धूल से भरा आसमान, दम घोंटती हवा और अरबों डॉलर का नुकसान, ये किसी फिल्म की स्क्रिप्ट नहीं, विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) की ताजा रिपोर्ट में सामने आया सच है। यह सच अब पूरी दुनिया पर भारी पड़ रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक 150 देशों के करीब 33 करोड़ लोग इन धूल भरे रेतीले तूफानों से प्रभावित हैं, जो उनकी सेहत पर गहरा असर डाल रहा है।
इतना ही नहीं इन धूल भरे तूफानों से वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी करोड़ों डॉलर की चपत लग रही है।
इस बारे में डब्ल्यूएमओ की महासचिव सेलेस्टे साउलो का कहना है, "रेत और धूल भरे यह तूफान सिर्फ गंदी खिड़कियां या धुंधला आसमान ही नहीं लाते। ये करोड़ों लोगों की सेहत और जीवन गुणवत्ता को भी नुकसान पहुंचाते हैं। इतना ही नहीं यह परिवहन, कृषि और सौर ऊर्जा उत्पादन में बाधा डालकर करोड़ों डॉलर का नुकसान भी कर रहे हैं।"
डब्ल्यूएमओ ने अपनी रिपोर्ट में चेताया है कि अगर हम समय रहते नहीं चेते, तो ये उड़ती धूल बर्बादी की आंधी में बदल सकती है। ऐसे में इन तूफानों की निगरानी, पूर्वानुमान और समय पर चेतावनी देना अब पहले से कहीं ज्यादा जरूरी हो गया है।
यह रिपोर्ट 12 जुलाई को ‘रेत और धूल के तूफानों से मुकाबले के अंतरराष्ट्रीय दिवस’ के अवसर पर जारी की गई। इस दिवस की घोषणा संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2023 में की थी, ताकि इन तूफानों के खतरनाक असर को कम करने और वैश्विक सहयोग को बढ़ावा देने के प्रयासों को मजबूती मिल सके।
वातावरण में प्रवेश कर रही 200 करोड़ टन धूल
यह समस्या किस कदर गंभीर है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हर साल 200 करोड़ टन धूल और रेत हमारे वातावरण में प्रवेश कर रही है।
यह धूल कितनी ज्यादा है, इसी बात से समझा जा सकता है कि इस धूल और रेत का कुल वजन गीजा के 307 महान पिरामिडों के बराबर है। देखा जाए तो यह महज आंकड़ा नहीं, बल्कि उस आपदा का पैमाना है जो साल दर साल हमारी सेहत, हवा, खेती और अर्थव्यवस्था को निगल रहा है।
आंकड़ों के मुताबिक वातावरण में पहुंचने वाली 80 फीसदी से ज्यादा धूल उत्तर अफ्रीका और मध्य पूर्व के रेगिस्तानों से उठती है और हजारों किलोमीटर दूर महाद्वीपों और समुद्रों को पार कर फैल जाती है।
हालांकि यह प्रक्रिया कुछ हद तक प्राकृतिक है, लेकिन इसमें खराब भूमि और जल प्रबंधन, सूखा और पर्यावरणीय क्षरण जैसी इंसाओं द्वारा पैदा की जा रही समस्याएं भी अहम भूमिका निभा रही हैं।
डब्ल्यूएमओ रिपोर्ट के मुताबिक, 2024 में सबसे ज्यादा धूल चाड में दर्ज की गई, जहां हवा में धूल की औसत मात्रा 800 से 1,100 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर रही। इसका कारण बोदेले डिप्रेशन है, जो दुनिया में धूल के सबसे बड़े स्रोतों में से एक है। वहीं दक्षिणी गोलार्ध में, सबसे ज्यादा धूल मध्य ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका के पश्चिमी तटीय इलाकों में देखी गई।
रिपोर्ट में इस बात का भी खुलासा हुआ है कि 2024 में वैश्विक स्तर पर औसतन धूल की मात्रा 2023 के मुकाबले थोड़ी कम रही, लेकिन क्षेत्रीय स्तर पर इसका असर कहीं ज्यादा गंभीर रहा। जो इलाके सबसे ज्यादा प्रभावित हुए, वहां 2024 में सतह के पास धूल की मात्रा 1981 से 2010 के औसत से भी अधिक रही।
रिपोर्ट में उन क्षेत्रों पर भी प्रकाश डाला है कि जहां धूल के लंबी दूरी तक फैलने से सबसे ज्यादा असर पड़ता है, इनमें पश्चिम अफ्रीका और कैरिबियन के बीच का उत्तरी अटलांटिक महासागर, दक्षिण अमेरिका, भूमध्य सागर, अरब सागर, बंगाल की खाड़ी और मध्य-पूर्वी चीन के हिस्से शामिल हैं। 2024 में तो अफ्रीका से उठी धूल हवा के जरिए कैरिबियन सागर तक पहुंच गई थी, जिससे वहां के वातावरण और वायु गुणवत्ता पर गंभीर असर पड़ा।
380 करोड़ हुए प्रभावित
इसके सेहत पर पड़ने वाले असर को देखें तो डब्ल्यूएमओ और विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक 2018 से 2022 के बीच करीब 380 करोड़ लोग यानी दुनिया की करीब आधी आबादी धूल के खतरनाक स्तर के संपर्क में आई थी।
यह आंकड़ा 2003 से 2007 के मुकाबले 31 फीसदी अधिक है। मतलब की कहीं न कहीं यह खतरा लगातार पैर पसार है। जब 290 करोड़ लोग (करीब 44.5 फीसदी आबादी) इससे प्रभावित हुई थे।
हालांकि धूल के संपर्क में आने की अवधि अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग रही। कुछ जगहों पर धूल का असर महज कुछ दिनों तक रहा, तो कुछ में पांच वर्षों के दौरान 87 फीसदी समय यानी 1600 से ज्यादा दिनों तक लोग इसके संपर्क में रहे। यह यह जानकारी लैंसेट रिपोर्ट में सामने आई है।
एक अमेरिकी अध्ययन के मुताबिक, सिर्फ अमेरिका में 2017 के दौरान धूल और हवा से हुए कटाव से 154 अरब डॉलर का नुकसान हुआ, जो 1995 के मुकाबले चार गुना अधिक है।
डब्ल्यू रिपोर्ट के मुताबिक 2024 में आए धूल भरे रेतीले तूफानों में स्पेन के कैनरी द्वीप में आया तूफान शामिल है। इस दौरान सहारा के रेगिस्तानी इलाकों से आई धूल ने पूरे द्वीप को ढंक लिया था।
इसी तरह पूर्वी एशिया में 14 तूफान आए थे, इनमें से ज्यादातर बसंत के दौरान देखे गए। मार्च में मंगोलिया से उठे ऐसे ही एक तूफान के साथ आई भारी धूल ने उत्तरी चीन के घनी आबादी वाले क्षेत्रों को अपनी गिरफ्त में ले लिया। इस दौरान बीजिंग में पीएम10 स्तर 1,000 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से ऊपर चला गया, जबकि दृश्यता घटकर एक किलोमीटर रह गई।
वहीं जून में बीजिंग और उत्तरी चीन में गर्मियों के दौरान धूल का एक दुर्लभ तूफान आया। मंगोलिया में तेज गर्मी और सूखे की वजह से पौधों की वृद्धि कमजोर पड़ गई, जिससे धूल भरे तूफानों की तीव्रता बढ़ गई। यह घटना बदलती जलवायु के साथ गर्मी में बढ़ने वाले तूफानों की ओर संकेत करती है।
इराक, कुवैत, कतर और अरब प्रायद्वीप में दिसंबर में सर्दियों के दौरान एक भीषण धूल भरा तूफान आया। इसका सामाजिक-आर्थिक रूप से काफी प्रभावित किया। इसके चलते उड़ानें रद्द करनी पड़ी, स्कूल बंद किए गए और कई सार्वजनिक कार्यक्रम टालने पड़े।
देखा जाए तो हवा में मौजूद जिस धूल और रेत को हम अक्सर नजरअंदाज कर देते हैं, वो अपने आप में एक बड़ी समस्या बन चुकी है। यूएनसीसीडी ने भी चेताया है कि धूल और रेत भरे यह अंधड़ दुनिया के कई हिस्सों में अब पहले से कहीं ज्यादा हावी हो चुके हैं, जो उत्तर और मध्य एशिया से लेकर उप-सहारा अफ्रीका तक में भारी तबाही की वजह बन रहे हैं।
इनकी वजह से न केवल भूमि की उत्पादकता पर असर पड़ रहा है। साथ ही दुनिया को स्वास्थ्य, कृषि और आर्थिक रूप से भी भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है।
हालिया आंकड़ों से भी पता चला है कि बढ़ते मरुस्थलीकरण, रेत और धूल भरी आंधियों के चलते दुनिया हर साल करीब 10 लाख वर्ग किलोमीटर स्वस्थ और उपजाऊ जमीन खो रही है। इसका सीधा असर खाद्य सुरक्षा और पोषण पर पड़ रहा है।
इस संकट से निपटने के लिए, विश्व मौसम संगठन ने 2007 में 'चेतावनी और मूल्यांकन प्रणाली' की शुरुआत की थी। इसका मकसद वैश्विक स्तर पर मौसम पूर्वानुमान और चेतावनी सेवाओं को बेहतर बनाना है, ताकि इन तूफानों से पर्यावरण, स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले गंभीर प्रभावों को कम किया जा सके।