प्रतीकात्मक तस्वीर: आई स्टॉक 
कृषि

क्या केरल में मानसून और तापमान में आता बदलाव धान की गिरती पैदावार के लिए है जिम्मेवार

मानसून में आता बदलाव, अनियमित बारिश, बढ़ता तापमान धान की पैदावार को प्रभावित कर रहे हैं, जो कृषि को किसानों के लिए घाटे का सौदा बना रहा है

Lalit Maurya

धान की फसल जो भारत में करोड़ों लोगों का पेट भरती है, वो पानी की कमी, कीट, मिट्टी की गुणवत्ता में आती गिरावट और बदलते मौसम जैसी अनगिनत चुनौतियों से जूझ रही है। इसका साफ तौर पर असर केरल में भी देखा जा सकता है, जहां पिछले कुछ वर्षों में धान उत्पादन और कृषि क्षेत्र में गिरावट देखी गई है।

देखा जाए तो कहीं न कहीं धीरे-धीरे केरल के किसान धान से मुंह मोड़ रहे हैं।

केरल के डिपार्टमेंट ऑफ इकोनॉमिक्स एंड स्टेटिस्टिक्स द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक जहां वर्ष 2020-21 में बोए गए धान का कुल क्षेत्र दो लाख हेक्टेयर से ज्यादा था, वो 2023-24 के लिए जुलाई 2024 में जारी अंतिम अनुमानों के मुताबिक घटकर 116,951 हेक्टेयर रह गया। मतलब की इसमें करीब 43 फीसदी की गिरावट आई है। इसी तरह जहां केरल में 2020-21 में धान की कुल पैदावार 626,000 टन रही। वहीं अनुमान है कि 2023-24 में यह पैदावार घटकर 328,531.35 टन रह जाएगी। मतलब की इसमें भी करीब 48 फीसदी की गिरावट आने का अंदेशा है।

इसी तरह यदि पिछले वर्ष की तुलना में देखें तो 2023-24 के दौरान केरल में धान के कुल बोए गए क्षेत्र में 74,344 हेक्टेयर की गिरावट आने का अंदेशा है, जबकि इस दुआरण धान की पैदावार में भी 266,460 टन की गिरावट आ सकती है। देखा जाए तो यह आंकड़े इस बात का स्पष्ट सबूत हैं कि पिछले कुछ वर्षों में केरल में न केवल धान का उत्पादन घटा है, साथ ही उसके कृषि क्षेत्र में भी गिरावट आई है।

ऐसे में अमृता विश्व विद्यापीठम से जुड़े शोधकर्ताओं ने केरल में धान की पैदावार में आती गिरावट के कारणों को समझने के लिए एक नया अध्ययन किया है। ताकि इसके कारणों को समझकर भविष्य में धान उत्पादन के सामने आती चुनौतियों को दूर किया जा सके और उसकी पैदावार में इजाफा करने के लिए पर्यावरण अनुकूल रणनीतियां विकसित की जा सकें। शोधकर्ताओं का लक्ष्य उन जगहों पर धान उत्पादन को बढ़ाने के तरीके खोजना है, जहां बदलती जलवायु के साथ किसानों के लिए ऐसा करना कठिन होता जा रहा है।

यह अध्ययन शोधकर्ता के आर श्रीनी और निर्मला वासुदेवन के नेतृत्व में किया गया है। इसके नतीजे इंटरनेशनल कांफ्रेंस ऑन सस्टेनेबल टेक्नोलॉजीस इन सिविल एंड एनवायर्नमेंटल इंजीनियरिंग 2024 के दौरान प्रकाशित किए गए हैं।

दोस्त से दुश्मन बनता मानसून और तापमान

यह अध्ययन केरल के पलक्‍कड़ जिले में स्थित कोलेंगोड में किया गया है। अध्ययन से पता चला है कि पिछले दो वर्षों में, कोलेंगोडे में मानसून के आगमन में दो सप्ताह की देरी देखी गई है। नतीजन किसानों को अपने कृषि के पारंपरिक तौर-तरीकों में बदलाव करना पड़ा है, जैसे कि बीज बोने के समय में बदलाव करना।

शोधकर्ताओं ने इस बात की भी जांच की है कि बारिश, तापमान और खेती के तरीकों में बदलाव धान की पैदावार में गिरावट को कैसे प्रभावित कर रहे हैं।

अध्ययन में जलवायु से जुड़े आंकड़ों, मिट्टी के गुणों और  किसानों से बातचीत करने पर जो निष्कर्ष सामने आए हैं उनसे पता चला है कि धान के सीजन में होने वाली बारिश में उल्लेखनीय गिरावट आई है, जिसके कारण धान की पैदावार घट रही है।

धान की फसलों के लिए फफूंद से जुड़ा रोग, राइस ब्लास्ट भी बड़ी समस्या है जो पूरी धान की फसल को झुलसा देता है। हालांकि हाल के वर्षों में कोलेंगोडे में इसके प्रकोप का न देखा जाना इस बात की ओर इशारा करता है कि वहां धान की पैदावार में आती गिरावट के लिए अन्य कारक जिम्मेवार हैं।

इसी तरह हाल के वर्षों में कोलेंगोडे में कीटों का प्रकोप नहीं हुआ है, ऐसे में उसे पैदावार की गिरावट के लिए जिम्मेवार नहीं माना जा सकता।

इतना ही नहीं अध्ययन के मुताबिक न्यूनतम तापमान में होते इजाफे से दिन और रात के तापमान के बीच का अंतर घट रहा है। ऐसे में अधिकतम और न्यूनतम तापमान के बीच की दूरी भी घट रही है। रिसर्च से पता चला है कि तापमान में आता यह बदलाव धान के पौधे की सांस लेने की क्षमता को प्रभावित कर सकता है जिससे उनकी वृद्धि और उपज पर असर पड़ता है।

शोधकर्ताओं के मुताबिक जिस तरह से मौसम और जलवायु में बदलाव आ रहे हैं उसकी वजह से इस क्षेत्र में कृषि उत्पादन खतरे में पड़ गया है। ऐसे में यदि लम्बे समय के दौरान कृषि की स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए ऐसी रणनीतियों को अपनाना जरूरी है जो इन बदलावों में कारगर साबित हो सकें।

बदलती जलवायु का धान किसान कैसे कर सकते हैं सामना

शोधकर्ताओं ने इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि धान की पैदावार के लिए बहुत ज्यादा पानी की जरूरत होती है। अनुमान है कि प्रति किलोग्राम धान के लिए करीब 5,000 लीटर पानी की जरूरत होती है। पानी की यह मांग भूजल रिचार्ज क्षमता से कहीं ज्यादा है। नतीजन इस क्षेत्र में पानी की उपलब्धते तेजी से घट रही है।

ऐसे में अध्ययन में स्थानीय जल प्रबंधन को बेहतर बनाने की बात कही है ताकि कृषि के लिए पर्याप्त पानी मिल सके। इतना ही नहीं धान की पैदावार को बढ़ावा देने के लिए जलवायु-अनुकूल कृषि पद्धतियों पर ध्यान देना आवश्यक है। रिसर्च के मुताबिक कोलेंगोडे के किसान पहले ही ऐसी पद्धतियों का सहारा ले रही हैं जो पानी को बचा सकती हैं।

लेकिन इनके साथ ही बेहतर सिंचाई प्रणाली, बारिश के पानी को संजोना, मिट्टी में नमी के प्रबंधन के लिए कवर क्रॉपिंग और मल्चिंग जैसी रणनीतियों की मदद ली जा सकती है। यह रणनीतियां जल संरक्षण और उपज में सुधार के लिए मददगार साबित हो सकती हैं।

शोधकर्ताओं के मुताबिक कोलेंगोडे में बारिश के पानी को संजोने की अपार संभावनाएं मौजूद हैं। इसमें पानी को स्टोर करने के लिए बड़े टैंक और कुओं की मदद ली जा सकती है जो भूजल को रिचार्ज करने में मददगार साबित हो सकते हैं।

ऐसे में सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी की उपलब्धता किसानों के लिए वरदान साबित हो सकती है, जो अतिरिक्त फसलों की पैदावार में मदद कर सकती है। इससे न केवल किसानों की आय बढ़ेगी साथ ही कृषि उत्पादन में भी विविधता आएगी।