कृषि

कृषि के आर्थिक मामलों के जानकार बोले : अब खेती को व्यापार की तरह देखने की जरूरत

Anil Ashwani Sharma

केंद्र सरकार ने हाल ही में तीन कृषि विधेयकों को कानून की शक्ल दी है। इन विधेयकों के बाद किसानों ने देशभर में प्रदर्शन किया है और राजनीतिक पार्टियां अब भी इन कृषि विधेयकों के विरोध में हैं। वहीं, कृषि विधेयकों और कृषि के आर्थिक मामलों के जानकार क्या राय रखते हैं? डाउन टू अर्थ ने इन कृषि विधेयकों पर राज्यों के कृषि विश्वविद्यालयों से जुड़े एग्री इकोनॉमिस्ट की राय ली है। कृषि विधेयक के समर्थन और विरोध के बीच इन विशेषज्ञों की राय मिली-जुली रही है। पढ़िए क्या कह रहे हैं एग्री इकोनॉमिस्ट : 

कृषि और औद्योगिक उत्पाद और बाजार में बुनियादी फर्क होता है। कृषि उत्पादों की बात करें तो यह खराब होने वाले होते हैं। इनका उत्पादन सीजन के हिसाब से होता है। कृषि उत्पाद की गुणवत्ता में फर्क होता है साथ ही उपज की मात्रा के हिसाब से यह कहीं बहुत ज्यादा और कहीं बहुत कम भी होते हैं। वहीं, कृषि उपज से जुड़े बाजारों में प्रतिस्पर्धा होती है और व्यापक स्तर पर खरीददार और विक्रेता मौजूद होते हैं। जबकि औद्योगिक उत्पादों के मामले में सिर्फ कुछ विक्रेता होते हैं और कई मामलों में खरीददार बहुत कम होते हैं। कृषि और औद्योगिक उत्पाद व उसके बाजार का यह चारित्रिक विशेषताएं से ही तय होता रहा है कि उत्पादक कीमत लेने वाला है या कीमत बनाने वाला। 

आजादी के बाद से इस परिद्श्य में बदलाव हुए हैं और सरकार की तरफ से सहकारिता बाजार समितियां, नियामक बाजार, भंडारण के गोदाम की स्थापना जैसे कदम उठाए गए हैं। समय-समय पर उठाए गए इन कदमों की वजह ने अतीत में कई बदलाव किए हैं। सहकारिता बजाार के सिद्धांत पर टिका अमूल इसका बेहतरीन उदाहरण हो सकता है। अमूल के साथ लाखों छोटे किसान जुड़े हुए हैं जो मात्रा के हिसाब से बेहद कम उत्पादन करते हैं। वहीं हाल ही में फार्मर्स प्रोड्यूसर ऑर्गेनाइजेशन (एफपीओ) बनाए गए हैं जो किसानों की पहुंच बाजार तक बनाने में मददगार हैं।

हाल ही में पास किए गए तीन कृषि विधेयक कृषि उत्पादों के स्वतंत्र तरीके से मूवमेंट में सहायक होंगे। किसानों के पास उनके उत्पाद को बेचने के लिए काफी विकल्प होंगे। गुणवत्ता और खाद्य सुरक्षा बाजार की संरचना को मजबूत बनाने के लिए निवेश भी आकर्षित होंगे। इसके चलते प्रसंस्करण और कृषि उत्पादों के निर्यात को भी बल मिलेगा। 

 - अशोक के आर, निदेशक, सेंटर फॉर एग्रीकल्चरल एंड रूरल डेवलपमेंट स्टडीज, तमिलनाडु

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भारत में कृषि का जो बुनियादी ढांचा है उसमें 80-85 प्रतिशत किसानों के पास बेहद छोटी कृषि जोत है। इसलिए उनका उत्पादन भी कम होता है। इसकी वजह से वो मोलभाव करने की स्थिति में नहीं होते हैं। अब तक किसानों की उपज एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमेटी के ज़रिये ही रेग्यूलेट होती थी। हम इसे अलग-अलग श्रेणी में नहीं रख सकते कि किसान बिजनेस कर रहा है तो घाटे में जा रहा है और उद्योगपति व्यापार कर रहे हैं तो फायदे में रहते हैं। अगर कोई उद्योगपति व्यापार करता है तो उसकी व्यापार की समझ बेहतर होती है। किसान अपनी प्राथमिक उपज की मार्केटिंग करता है। उद्योगपति उसमें वैल्यू एड करता है। उसकी पैकेजिंग करता है। कोल्ड स्टोरेज की जरूरत है तो वो बनवाता है। पूरे सप्लाई चेन में निवेश करता है। पूरी सप्लाई को कंट्रोल करता है। इसलिए उन्हें ज्यादा फायदा मिलता है। अब हमें खेती को व्यापार की तरह देखना चाहिए। नए कानून में खेती को व्यापार की तरह देखा जा रहा है। जिसमें किसान को अपनी उपज का मूल्य तय करने की छूट दी गई है। उसे मंडी में ही बेचने की बाध्यता खत्म की गई है। किसान को अपनी उपज बेचने के लिए नए विकल्प दिए गए हैं।

- एम एल शर्मा, कृषि के आर्थिक मामलों के जानकार, पंत नगर कृषि विश्वविद्यालय , उत्तराखंड 

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नए तीन कृषि बिल जो आए हैं इसका एक मतलब है कि पहले गांव का व्यापारी किसानों को लूटता थ अब बस इतना अंतर आएगा कि उसे बड़े कारपोरेट घराने लूटेंगे। मेरे मन भी इस बात का डर है कि इस नए कानून के तहत जिस तरह से बड़ी कंपनियों को छूट दी गई है उससे ये सप्लाई को कंट्रोल न करने लगें। इससे उनके हाथों में प्राइज बढ़ाने का मौका मिलेगा। इस नए एग्री ट्रेड के तहत हर हाल में सरकार को अब छोटे या मझौले किसानों को यह बात समझानी होगी कि उसे सस्ते में अपनी उपज नहीं बेचनी है। इस दिशा में सरकार की चुप्पी खतरनाक है। 

डॉ मधु शर्मा, इंस्टीट्यूट ऑफ एग्री बिजनेस मैनेजमेंट, डायरेक्टर, बीकानेर, राजस्थान