कृषि

डाउन टू अर्थ खास: मोटे अनाज को बढ़ावा देने के लिए हरित क्रांति जैसी गलती तो नहीं दोहरा रहे हैं हम!

मोटे अनाज को पोषक तत्वों का एक अच्छा स्रोत माना गया है, लेकिन इनकी संकर (हाइब्रिड) किस्में पारंपरिक किस्मों की तरह पोषक नहीं हो सकतीं

Vibha Varshney

भारत की तरफ से संयुक्त राष्ट्र में दिए एक प्रस्ताव के आधार पर वर्ष 2023 को इंटरनेशनल ईयर ऑफ मिलेट्स घोषित किया गया है। वैश्विक स्तर पर मोटे अनाजों का सबसे बड़ा उत्पादक होने के नाते भारत इससे लाभान्वित हो सकता है।

1960 के दशक में हरित क्रांति के बाद से भारत ने गेहूं और धान पर ही ध्यान केन्द्रित कर दिया था। लेकिन, हाल के समय में एक बार फिर मोटे अनाज पर ध्यान जाने से लाभ हासिल हो सकता है। इस पूरे साल के दौरान, कृषि और किसान कल्याण विभाग मोटे अनाजों के उत्पादन और उत्पादकता, खपत, निर्यात और इसे लेकर जागरुकता में वृद्धि सुनिश्चित करने जैसे प्रयास करेगा।

भारत ने 2018 में भी राष्ट्रीय स्तर पर मिलेट्स ईयर मनाया था। तब इसे उच्च पोषण गुणों के कारण “पोषक-अनाज” के रूप में बताया गया। केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर द्वारा 7 फरवरी, 2023 के लोकसभा में एक प्रश्न के जवाब के अनुसार, भारत 2018-19 से मोटे अनाजों के उत्पादन के लिए किसानों को प्रोत्साहन दे रहा है।

तोमर के बयान के अनुसार, ऐसे प्रोत्साहनों में पोषक अनाज को बढ़ावा देने के लिए “नई किस्मों/संकर (हाइब्रिड) प्रजातियों के प्रमाणित बीजों का उत्पादन और वितरण” भी शामिल है।

हरित क्रांति की शुरुआत के बाद से ही भारत में संकर (हाइब्रिड) फसलों का उपयोग शुरू हुआ, जिसका उद्देश्य फसल उत्पादन, विशेष रूप से गेहूं और चावल के उत्पादन में वृद्धि कर खाद्य सुरक्षा हासिल करना था।

पिछले कुछ समय में मोटे अनाज की अधिक उपज देने वाली और रोग-प्रतिरोधी किस्मों को विकसित करने की पहल की गई है। उदाहरण के लिए, 1958 में प्रोजेक्ट्स ऑन इन्टेन्सीफाइड रिसर्च ऑन कॉटन, आयलसीड्स एंड मिलेट्स, 1965 में ऑल इंडिया को-ऑर्डिनेटेड मिलेट इम्प्रूवमेंट प्रोजेक्ट आदि।

कर्नाटक में कृषि जैव-विविधता की सुरक्षा के लिए सहज समृद्धि नाम से एक जन आंदोलन चलाया जा रहा है। इसके निदेशक कृष्ण प्रसाद कहते हैं कि सिर्फ ज्वार (सोरघम) और बाजरा (पर्ल मिलेट) जैसे बड़े दाने वाले मोटे अनाज की संकर किस्मों को ही विकसित किया जा सकता है, जिसमें क्रॉस परागण संभव है।

ज्वार के मामले में, कुल 35 संकर किस्में विकसित की गई हैं, जबकि बाजरा के उच्च उपज और रोग प्रतिरोधी वाले 25 संकर किस्में तैयार की गई हैं। इन दोनों अनाजों के मामले में किसान आमतौर पर संकर किस्मों पर निर्भर रहते हैं।

हालांकि, सवाल यह है कि क्या ये किस्में मोटे अनाजों की मूल किस्मों की तरह ही पौष्टिक हैं।

पोषकता में कमी!

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन (एनआईएन) द्वारा जारी आंकड़ों का जब डाउन टू अर्थ ने विश्लेषण किया तो पता चला कि 1980 और 2010 के बीच मोटे अनाजों की पोषकता में गिरावट आई है। हालांकि इससे कोई स्पष्ट रूझान का पता नहीं चलता।

एनआईएन के “न्यूट्रिटिव वैल्यू ऑफ इंडियन फूड्स” 1989 और “इंडिया फूड कंपोजिशन टेबल्स” 2017 में दी गई जानकारी की तुलना से पता चलता है कि पर्ल मिलेट में कैल्शियम का स्तर नीचे गया है।

इस अवधि के दौरान यह कमी 42 मिलीग्राम प्रति 100 ग्राम से घट कर 27 मिलीग्राम प्रति 100 ग्राम तक की रही। इसी तरह, फास्फोरस का स्तर 296 मिलीग्राम से घटकर 289 मिलीग्राम प्रति 100 ग्राम और आयरन का स्तर 8 मिलीग्राम से 6 मिलीग्राम प्रति 100 ग्राम हो गया है। जबकि ज्वार में कैल्शियम और फास्फोरस का स्तर थोड़ा बढ़ा लेकिन आयरन की मात्रा कम हुई।

मोटे अनाजों के आनुवांशिक गुण परिवर्तनशील होते है (30-140 मिलीग्राम आयरन प्रति किलो और 20-90 मिलीग्राम जिंक प्रति किलो)। इंडियन जर्नल ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज में प्रकाशित 2016 के एक अध्ययन से पता चलता है कि खेती की जा रही सभी व्यवसायिक पर्ल मिलेट के संकर किस्मों में आयरन का औसत स्तर 42 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम है और जिंक का औसत स्तर 31 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम है। यह बताता है कि मिलेट्स की कई संकर किस्में गुणों के मामले में पारंपरिक किस्मों से कमतर हैं।

मोटे अनाजों की ऐसी कई किस्में भी हैं जिन्हें बायोफोर्टिफिकेशन तकनीकों के माध्यम से विकसित किया गया है। इसके तहत प्रजनन और संकरन तकनीकों के माध्यम से बीजों में पोषक तत्वों को बढ़ाया जाता है।

इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर द सेमी-एरिड ट्रॉपिक्स (आईसीआरआईएसएटी) के शोधकर्ताओं द्वारा पर्ल मिलेट किस्मों पर 2019 में किया गया अध्ययन एग्रीकल्चर जर्नल में प्रकाशित हुआ था। इसमें मोटे अनाजों की संकर किस्में जैसे आईसीएमएच 1202, आईसीएमएच 1203 और आईसीएमएच 1301 और बायोफोर्टिफाइड धनशक्ति का विश्लेषण किया गया है।

अध्ययन में पाया गया है कि इन किस्मों में आयरन का स्तर 70-75 मिलीग्राम प्रति किग्रा और जिंक का स्तर 35-40 मिलीग्राम प्रति किग्रा के बीच है। पोषक तत्वों के मामले में यह भी पारंपरिक किस्मों की तुलना में कम है।

ऐसा लगता है कि मोटे अनाज पर हुए दशकों के शोध ने पोषण जैसे महत्वपूर्ण पहलू को नजरअंदाज कर दिया है। खाद्य नीति विश्लेषक और कृषि मुद्दों के विशेषज्ञ देविंदर शर्मा कहते हैं, “पोषण पर बिना किसी विचार के पैदावार बढ़ाने के प्रयासों की आवश्यकता नहीं है, जब दुनिया को खिलाने के लिए पर्याप्त भोजन है।” शर्मा कहते हैं कि अधिक उपज देने वाली और संकर किस्मों की ओर बढ़ने के बजाय यह सुनिश्चित करने के प्रयास किए जाने चाहिए कि मोटे अनाजों को आहार का हिस्सा बनाया जाए।

मोटे अनाज को बढ़ावा देने के लिए व्यापक दृष्टिकोण की भी आवश्यकता है। वर्तमान में देश में 9 किस्म के मोटे अनाज पर शोध किया जा रहा है, जैसे बड़े दाने वाली ज्वार, बाजरा, रागी (फिंगर मिलेट) और कांगनी (फॉक्सटेल मिलेट) के साथ-साथ छोटे दाने वाली कुटकी (लिटल मिलेट), समा (बार्नयार्ड मिलेट), प्रोसो, कोदो और ब्राउनटॉप मिलेट। लेकिन पोएसी ग्रास फैमिली, जो मिलेट्स से संबंधित है, की लगभग 780 किस्में और 12,000 प्रजातियां हैं।

मिलेट्स की कुछ किस्मों को आज भी कुछ खास समुदाय द्वारा संरक्षित किया गया है और उन्हीं के द्वारा इस्तेमाल भी किया जाता रहा है। संबलपुर स्थित किसानों के एक नेटवर्क देसी बिहान सुरक्षा मंच के संयोजक सरोज के अनुसार, ओडिशा में किसान अभी भी केवल पारंपरिक किस्मों की खेती करते हैं।

हालांकि, खेती के तौर-तरीकों में बदलाव से कुछ फसलें बर्बाद हो रही हैं। उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश के बैगा आदिवासी समुदाय के मुख्य आहार का एक हिस्सा सिकिया (डिजिटेरिया सेंगुइनलिस) अब लगभग गायब हो गया है। इन किस्मों की पहचान करने और उन्हें बढ़ावा देने से यह सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी कि मोटे अनाजों का वास्तविक लाभ लोगों तक पहुंचे।