कृषि

हर साल वातावरण में प्रवेश कर रही 200 करोड़ टन धूल और रेत, चौथाई के लिए जिम्मेवार इंसानी गतिविधियां

Lalit Maurya

हवा में मौजूद जिस धूल और रेत को हम अक्सर नजरअंदाज कर देते हैं, वो अपने आप में एक बड़ी समस्या बन चुकी है। यूएनसीसीडी रिपोर्ट से पता चला है कि हर साल 200 करोड़ टन धूल और रेत हमारे वातावरण में प्रवेश कर रही है। तादाद में यह कितनी ज्यादा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस धूल और रेत का कुल वजन गीजा के 350 महान पिरामिडों के बराबर है।

इतना ही नहीं यूएन कन्वेंशन टू कॉम्बैट डेजर्टिफिकेशन (यूएनसीसीडी) का कहना है कि धूल और रेत भरे तूफानों की करीब 25 फीसदी घटनाओं के लिए इंसानी गतिविधियों को जिम्मेवार ठहराया जा सकता है। इनमें खनन और जरूरत ज्यादा की जा रही पशु चराई के साथ भूमि उपयोग में आता बदलाव, अनियोजित कृषि, जंगलों का होता विनाश, जल संसाधनों का तेजी से किया जा रहा दोहन जैसी गतिविधियां शामिल है।

यूएनसीसीडी ने यह भी चेताया है कि धूल और रेत भरे यह अंधड़ दुनिया के कई हिस्सों में अब पहले से कहीं ज्यादा हावी हो चुके हैं, जो उत्तर और मध्य एशिया से लेकर उप-सहारा अफ्रीका तक में भारी तबाही की वजह बन रहे हैं। इनकी वजह से न केवल भूमि की उत्पादकता पर असर पड़ रहा है। साथ ही दुनिया को कृषि और आर्थिक रूप से भी भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है।

बता दें कि नीतिगत सुझावों के साथ, यह चेतावनी उज्बेकिस्तान के समरकंद में चल रही यूएनसीसीडी की पांच दिवसीय बैठक के दौरान सामने आई है। 13 से 17 नवंबर 2023 के बीच आयोजित इस बैठक का मकसद कन्वेंशन को लागू करने के बाद दुनिया भर में भू-क्षरण को पलटने की दिशा में हुई हालिया प्रगति का जायजा लेना है।

गौरतलब है कि इन धूल और रेत भरी आंधियों को दुनिया भर में सिरोको, हबूब, पीली धूल, सफेद तूफान या हरमट्टन जैसे कई स्थानीय नामों से जाना जाता है। यह अंधड़ आमतौर पर निम्न अक्षांश वाले शुष्क और उप-आर्द्र क्षेत्रों में बनते हैं जहां वनस्पति का आवरण विरल या पूरी तरह नदारद होता है। देखा जाए तो यह न केवल स्वास्थ्य और जीविका को प्रभावित करते हैं बल्कि साथ ही पर्यावरण पर भी गहरा प्रभाव डालते हैं।

इतना ही नहीं यह घटनाएं कृषि और आर्द्र परिस्थितियों वाले उच्च अक्षांशीय क्षेत्रों में जब हवा और वातावरण की परिस्थितियां मेल खाती हो तो हो सकती हैं। यूएनसीसीडी के मुताबिक यह हजारों किलोमीटर तक अपना प्रभाव छोड़ सकती हैं।

बता दें कि इन धूल भरी आंधियों में मौजूद धूल और रेत के कण का व्यास 0.05 मिलीमीटर से कम होता है, जिसके कारण इन्हें हजारों किलोमीटर तक ले जाया जा सकता है, वहीं रेतीले तूफान के कण इनसे अलग और आकार में बड़े होते हैं और जो ज्यादा से ज्यादा कुछ किलोमीटर तक की ही यात्रा कर सकते हैं।

यह हमारे स्वास्थ्य को किस कदर नुकसान पहुंचा रहे हैं इस बारे में हालांकि बेहद कम जानकारी उपलब्ध है। लेकिन अस्थमा और सांस से जुड़ी अन्य बीमारियों से पीड़ित लोगों के लिए यह धूल भरी आंधियां जानलेवा साबित हो सकती हैं। यूएनसीसीडी के नए डैशबोर्ड में दर्शाए हालिया आंकड़ों से पता चला है कि इन रेत और धूल भरी आंधियों के चलते दुनिया हर साल करीब 10 लाख वर्ग किलोमीटर स्वस्थ और उपजाऊ जमीन खो रही है। इसका सीधा असर खाद्य सुरक्षा और पोषण पर पड़ रहा है।

सतत विकास के 11 लक्ष्यों को प्रभावित कर रही हैं यह धूल भरी आंधियां

2015 से 2019 के आंकड़ों को देखें तो अब तक करीब 42 लाख वर्ग किलोमीटर जमीन इसकी भेंट चढ़ चुकी है, जो आकार में करीब पांच मध्य एशियाई देशों कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उज्बेकिस्तान के कुल क्षेत्रफल के बराबर है।

यदि इसने होने वाले आर्थिक नुकसान को देखें तो उनके बारे में पूरी जानकारी उपलब्ध नहीं है। लेकिन पता चला है कि यह घटनाएं हर साल कुवैत के तेल क्षेत्र को हर साल करीब 19 करोड़ डॉलर का नुकसान पहुंचा रही हैं। वहीं 2009 में ऐसी ही एक घटना के चलते ऑस्ट्रेलिया को 23 से 24 करोड़ डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा था।

गौरतलब है कि 2022 में, इन धूल भरी आंधियों ने तुर्की से लेकर ओमान तक कई देशों को प्रभावित किया था, विशेषकर इराक पर इसने बेहद गंभीर प्रभाव डाला था। आंकड़े दर्शाते हैं कि अप्रैल से 13 जून, 2022 के बीच इराक में धूल भरी दस आंधियां आई थी, जिनकी वजह से 5,000 से ज्यादा लोगों को अस्पताल में भर्ती करना पड़ा था। इतना ही नहीं अफ्रीका से उठने वाली धूल साल दर साल अमेरिका और कई अन्य देशों में वायु गुणवत्ता और मौसम को प्रभावित करती है।

एशिया-पैसिफिक क्षेत्र के लिए बनाए संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक आयोग ने अगस्त 2021 में जारी अपनी एक रिपोर्ट में खुलासा किया है कि भारत में करीब 50 करोड़ से ज्यादा लोग और तुर्कमेनिस्तान, पाकिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान और ईरान की करीब 80 फीसदी आबादी इन रेत और धूल भरी आंधियों के चलते वायु गुणवत्ता में आती गिरावट का सामना करने को मजबूर हैं।

यूएनसीसीडी के अनुसार खनिज धूल के प्राथमिक वैश्विक स्रोत उत्तरी गोलार्ध में केंद्रित हैं। यह क्षेत्र उत्तरी अफ्रीका, मध्य पूर्व और पूर्वी एशिया तक फैला हुआ है। वहीं दक्षिणी गोलार्ध में धूल के मुख्य स्रोत ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका में हैं। इतना ही नहीं मध्य एशिया का 80 फीसदी से अधिक हिस्सा रेगिस्तानों और मैदानों से ढका है, जो जलवायु परिवर्तन और लंबे समय तक पड़ते सूखे के कारण रेत और धूल भरी आंधियों में महत्वपूर्ण योगदान देता है।

इसी तरह सूखा पड़ा अरल सागर भी इन धूल भरी आंधियों में प्रमुख रूप से योगदान देता है, जिसकी वजह से सालाना 10 करोड़ टन से अधिक धूल और हानिकारक लवण पैदा होते हैं। यह न केवल स्थानीय लोगों के स्वास्थ्य को प्रभावित करते है बल्कि साथ ही इसके प्रभाव इससे कहीं तक दर्ज किए गए हैं, जिनसे हर साल करीब 4.4 करोड़ अमेरिकी डॉलर का नुकसान होता है।

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क्या कुछ किए जा सकते हैं इनसे निपटने के उपाय

यूएनसीसीडी के कार्यकारी सचिव इब्राहिम थियाव का इस बारे में कहना है कि, "आकाश को धूमिल करते रेत और धूल के विशाल बादलों द्वारा दिन को रात में बदलते देखना प्रकृति के सबसे भयावह दृश्यों में से एक है।" उनके मुताबिक यह एक ऐसी घटना है जो उत्तरी और मध्य एशिया से लेकर उप-सहारा अफ्रीका तक हर जगह कहर बरपाती है।

उनका आगे कहना है कि रेत और धूल भरे यह अंधड़ सतत विकास की राह में भी विकट चुनौतियां पेश कर रहे हैं।" हालांकि उनके मुताबिक जिस तरह इंसानी गतिविधियां इन आंधियों में इजाफा कर रही हैं, उसी तरह इन्हें इंसानी प्रयासों से कम भी किया जा सकता है।

विशेषज्ञों के मुताबिक वैसे तो रेत और धूल भरी यह आंधियां क्षेत्रीय और मौसमी प्राकृतिक घटना है। लेकिन जिस तरह से भूमि और जल का उचित प्रबंधन नहीं किया जा रहा उससे यह समस्या विकराल रूप ले चुकी है। साथ ही इनको बढ़ाने में जलवायु परिवर्तन और सूखे ने भी आग में घी का काम किया है।

विशेषज्ञों का अनुमान है कि जिस तरह से इनकी तीव्रता, परिमाण या अवधि में उतार-चढ़ाव आ रहा है वो इन्हें अप्रत्याशित और खतरनाक बना सकता है। हालात यह हैं कि कुछ क्षेत्रों में, तो पिछली शताब्दी में रेगिस्तानी धूल दोगुनी हो गई है।

यूएनसीसीडी के मुताबिक  इन धूल और रेत भरी आंधियां के पड़ते व्यापक प्रभाव सतत विकास के 17 में से 11 लक्ष्यों को प्रभावित कर रहे हैं। हालांकि इनकी जटिलता, मौसमी प्रभाव और आंकड़ों की कमी के कारण खतरे के रूप में इनके बारे में अभी भी वैश्विक जागरूकता की कमी है।

इतना ही नहीं इन आंधियों के स्रोतों और प्रभावों के बारे में पर्याप्त जानकारी और प्रभावी आंकलन की कमी इनसे निपटने की राह में चुनौतियां पैदा कर रही हैं। इनकी वजह से उचित निर्णय लेने और योजनाएं बनाने में दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।

चूंकि यह घटनाएं सीमाओं के परे हजारों किलोमीटर के दायरे को प्रभावित कर सकती हैं। ऐसे में इनसे निपटने के लिए क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर मिलकर नीतियां बनाना बेहद जरूरी है। इसमें इनके स्रोतों से निपटने से लेकर प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली और निगरानी पर ध्यान देना भी महत्वपूर्ण है।

विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) का भी कहना है कि इन रेत और धूल भरी आंधियों से निपटने के लिए एकीकृत दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इसमें भूमि के स्थाई प्रबंधन से लेकर जलवायु शमन और अनुकूलन के साथ-साथ प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग सहित आपदा जोखिम में कमी जैसे उपाय शामिल हैं।