कृषि

बदलते मौसम का शिकार हुई मधुमक्खियां, हिमाचल-कश्मीर के बागवानों की आर्थिकी पर संकट

मौसम में बदलाव और कीटनाशकों के इस्तेमाल से देशी मधुमक्खियां लगभग लुप्त हो गई है, लेकिन अब विदेशी मधुमक्खियां भी मौसम की मार नहीं झेल पा रही हैं

Raju Sajwan

जलवायु परिवर्तन का शिकार वे मधुमक्खियां भी हो रही हैं, जो हमारी फसलों की पहली जरूरत हैं। इसका बड़ा असर इस बार हिमाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर के सेब बागवानों पर पड़ा है। अनुमान लगाया जा रहा है कि जहां हिमाचल प्रदेश में इस बार लगभग 30 प्रतिशत सेब का उत्पादन कम हो सकता है, वहीं कश्मीर में 20 प्रतिशत नुकसान का अनुमान है। 

हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले के बागवान मार्शल ठाकुर कहते हें,  "इस साल तो अप्रैल के मध्य में बारिश हो गई तो हमारे बगीचे में मधुमक्खियों के बक्सों में ही मर गई। उन्हें बाहर निकलने का मौका ही नहीं मिला। जब वो बाहर नहीं निकली तो हमारे सेब का पॉलीनेशन (परागण) ही नहीं हो पाया। इसके चलते सेब के उत्पादन में 30 से 35 प्रतिशत का नुकसान होने वाला है।"

मार्शल ठाकुर जैसी ही बात आकाश भीमटा भी कहते हैं। शिमला जिले के कोटखाई क्षेत्र के आकाश कहते हैं, "37 साल बाद अप्रैल में इतनी ठंड पड़ी है। सेब में फूल आने का समय था कि 15 अप्रैल से अचानक बहुत भारी बारिश हुई और ठंड बढ़ गई। मैंने भी अपने बगीचों में मधुमक्खियों के बॉक्स लगाए थे। लेकिन मधुमक्खियां मर गई। सेब के फूलों का परागण ढंग से नहीं हो पाया। इसलिए सेब का नुकसान होना तय है।"

इन दो बागवानों की ही तरह हिमाचल प्रदेश का लगभग हर बागवान इस बार मौसम में आए बदलाव की वजह से सेब के फूलों का परागण न होने से दुखी है और माना जा रहा है कि इस बार हिमाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था के लिए यह एक बड़ी चुनौती बन सकता है। यहां यह उल्लेखनीय है कि हिमाचल प्रदेश में हर साल लगभग 5,000 करोड़ रुपए का कारोबार अकेले सेब से होता है और लगभग 1.15 लाख हेक्टेयर में सेब की बागवानी होती है।

वहीं, कश्मीर की सबसे बड़ी फल मंडी सोपोर में भी इस बार सेब के नुकसान होने का अनुमान लगाया गया है। सोपोर फ्रूट एसोसिएशन के अध्यक्ष फैय्याज अहमद मलिक ने डाउन टू अर्थ को बताया कि सेटिंग के समय अचानक बारिश और तापमान गिरने से मधुमक्खियां बक्शे से बाहर नहीं निकल पाई, जिससे फलों का परागण नहीं हो पाया।

फूलों के परागण से लेकर पौधों में फलों के विकास तक की एक अस्थायी अवस्था को सेटिंग कहा जा सकता है। मलिक का अनुमान है कि परागण न होने के कारण सेबों के उत्पादन में 20 से 30 प्रतिशत का नुकसान हो सकता है।

कश्मीर के बागवानी निदेशालय के तकनीकी अधिकारी मोहम्मद अमीन भट ने डाउन टू अर्थ से कहा कि कश्मीर में लगभग 100 प्रतिशत सेबों में परागण के लिए मधुमक्खियों का ही उपयोग किया जाता है, लेकिन इस बार बारिश और कम तापमान के कारण मधुमक्खियां बाहर ही नहीं निकल पाई, जिस वजह से पर परागण (क्रॉस पॉलीनेशन) ढंग से नहीं हो पाएगा। जिसका असर सेब के उत्पादन पर दिखने लगा है। विभाग आकलन कर रहा है कि इससे कितना नुकसान हो सकता है।

यहां उल्लेखनीय है कि कश्मीर में सेब का सालाना कारोबार 8000 से 10 हजार करोड़ रुपए का है, जो कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का लगभग 10 प्रतिशत है।  

कुल मिलाकर हिमाचल राज्य की अर्थव्यवस्था में अहम भागीदारी निभाने वाले सेब के उत्पादन में मधुमक्खियों की भूमिका बेहद अहम है, लेकिन जलवायु परिवर्तन ने मधुमक्खियों को संकट में डाल दिया है। ऐसा तब हो रहा है, जबकि हिमाचल प्रदेश की देशी मधुमक्खियां पहले ही ना के बराबर रह गई थी और जब राज्य में विदेशी मधुमक्खियों के सहारे बागवानी होने लगी तो अब मौसम ऐसी करवटें ले रहा है कि विदेशी मधुमक्खियां भी बच नहीं पा रही हैं।

मधुमक्खियां कितनी जरूरी

क्या सचमुच मधुमक्खियां हिमाचल प्रदेश जैसे राज्य और उसके निवासियों की आर्थिकी को नुकसान पहुंचा सकती है? मधुमक्खियां फूलों से प्राप्त होने वाले मकरंद व पराग से अपना पेट भरती हैं। लेकिन पराग व मकरंद इकट्ठा करते वक्त मधुमक्खियों को फूलों के कभी मादा व कभी नर भाग पर जाना पड़ता है।

चूंकि मधुमक्खियों के शरीर पर बाल होते हैं, इसलिए इन बालों से चिपक कर पराग व मकरंद नर भाग से मादा भाग तक पहुंच जाता है। डा. यशवंत सिंह परमार औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय के कीट एवं मौनपालन विभाग के जितेंद्र कुमार गुप्ता एवं हरीश कुमार शर्मा द्वारा प्रकाशित पेपर में कहा गया है कि परागण क्रिया में मधुमक्खी सबसे अधिक निपुण कीट है।

एक अनुमान के अनुसार केवल मधुमक्खियों द्वारा परागण होने से कई फसलों की पैदावार 10 से 12 गुणा बढ़ाना संभव है। तमिलनाडु एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी की एक स्टडी बताती है कि मधुमक्खियों से होने वाले परागण से सेब के उत्पादन में 44 प्रतिशत की वृ्दि्ध हुई। 

हिमाचल प्रदेश बागवानी विभाग द्वारा प्रकाशित क्रॉ लोड मैनेजमेंट: पॉलीनेशन रिपोर्ट बताती है कि भारत में दो प्रजातियों का बड़े व व्यवसायिक स्तर पर परागण के लिए उपयोग किया जाता है। उनमें एक एपिस मेलिफेरा, जो इटालियन मधुमक्खी है, जबकि दूसरी एपिस सिराना भारतीय मधुमक्खी है। इनमें से एपिस मेलिफेरा का इस्तेमाल बहुत अधिक होता है, क्योंकि मेलिफेरा सिराना की तुलना में काफी बड़ी होती है।

सिराना आमतौर पर एक किलोमीटर से भी कम दूरी की उड़ान भरती है, जबकि इटालियन मधुमक्खी छह किलोमीटर तक उड़ान भरती है। वहीं तापमान के मामले में भी दोनों मधुमक्खियों में काफी अंतर है। सिराना 16 से 21 डिग्री सेल्सियस के बीच का तापमान होने व कम रोशनी होने पर उड़ती है, जबकि मेलिफेरा 21 से 25 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर उड़ती है।

अपनी इन खूबियों के कारण देशी मधुमक्खियों के मुकाबले ज्यादा फुर्तीली होती है, जो एक मिनट में 25 से 30 फूलों पर पहुंच जाती है। इस वजह से यह मधुमक्खी परागण प्रक्रिया भी तेजी से करती है। जहां तक एपिस सिरेना यानी देसी या पहाड़ी मधुमक्खी की बात है तो यह मधुमक्खी तीन से चार सेकेंड में एक से दूसरे फल पर जाती है और एक मिनट में 20 फूलों को ही परागण कर पाती है। मेलिफेरा मधुमक्खियों को सबसे पहले 1962 में भारत में लाकर हिमाचल प्रदेश के नगरोटा में पाला गया था। तब से इसका इस्तेमाल हिमाचल प्रदेश में बागवानी को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है।

हालांकि यह सही है कि इटालियन मधुमक्खियां फलों के परागण में काफी मददगार साबित हो रही हैं, लेकिन इसकी संख्या बढ़ने के पीछे देशी मधुमक्खियों की संख्या धीरे-धीरे कम होना भी बताया जाता है। प्राकृतिक तौर पर पाए जाने वाले कीटों की संख्या कम होने के कई कारण हैं।

एक प्रमुख कारण जंगलों को काटकर खेती व बागवानी के लिए अपनाना है, जिसके चलते इन कीटों के वास स्थान व भोजन मिलने वाले पौधों में कमी हो गई है। इसके साथ ही कीटनाशक दवाइयों के अंधाधुंध प्रयास से भी प्राकृतिक परागणकर्ता कीटों की संख्या में भारी कमी आई है। लेकिन एक बड़ी वजह मौसम में बदलाव भी है।

बागवान कहते हैं कि हिमाचल प्रदेश के मध्यम उच्च इलाकों में जब तापमान बढ़ने लगा तो देशी मधुमक्खियां बढ़ता तापमान नहीं झेल पाई, जो इटालियन मधुमक्खियों के लिए ठीक था, लेकिन ये मधुमक्खियां कम तापमान नहीं झेल पाती हैं, जिसकारण वह मर जाती हैं।

मार्शल ठाकुर कहते हैं कि मौसम की अनियमितता किसानों-बागवानों के लिए बहुत बड़ी मुसीबत बन गए हैं। इस बार ही उनकी फसल लगभग एक महीने लेट हैं, जबकि दो साल पहले एक महीने ही सेब के फल आने लगे थे।

विशेषज्ञ कहते हैं कि शीतोष्ण फल पौधे जैसे सेब, बादाम, प्लम, नाशपती, चेरी आदि के फूल काफी कम समय के लिए खिलते हैं और इस दौरान अगर मौसम खराब हो जाता है तो प्राकृतिक तौर पर पाए जाने वाले कीट कम पड़ जाते हैं और साथ ही खराब मौसम में वे अपना काम बंद कर देते हैं। इसलिए इन फसलों की परागण क्रिया के लिए मधुमक्खियों का प्रावधान करना आवश्यक हो जाता है।