कृषि

कृषि शिक्षा से तबाह हुई परंपरागत खेती

देश में कृषि और कृषि शिक्षा पर व्यापक पड़ताल के बाद डाउन टू अर्थ द्वारा एक सीरीज शुरू की गई है। पेश है सीरीज की चौथी कड़ी-

DTE Staff

परंपरागत खेती को बढ़ावा देने वाले पद्मश्री बाबूलाल दहिया वर्तमान कृषि शिक्षा पद्धति को किसानों के लिए हानिकारक बताते हैं, डाउन टू अर्थ ने उनसे बात की, पेश हैं बातचीत के महत्वपूर्ण अंश - 

क्या कृषि शिक्षा से किसान को कोई फायदा हो रहा है?

कृषि शिक्षा से किसानों को कोई फायदा नहीं हो रहा है। बच्चे खेती करने के लिए नहीं पढ़ रहे बल्कि उन्हें इस पढ़ाई के बाद कोई नौकरी मिल जाए बस इसकी फिक्र होती है। हमें उत्पादन बढ़ाना सिखाया जा रहा है, यह नहीं कि खेती जीवनयापन का एक टिकाऊ माध्यम बने।

वैज्ञानिक सलाह से किसानों को क्या फायदा हुआ है?

फायदा नहीं, उल्टा नुकसान हुआ। परंपरागत खेती करने वाले कभी आत्महत्या नहीं करते। किसानों को मालूम है कि तीन साल में एक बार सूखा पड़ सकता है। कभी ओले से फसल खराब हो सकती है। परंपरागत खेती करने वाला किसान इन स्थितियों के लिए तैयार रहता है। कृषि शिक्षा की वजह से परंपरागत खेती तबाह हुई और जिससे किसान आत्महत्या तक करने लगे हैं।

खेती में क्यों नहीं आना चाह रहे युवा?

खेती में किसान एक किलो चावल उपजाने के लिए तीन हजार लीटर पानी खर्च करता है, तब भी उसे मुश्किल से 17 रुपए धान की कीमत मिल पाती है। यह कितना बड़ा अंधेर और कितना बड़ा घाटा है। कोई इस तरह के घाटे का सौदा क्यों करना चाहेगा।

क्या किसान की आमदनी दोगुनी हो सकती है?

उत्पादन कई गुना बढ़ा लेकिन इससे किसानों का कोई फायदा नहीं हो रहा है। उत्पादन जितना बढ़ेगा किसानों को उतना ही नुकसान है। पानी की खपत बढ़ रही जिससे पानी खत्म हो रहा। खेत खराब हो रहे हैं और जैव विविधता भी खत्म हो रही है। किसानों की आमदनी में लगातार होती कमी को समझिए। 70 साल पहले एक सरकारी कर्मचारी 200 रुपए वेतन पाता था, और सोने की कीमत भी 200 रुपए प्रति तोला थी। आज सरकारी कर्मचारी का वेतन लगभग एक तोला सोना के बराबर है, पर धान की कीमत क्या है? अब 25 क्विंटल धान और 25 क्विंटल गेहूं बेचने के बाद उतना सोना खरीद सकते। किसानों की आमदनी दोगुनी नहीं, 90 फीसदी कम हुई है।

क्या भारत कृषि प्रधान देश नहीं रहा?

गांव की व्यवस्था एक सरकार जैसी होती थी। वहां वस्तु विनिमय चलता था। जैसे एक लोहार गांव में 10 किसानों के यहां काम करता था तो उसके पास 50 हजार रुपए की क्रय शक्ति जितना अनाज इकट्ठा हो जाता था। लेकिन वही काम अगर आज कोई करे तो उसके द्वारा मेहनताने में कमाए गए अनाज की कीमत बस तीन हजार रुपए होगी। गांव में हर कोई एक-दूसरे पर इसी तरह निर्भर था और खेती इकोनमी का केंद्र हुआ करती थी। इस व्यवस्था के चौपट होने के बाद जिनती कामगार जातियां थीं, सब पलायन कर गईं। यह देखकर समझ में आता है कि भारत अब वाकई कृषि प्रधान नहीं रह गया है।