कृषि

भारी कृषि यंत्रों से 20 फीसदी खेतों को हो सकता है नुकसान, वैज्ञानिकों ने चेताया

कृषि में प्रयोग की जा रही यह भारी मशीनें किसी डायनासोर से कम नहीं जो बड़ी बेरहमी से मिट्टी को रौंद रही हैं, जिसका सीधा असर मिट्टी की उर्वरकता पर पड़ रहा है

Lalit Maurya

क्या आपने कभी सोचा है कि जो कृषि यंत्र और मशीनें किसानों की साथी हैं वो उनकी कृषि उत्पादकता में कमी का कारण भी बन सकती हैं। इस पर स्वीडन में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि कृषि मशीनों के बढ़ते वजन के चलते वैश्विक स्तर पर करीब 20 फीसदी कृषि भूमि को नुकसान हो सकता है।

इसमें कोई शक नहीं कि इन कृषि यंत्रों और मशीनीकरण ने आधुनिक कृषि की सफलता में बहुत बड़ा योगदान दिया है। जिसकी वजह से कृषि उत्पादकता में काफी इजाफा हुआ है। पर आज जिस तरह उस मशीनीकरण का दुरूपयोग होने लगा है, कृषि में मशीनों का बढ़ता वजन इसका ही एक उदाहरण है। अब इन मशीनों का वजन इतना ज्यादा हो गया है कि यह मिट्टी की सुरक्षित यांत्रिक सीमाओं को पार कर गया है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि जिस तरह से कृषि में भारी मशीनों जैसे आधुनिक कंबाइन हार्वेस्टर, ट्रैक्टर आदि का वजन बढ़ रहा है वो मिट्टी को कहीं ज्यादा नुकसान पहुंचा रहा है जिसका खामियाजा किसानों को उत्पादकता के रूप में चुकाना पड़ सकता है। शोधकर्ताओं के मुताबिक यह मशीनें किसी विशाल डायनासोर से कम नहीं हैं जो बड़ी तेजी से मिट्टी को रोंद रही हैं। इस अध्ययन से जुड़े नतीजे उनका जर्नल प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज (पनास) में प्रकाशित हुए हैं।

समय के साथ कहीं ज्यादा भारी हो गई हैं कृषि से जुड़ी मशीनें

वैज्ञानिकों के मुताबिक दुनिया का जो सबसे ज्यादा बड़ा डायनासोर था उसका वजन करीब 60 टन था जोकि करीब-करीब एक भरे हुए आधुनिक कंबाइन हार्वेस्टर के वजन के बराबर ही होता है। इसी तरह खेती में इस्तेमाल होने वाली मशीनों जैसे ट्रैक्टर आदि का वजन भी पहले की तुलना में पिछले 60 वर्षों में कहीं ज्यादा भारी हो गया है, क्योंकि आज बड़े पैमाने पर सघन कृषि की जा रही है, जिसके लिए मजदूरों की जगह बड़ी मशीनों की मदद ली जा रही है। अनुमान है कि आज एक कंबाइन हार्वेस्टर 1960 के दशक की तुलना में करीब 10 गुना ज्यादा भारी है, जोकि 1958 में 4,000 किलोग्राम से बढ़कर 2020 में करीब 36,000 किलोग्राम हो गया है।

देखा जाए तो चाहे जानवर हो या भारी मशीनें उनका वजन मायने रखता है क्योंकि समय के साथ मिट्टी एक सीमा तक ही दबाव झेल सकती है। उसके बाद वो संकुचित होने लगती है। मिट्टी की आंतरिक संरचना बड़ी जटिल और नाजुक होती है। साथ ही उससे जुड़ा पारिस्थितिक तंत्र बड़ा संवेदनशील होता है। मिट्टी के बीच छोटे-छोटे छिद्र और रास्ते होते हैं, जिनके बीच से हवा और पानी निकल सकते हैं।

यही छिद्र और खाली जगहें पौधों की जड़ों और मिट्टी में मौजूद अन्य जीवों तक हवा और पानी को पहुंचने का रास्ता देती हैं। ऐसे में मिट्टी पर इन मशीनों का बढ़ता दबाव न केवल मिट्टी की ऊपरी परत बल्कि गहराई तक उसको संकुचित कर देता है। 

नतीजन इसकी वजह से जहां मिट्टी की उत्पादक क्षमता घट जाती हैं वहीं बाढ़ का खतरा भी बढ़ जाता है क्योंकि जमीन ज्यादा पानी नहीं सोख पाती और वो सतह से बहकर तेजी से जल मार्गों तक पहुंच जाता है, जिसकी वजह से बाढ़ की सम्भावना बढ़ जाती है।

इसके वैश्विक प्रभाव को समझने के लिए वैज्ञानिकों ने होते मशीनीकरण, ट्रैक्टर के औसत आकार, मिट्टी की बनावट और जलवायु परिस्थितियों के आधार पर मिट्टी की ऊपरी सतह और गहराई पर पड़ने वाले असर का एक मानचित्र तैयार किया है। पता चला है कि इसकी वजह से दुनिया की 20 फीसदी कृषि भूमि पर खतरा मंडरा रहा है।

वैज्ञानिकों के अनुसार भले ही सतह पर इन आधुनिक मशीनों का प्रभाव न दिखता हो और वो स्थिर हों। लेकिन भूमिगत तनाव गहराई में मिट्टी की परतों में फैल गया है, जो मिट्टी के इकोसिस्टम के लिए सुरक्षित यांत्रिक सीमाओं को पार कर गया है। अनुमान है कि इसका सबसे ज्यादा असर यूरोप, उत्तर एवं दक्षिण अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में सामने आएगा जहां कृषि में बड़े पैमाने पर भारी मशीनों का इस्तेमाल किया जा रहा है।

वहीं यदि भारत और चीन की बात करें तो वहां बड़े पैमाने पर मशीनीकरण के चलते ट्रैक्टरों की संख्या में तेजी से तेजी से इजाफा हुआ है। लेकिन इन दोनों देशों में अधिकांश खेत आज भी छोटे हैं, जिनके लिए छोटे ट्रैक्टरों की आवश्यकता होती है। यही वजह है कि भारत को इस इंडेक्स में कम खतरे वाले क्षेत्रों में दर्शाया गया है।

ऐसे में कृषि उत्पादकता और मिट्टी को होने वाले संभावित नुकसान से बचाने के लिए यह जरुरी है कि कृषि में उपयोग होने वाली मशीनों के डिजाईन में व्यापक फेरबदल किए जाएं, जिससे मिट्टी पर बढ़ते जरुरत से ज्यादा दबाव को सीमित किया जा सके।