नगर पंचायत में शामिल मुराड़ी में लघु सिंचाई योजना के तहत बनी नहरें टूटने के कारण खेतों को पानी नहीं मिल पा रहा है। फोटो: विकास चौधरी 
कृषि

डाउन टू अर्थ ग्राउंड रिपोर्ट: ऐसा नगर जो वापस चाहता है गांव का दर्जा, लेकिन क्यों?

साल 2018 में मुराड़ी ग्राम पंचायत को भंग करके नगर पंचायत में शामिल किया गया था, लेकिन क्या इससे वहां के लोग खुश हुए?

Raju Sajwan

ऐसे समय में, जब देश-दुनिया में शहरीकरण बढ़ता जा रहा है और ग्रामीण भी चाहते हैं कि उनके गांव को शहर में शामिल कर उन्हें शहरी सुविधा मिलें, तब किसी गांव के लोग यह मांग करें कि उन्हें शहर की बजाय ग्रामीण क्षेत्र में ही रखा जाए तो आपका चौंकना लाजिमी है। लेकिन यह सच है। उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के नौगांव नगर पंचायत में शामिल मुराड़ी के लोग चाहते हैं कि उनसे नगर का दर्जा ले लिया जाए और फिर से गांव की श्रेणी में शामिल कर लिया जाए। हालात यह बन गए हैं कि जिस गांव से कभी पलायन नहीं हुआ, लोगों को डर है कि जल्द ही यहां से भी पलायन होने लगेगा। 

उत्तराखंड के प्रमुख धार्मिक स्थल और चार धाम में शामिल यमुनोत्री की ओर जाने वाले राजमार्ग संख्या 94 पर स्थित नौगांव कस्बे को साल 2018 में नगर पंचायत का दर्जा दिया गया था। इसमें मुराड़ी, मुंगरा, नौगांव और धारी ग्राम पंचायत को भंग कर शामिल किया गया था। 

पहले-पहल तो इन गांव के लोगों को लगा कि इससे उनके क्षेत्र का विकास होगा, लेकिन कुछ समय बाद ही उनका भ्रम टूट गया। हाल ही में डाउन टू अर्थ ने नौगांव क्षेत्र का दौरा किया और जब डाउन टू अर्थ मुराड़ी पहुंचा तो वहां के लोगों ने लगभग एक स्वर में कहा कि वे शहरी क्षेत्र से बाहर निकलना चाहते हैं। इसके पीछे के उनके तर्क बेहद वाजिब लगे। 

नगर पंचायत में शामिल होने के बाद लोगों को फायदे की बजाय नुकसान हो रहा है। उनकी आय का प्रमुख स्रोत खेती है, लेकिन नगर पंचायत में कोई भी ऐसा मद नहीं है, जिससे उन्हें खेतीबाड़ी में मदद मिल सके। मुराड़ी गांव के कृष्ण मोहन चंद बताते हैं कि खेती की वजह से उनका गांव बेहद खुशहाल है। उनके गांव में खेती अच्छी होने की वजह है, गांव के लगभग हर खेत तक नहर (कूल) की पहुंच है।

लघु सिंचाई योजना के तहत बनी इन नहरों की देखरेख और मरम्मत का काम ग्राम पंचायत किया करती थी, लेकिन पांच साल पहले जब ग्राम पंचायत भंग कर नगर पंचायत में गांव को शामिल किया गया, तब से सिंचाई का प्रबंधन ही समाप्त हो गया। 

चंद कहते हैं कि लगभग दो किलोमीटर दूर से गुजर रहे एक गदेरे से एक पक्की नहर के जरिए उनके खेतों तक पहुंचता है। यह नहर राजमार्ग को चौड़ा करते वक्त टूट गई, जब इसकी शिकायत नगर पंचायत में की गई तो जवाब मिला कि कृषि या सिंचाई कार्यों के लिए नगर पंचायत के पास बजट नहीं है। इन कार्यों का बजट तो ग्रामीण विकास विभाग या कृषि विभाग के पास होता है। यह सुनकर सभी गांव वाले सकते में आ गए। 

ग्रामीणों ने टूटी हुई नहर डाउन टू अर्थ को दिखाते हुए बताया कि लगभग पांच साल से मुख्य नहर टूटी हुई है। पानी न आने के कारण अब खेतों को जाने वाली छोटी नहरें (कूल) भी जगह-जगह से टूट गई हैं। इस वजह से खेतों की सिंचाई प्रभावित हो रही है। एक महिला ने बताया कि इस बार जनवरी से ही बारिश नहीं हुई। कुछ दिन से  गर्मी भी बहुत ज्यादा पड़ रही है, इसलिए खेतों लगाई गई सब्जियां सूख रही हैं, क्योंकि नहरों में पानी नहीं है। 

चंद बताते हैं कि नहर के अलावा गांव में यमुना से लिफ्टिंग के जरिए भी पानी आता है, लेकिन यह पानी पीने के ज्यादा काम आता है और सिंचाई के लिए पर्याप्त नहीं है। साथ ही, गाद आने के कारण का लिफ्टिंग की सप्लाई कई-कई दिन तक बंद रहती है। 

जब नगर पंचायत ने नगर की मरम्मत करने से इंकार कर दिया तो गांव के युवाओं ने मिलकर यह काम करने की ठानी। गांव के लोगों से लगभग 35 हजार रुपए इकट्ठा किया गया और एक पाइप का इंतजाम किया गया। पाइप जोड़ तो दिया गया, लेकिन पाइप ज्यादा दिन नहीं चला और टूट कर गिर गया। 42 वर्षीय विजय कुमार विश्वकर्मा बताते हैं कि सरकारी मशीनरी के बिना नहर की मरम्मत करना संभव नहीं है। यही वजह है कि ग्रामीण अब सरकार या प्रशासन का ही मुंह ताक रहे हैं। 

मनरेगा का सहारा भी छिना 

ग्राम पंचायत से निकल कर नगर पंचायत में शामिल होने के बाद मुराड़ी के लोगों से मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) का सहारा भी छिन गया। विजय कहते हैं कि गांव के लोगों के लिए मनरेगा से बड़ा सहारा मिलता था।

खेती से होने वाली आमदनी के अलावा समय-समय पर मनरेगा में काम करके भी दिहाड़ी मिल जाती थी। मनरेगा उन लोगों के लिए बड़ा सहारा था, जिनके पास जमीन कम होने के कारण खेती से आमदनी कम होती थी, लेकिन अब उन्हें रोजगार के लिए गांव से दूर या शहर की ओर जाने के अलावा कोई चारा नहीं दिख रहा है।

लोगों का कहना है कि मनरेगा से न केवल मजदूरी मिल जाती थी, बल्कि गांव के कई ऐसे काम भी हो जाते थे, जोकि उनका जीवन आसान करने और आजीविका में मददगार होते थे। खेतों की सुरक्षा दीवार बनानी हो, जल संरक्षण के लिए चाल-खाल बनानी हो, खेतों तक जाने के लिए रास्ते बनाने हों, पशुओं के लिए बाड़े बनाने हों, ये सब काम मनरेगा में हो जाते थे, लेकिन अब यह सब काम भी बंद हो गए हैं। 

जानवरों का आतंक 

उत्तराखंड के अन्य गांवों की तरह मुराड़ी में भी जानवरों का आतंक है। यहां जंगली जानवर बंदर सूअरों के अलावा आवारा मवेशी भी खेतों में खड़ी फसलों व सब्जियों का नुकसान पहुंचा रहे हैं। ग्राम पंचायत में व्यवस्था थी कि ग्राम प्रधान गांव की चौकसी के लिए चौकीदार नियुक्त करता था, लेकिन अब यह व्यवस्था भी खत्म हो गई। लोग कहते हैं कि चौकीदारी न होने के कारण जानवर अकसर उनके खेत तबाह कर रहे हैं। 

कृष्ण मोहन चंद गर्व के साथ कहते हैं कि उनके गांव से कभी पलायन नहीं हुआ। जो लोग सरकारी नौकरी पर भी हैं, वो भी गांव से नाता बनाए हुए हैं। उनके परिवार का कोई न कोई सदस्य खेती जरूर कर रहा है, लेकिन यदि ऐसे ही चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं, जब लोग खेती छोड़ कर गांव से पलायन करने लगें। 

भरने पड़ रहे हैं टैक्स 

नगर पंचायत में शामिल होने के बाद उन्हें कई तरह के टैक्स भी भरने पड़ रहे हैं। जैसे कि उनसे अब गृहकर लिया जा रहा है। पानी और बिजली के बिल की दर भी महंगी हो गई है, जबकि सुविधाओं में कोई सुधार नहीं हुआ है। मकान बनाना हो तो उसका नक्शा बनवाना पड़ता है, जिस पर खर्च आता है। ग्रामीण क्षेत्र में इस तरह की कोई व्यवस्था नहीं थी। हां, इतना जरूर है कि जिन लोगों के पास राजमार्ग के नजदीक जमीन थी, वो लोग बड़ी कीमतों पर जमीन बेेच रहे हैं, लेकिन उस जमीन पर बन रहे होटल, गेस्ट हाउस के मालिक गांव के ही संसाधनाें का इस्तेमाल कर रहे हैं। जैसे कि वे लोग पानी उन्हीं स्रोतों से ले रहे हैं, जिन स्रोतों से मुराड़ी वासियों को पानी मिलता है।