इलेस्ट्रेशन : योगेंद्र आनंद 
कृषि

जलवायु श्राप का शिकार एक और किसान

पिछले 12,000 वर्षों से मौसम के पूर्वानुमान ने खेती को संभव बनाया। यह मानव सभ्यता के विकास में सबसे निर्णायक बदलाव था। लेकिन क्या अब ऐसा है?

Richard Mahapatra

इस साल दशहरे पर पितबासा नीलकंठ पक्षी को देखने की पारंपरिक रस्म में शामिल नहीं हुए। इस पक्षी को उडिया में टीहा कहा जाता है। मान्यता है कि यह मुराद पूरी करता है और इसी कारण हर साल हजारों लोगों का सैलाब नीलकंठ को देखने और कुछ कामना करने खेतों, बागों और जंगलों की ओर उमड़ता है। लेकिन ओडिशा के मातुपाली गांव के 30 वर्षीय किसान पितबासा उसे देखने नहीं गए। दशहरे के बाद उन्होंने खुद को किसान कहना बंद कर दिया है।

उनका कहना था, “अब मैं कोई कामना नहीं करता।”

सितंबर में लगातार बारिश से उनकी एक हेक्टेयर धान की फसल चौपट होकर खेत में ही पड़ी सड़ रही थी। वह अपने सरकारी किसान कार्ड से खेलते हुए कॉलेज के दिनों को याद कर रहे थे। स्कूल की उन किताबों को देख रहे थे जिनमें लिखा है कि किसान समाज का सबसे सुखी व्यक्ति होता है। उन्हें अपना जीवन चक्र याद आ रहा था जिसमें उन्होंने बीज बोने से लेकर किसान की विधानसभा कहे जाने वाले सरकारी धान खरीद केंद्र में उपज बेचने का लंबा इंतजार किया था।

आजीविका के लिए खेती का चयन उन्होंने खुद किया था। वह धीरे से बोले, “मुझे खेती पसंद थी और इससे आमदनी भी होती थी।” इतिहास में स्नातक करने के बाद वह गांव लौटे और खेती को ही अपना पेशा बना लिया। हालांकि उनके पिता ने खेती न करने की सख्त सलाह दी थी, जिसे उन्होंने नहीं माना। उस वक्त उन्होंने अपने तर्क को मजबूती देने के लिए कहा था, “मानव इतिहास असल में जमीनों और अन्न पैदा करने वाले किसानों की कहानी है।”

दशहरे के एक सप्ताह पहले उन्हें महसूस हो गया था कि उनकी जिंदगी बदलने वाली है। वह कहते हैं, “पूरे सितंबर मैंने एक शब्द सुना। वह था लो प्रेशर। कई सालों से अब हम मॉनसून के बजाय अब लो प्रेशर सिस्टम ही सुन रहे हैं। जब यह सितंबर या अक्टूबर में आता है तो बेतहाशा बारिश करता है और हमारी फसलों को तबाह कर देता है। उन फसलों को जो मेरे भरण पोषण के लिए वार्षिक निवेश होती हैं।”

उन्होंने इस नुकसान का पूरा हिसाब लगा रखा है। पिछले 10 वर्षों में आठ साल उनकी फसल नष्ट हुई है। वह बताते हैं कि केवल नुकसान ही नहीं, फसल को दोबारा उगाने के लिए लिया गया कर्ज भी हर साल बढ़ता जा रहा है। इस वक्त उन पर तीन लाख रुपए का कर्ज है। वह बताते हैं, “जिन दो अच्छे सालों में मैंने खेती की थी, उनसे मैंने हिसाब लगाया कि सिर्फ कर्ज चुकाने में ही चार सामान्य सीजन लग जाएंगे। अगर अपने जीवन-यापन के खर्च को जोड़ दूं तो पूरे दस साल लगेंगे।”

चरम मौसम और असामान्य जलवायु परिस्थितियां अब एक किसान के जीवन का स्थायी हिस्सा बन चुकी हैं। पितबासा की तरह पूरे भारत के किसान अब ऐसे नए मौसम के रहमोकरम पर जी रहे हैं, जिसके साथ जीना या तालमेल बैठाना किसी को नहीं आता।

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वह कहते हैं, “इतिहास की किताबों में हमेशा बारिश और ऋतुओं को निश्चित चीजों की तरह बताया गया।” खेती भी उसी निश्चितता पर फली फूली। पिछले 12,000 वर्षों से मौसम के पूर्वानुमान ने खेती को संभव बनाया। यह मानव सभ्यता के विकास में सबसे निर्णायक बदलाव था। वह मानते हैं, “लेकिन अब ऐसा नहीं है।”

आठ साल पहले अपने अनुभव से सबक लेकर पितबासा ने खेती के पारंपरिक समय जून में बुवाई न करने का फैसला किया, क्योंकि अब मॉनसून समय पर नहीं आता। वह कहते हैं, “जुलाई में भी बारिश छिटपुट थी, इसलिए मैंने आधा महीना निकल जाने दिया। जब आखिरकार बारिश हुई तो मेरे धान के खेत लहलहा उठे। लेकिन बारिश का चरम महीना बन चुके अगस्त में मौसम फिर अस्थिर हो गया। फिर सितंबर में जब पौधों में बालियां आने ही वाली थीं कि इतनी ज्यादा बारिश हुई कि सब कुछ नष्ट हो गया।” यह पैटर्न पूरे भारत में देखा जा रहा है। अब सितंबर का महीना फसलों को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाता है।

पितबासा अब तक यह तय नहीं कर पाए हैं कि आगे क्या करेंगे। उन्होंने बस खेती त्याग दी है। वह भारत के उन 2,000 किसानों में से एक हैं जो प्रतिदिन खेती छोड़ रहे हैं क्योंकि खेती अब लाभदायक नहीं रही। और अब मौसम के बदलते मिजाज ने इसे आत्मघाती पेशा बना दिया है। ऐसे में अगर कोई आजीविका आपके जीवन को ही संभाल न सके, तो फिर उसका मतलब ही क्या रह जाता है?

उन्हें अपने दादाजी की सुनाई एक कहानी याद आती है। वह कहानी एक गांव की थी जिसके सारे किसान वर्षा देवता इंद्र के श्राप से उजड़ गए थे। वह व्यंग्य भरी मुस्कान के साथ कहते हैं, “शायद वह श्राप फिर लौट आया है। इस बार उसका नाम है जलवायु परिवर्तन।”