसके बाद प्रत्येक किसान परिवार की न्यूनतम मासिक आय 18,000 रुपए सुनिश्चित की जानी चाहिए। यह सुझाव हर महीने उन्हें चेक जारी करने के लिए नहीं, बल्कि फसल उत्पादकता और खेत की भौगोलिक स्थिति के आधार पर किसानों को एक सुनिश्चित मासिक आय प्रदान करने के लिए एक तंत्र विकसित करने का है। सरकार को ईज ऑफ डूइंग बिजनेस की तरह ही ईज ऑफ डूइंग फार्मिंग के लिए भी एक सूचकांक तैयार करने की जरूरत है।
ऐसे समय में जब संयुक्त राज्य अमेरिका में एक किसान को औसत 60,586 डॉलर (42 लाख रुपए), जापान में 10,149 डॉलर और यूरोपीय संघ में 6,762 डॉलर की सीधी आय सहायता मिलती है, भारतीय किसान को मिल रही सहायता न के बराबर है। सस्ता भोजन उपलब्ध कराने में किसानों को होने वाले नुकसान के लिए उन्हें पर्याप्त मुआवजा दिया जाना चाहिए। यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि एक किसान को खाद्यान्न उत्पादन के लिए दंडित नहीं किया जा सकता है। इसके लिए देश को अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों के बराबर ही किसानों के लिए वास्तविक आय (और वार्षिक वेतन वृद्धि) वाली एक आदर्श योजना तैयार करनी ही होगी।
(लेखक खाद्य और व्यापार नीति विश्लेषक हैं)