कृषि

एक हेक्टेयर से कम जमीन पर लगाते हैं 15 फसलें, किसानों के लिए बने मिसाल

कृषि वानिकी हजारों वर्ष पुरानी पद्धति है जो मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार के साथ-साथ किसानों की आमदनी भी बढ़ा सकती है

आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले के थामैया डोड्डी गांव में रहने वाले पुतरालापल्ली रमेश और कार्री उमेश एक हेक्टेयर से कम क्षेत्र में फैले अपने खेतों की एक-दूसरे की मदद से देखभाल करते हैं। उनके हरे-भरे खेतों में लगभग 15 फसलें हैं जो 5 परतों में विभक्त हैं।

इनमें जमीन के नीचे बिछी मूली से लेकर जमीन के ऊपर उगने वाली झाड़ियां व बेलें जैसे बैंगन, मिर्च, धनिया, तोरई, सेम से लेकर विभिन्न ऊंचाई वाले केले, पपीता, सहजन और सुपारी के पेड़ शामिल हैं। खेत के किनारों पर सबसे लंबे नारियल और टीक के पेड़ पंक्तिबद्ध हैं।

हाल ही में रोपे गए सुपारी के पौधे जो पांच वर्ष में फसल देने लगेंगे, को दिखाते हुए रमेश बताते हैं कि सुपारी और मिर्च लगाने का उद्देश्य व्यवसायिक है जबकि अन्य फसलें रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए हैं।

थामैया डोड्डी में लगभग 60 किसान हैं जिनमें से अधिकांश सीमांत हैं और उनके पास 0.8 से 1.2 हेक्टेयर के खेत हैं। गांव के कुल 96 हेक्टेयर खेत में से लगभग 80 हेक्टेयर असिंचित अथवा वर्षा आधारित हैं। इसके बावजूद यहां के किसान पूरे साल पोषण की जरूरतों को पूरा कर पा रहे हैं और व्यवासयिक रूप से भी सफल हैं।

किसान अपनी सफलता का श्रेय प्राकृतिक खेती को देते हैं जो खेती का एक ऐसा रूप है जो रासायनिक कीटनाशकों और उर्वरकों के उपयोग को खत्म करके मिट्टी की गुणवत्ता, उपज और किसानों की आय में सुधार करता है।

आंध्र प्रदेश सरकार ने जब 2015 में अपनी शून्य बजट प्राकृतिक खेती परियोजना (जिसे आंध्र प्रदेश समुदाय प्रबंधित प्राकृतिक खेती के रूप में जाना जाता है) शुरू की थी, तब थामैया डोड्डी इसे अपनाने वाले शुरुआती गांवों में शामिल था। इसके सात साल बाद थामैया डोड्डी इस बात का बेहतरीन उदाहरण बनकर उभरा है कि प्राकृतिक खेती को सफलतापूर्वक कैसे किया जा सकता है।

यहां के कई किसान बहुस्तरीय कृषि वानिकी की ओर बढ़े हैं। इसमें पेड़ों का वार्षिक व सदाबहार पौधों से अस्थायी संबंध होता है और यह अक्सर पशुधन के साथ एकीकृत होती है। खेती की यह प्रणाली कई कृषि-पारिस्थितिकी लाभ प्रदान करती है।

कृषि वानिकी नवीनतम वैज्ञानिक तकनीकों के साथ स्थानीय पारिस्थितिक समझ को प्रभावी ढंग से एकीकृत करने पर निर्भर होती है। सहभागी योजनाएं और खुली चर्चाएं समुदायों को उनकी स्थानीय आवश्यकताओं के आधार पर पद्धति को विकसित करने में सशक्त बनाती हैं जबकि सरकारी निकाय या सिविल सोयायटी जैसे बाहरी निकाय मार्गदर्शक के रूप में काम कर सकते हैं।

यही कारण है कि इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) एग्रोइकोलॉजी (कृषि पारिस्थितिकी) को एक समग्र दृष्टिकोण के रूप में परिभाषित करता है, साथ ही इसे उत्सर्जन कम करने और जलवायु अनुकूलन की मुख्य रणनीति मानता है।

कृषि वानिकी में जो तकनीकें शामिल हैं, उनमें इंटरक्रॉपिंग, पशुधन व पेड़ों का एकीकरण और जैव विविधता व मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने के लिए जैविक कृषि शामिल है। यह कीटनाशकों और सिंथेटिक उर्वरकों जैसी बाहरी लागतों पर निर्भरता खत्म करने में भी मददगार है।

लेकिन सवाल है कि आखिर बहुस्तरीय खेतों का प्रारूप और उसका सर्वोत्तम उपयोग कैसे हो? थामैया डोड्डी के किसानों की सफलता इस प्रश्न का जवाब देती है। थामैया डोड्डी और अनंतपुर के अन्य गांवों में किसानों द्वारा अपनाई गई बहुस्तरीय कृषि वानिकी के डिजाइन और उपयोग के तरीके समय के साथ विकसित हुए हैं।

इस पद्धति के सबसे उपयुक्त डिजाइन किसानों, समुदायों, सरकारी विभागों और नागरिक समाज संगठनों के बीच आम सहमति पर आधारित हैं।

अनंतपुर में किसानों के साथ मिलकर दशकों काम करने वाले गैर लाभकारी संगठन ह्यूमन एंड नेचुरल रिसोर्सेज डेवलपमेंट सोसायटी (हैंड्स) के सचिव नारायण स्वामी कहते हैं कि अगर किसान प्राकृतिक कृषि आधारित बहुस्तरीय खेती में उचित डिजाइन सिद्धांतों का पालन करता है तो वह साल भर में एक एकड़ (0.4 हेक्टेयर) से ही एकल फसली वाली पांच एकड़ (दो हेक्टेयर) भूमि के बराबर अर्जित कर सकता है।

बहुस्तरीय खेती के लिए “डिजाइन” महत्वपूर्ण पहलू है क्योंकि भूमि के टुकड़े विभिन्न फसलों में वर्गीकृत नहीं हैं, बल्कि पौधे की ऊंचाई, कैनोपी और विकास के आधार पर सावधानीपूर्वक नियोजित हैं।

बंगलुरू स्थित सिविल सोसायटी संगठन सेट्री से जुड़े युवा किसान होमेंद्र कहते हैं कि पौधे इस प्रकार व्यवस्थित किए जाते हैं कि सौर ऊर्जा की प्रत्येक यूनिक का दक्षतापूर्वक उपयोग हो, साथ ही भूमि के एक-एक इंच का सदुपयोग किया जा सके।

हैंड्स, सेट्रीज और अनंतपुर स्थित गैर-लाभकारी संगठन एएफ इकोलॉजी सेंटर ने अनंतपुर जिले में बहुस्तरीय कृषि वानिकी मॉडल को डिजाइन और कार्यान्वित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

समस्याएं और समाधान

भारत पहला देश है, जिसने राष्ट्रीय कृषि वानिकी नीति को 2014 में अपनाया। तब से बहुत से सिविल सोसायटी संगठनों ने इसके बहुत से डिजाइनों को लोकप्रिय करने की कोशिश की लेकिन कम ही लोगों ने इसमें दिलचस्पी दिखाई।

अधिक शुरुआती निवेश, फसलों की लंबी अवधि, सिंचाई की जरूरत और एकल फसली व्यवस्था के मुकाबले मदद और सुनिश्चित बाजार की कमी इसकी मुख्य वजह है। लघु और सीमांत किसान अधिक शुरुआती निवेश के कारण इस पद्धति को अपनाने से बचते हैं। साथ ही इसके नतीजे भी देर से मिलते हैं।

डिग्रेडेड भूमि में इससे आय अर्जित करने की अवधि पांच वर्ष तक हो सकती है। सिंचाई भी इसकी राह की बड़ी चुनौती है।

इस व्यवस्था में सिंचाई के साधनों का इंतजाम किसानों के लिए महंगा सौदा है। हर महीने तीन ट्रिप का खर्च करीब 10 हजार रुपए आता है। भले ही स्थानीय गैर लाभकारी संगठन इस खर्च का दो तिहाई हिस्सा वहन कर लें, लेकिन फिर भी शेष खर्च का भार उठाना किसानों के बूते से बाहर है।

बहुस्तरीय खेती की आलोचना की एक मुख्य वजह यह भी है कि किसानों को इससे होने वाली अलग-अलग उपज की सीमित मात्रा बेचने के लिए बाजार, बड़ी मात्रा में होने वाली एकल फसल के मुकाबले मुश्किल से मिलता है। सेट्रीज जैसे संगठन इन चुनौतियों से पार पाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि कृषि वानिकी पद्धति को बढ़ाया जा सके, खासकर ऐसे क्षेत्रों में जहां जल संकट है व भूमि डिग्रेडेड है।

अनंतपुर में सेट्रीज और ब्रेड फॉर द वर्ल्ड व अजीम प्रेमजी फिलांथ्रोपिक इनिशिएटिव जैसे कुछ अंतरराष्ट्रीय संगठनों की मदद से किसान मुफ्त में फल और पौधे प्राप्त करने, प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भाग लेने और सिंचाई का लाभ उठाने में सक्षम हो रहे हैं।

साथ ही कार्बन वित्तपोषण का लाभ उठाने की तैयारी कर रहे हैं। इस तरह के समर्थन से अधिक से अधिक किसान इस पहल में शामिल हो गए हैं। पिछले पांच वर्षों में अनंतपुर में 2,000 से अधिक किसानों ने बहुस्तरीय कृषि वानिकी को अपनाया है।

सेट्रीज में ग्रामीण कार्यक्रमों के प्रमुख महिधर रेड्डी का कहना है कि 2016 में जब संगठन ने अनंतपुर के किसानों के साथ काम करना शुरू किया, तो वे मूंगफली की एकल फसल से तंग आ गए थे क्योंकि पैदावार साल दर साल गिर रही थी।

वह आगे बताते हैं, “स्थानीय गैर-लाभकारी संस्थाओं के कार्यों की बदौलत किसान बहुस्तरीय खेती के संभावित लाभों से अच्छी तरह परिचित थे। उन्हें बस कुछ शुरुआती मदद की जरूरत थी।” लेकिन एक-एक किसान के पास जाकर बात करने के दृष्टिकोण ने इस दिशा में आगे बढ़ने में मदद नहीं की, जिसके चलते अक्टूबर 2021 में सेट्रीज को एक “लैंडस्केप दृष्टिकोण” शुरू करना पड़ा, जिसमें किसानों का एक समूह एक साथ हस्तक्षेप करता है।

एएफ इकोलॉजी सेंटर के साथ साझेदारी कर उन्होंने “वर्षा आधारित किसान सहकारी समितियां” बनाईं और बहुस्तरीय खेती को अपनाने व संसाधनों को साझा करने में किसानों की मदद कर रहे हैं।

इस मॉडल के तहत सेट्रीज और एएफ इकोलॉजी सेंटर किसानों को पहले तीन वर्षों के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करता है। इसके बाद उनकी सहायता की आवश्यकता कम हो जाती है। उदाहरण के लिए सेट्रीज और एएफ इकोलॉजी सेंटर ने लैंडस्केप मॉडल में प्रति चार से पांच किसानों पर एक बोरवेल के लिए सहायता प्रदान करने की योजना बनाई है, ताकि प्रत्येक किसान द्वारा वहन किया जाने वाला खर्च कम हो।

हालांकि, यह दृष्टिकोण बोरवेल की उच्च विफलता दर वाले क्षेत्र के लिए कारगर नहीं हो सकता। ऐसे क्षेत्रों में किसान क्षेत्र की वर्षा और भूजल स्तर के आधार पर सूखा प्रतिरोधी फसलों का विकल्प चुन सकते हैं। उदाहरण के लिए वर्षा आधारित क्षेत्रों में अमरूद या आम की तुलना में आंवला बेहतर विकल्प होगा क्योंकि इसे कम पानी की आवश्यकता होती है।

जहां तक मार्केट लिंकेज का सवाल है तो उसका जांचा परखा जवाब है किसान समूह। इसके जरिए विभिन्न प्रकार की छोटी-छोटी उपज को बेचने के लिए भी किसानों को मोलभाव की ताकत मिलती है।

यही कारण है कि लैंडस्केप मॉडल का सामूहिकता पर खासा जोर है। हालांकि, इन समूहों को उपभोक्ताओं से जोड़ना अभी भी एक चुनौती है। किसानों को बिना नुकसान पहुंचाए ऐसे समूहों के उत्पादों को प्रतिस्पर्धी और उतार-चढ़ाव से भरे उपभोक्ता बाजार में ले जाने के लिए बाजार नवाचारों की आवश्यकता होगी। किसानों को कृषि वानिकी पद्धति में ले जाने के लिए भी सामूहिकता महत्वपूर्ण है।

लैंडस्केप मॉडल के तहत किसान समूह पर ध्यान केंद्रित करने से निर्णय लेने की प्रक्रिया आसान हो सकती है। कार्यशालाओं में किसान सामूहिक रूप से बहुस्तरीय डिजाइन के लिए अपनी पसंदीदा फसलें लेकर आते हैं। व्यक्तिगत किसानों के लिए यह तय करने की छूट है कि प्रत्येक परत में कौन सी फसलें फिट होंगी, लेकिन खेती के तरीकों, सिंचाई सुविधाओं, अच्छी गुणवत्ता वाले पौधों के चयन जैसे महत्वपूर्ण निर्णयों को सामूहिक रूप से लेने की आवश्यकता होगी।

किसानों को घनजीवामृत (गाय के गोबर और मूत्र से निर्मित) जैसे मृदा संवर्धन घटक तैयार करना भी सिखाया जाता है। ऐसे समूह का एक सफल उदाहरण अनंतपुर के अप्पेलेपल्ली गांव में है, जहां 22 किसानों ने सेट्रीज और एएफ इकोलॉजी सेंटर के सहयोग से अपनी 1.2-2 हेक्टेयर की औसत भूमि को मिलाकर लगभग 40 हेक्टेयर का अप्पेलेपल्ली रेनफेड फार्मिंग कोऑपरेटिव का गठन किया है।

यह व्यवस्थित दृष्टिकोण काफी हद तक सहभागिता पर आधारित है। इसकी विशेषताएं जमीन पर दिख रहे ठोस परिणामों से स्पष्ट हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह विस्तारयोग्य है? क्या यह रायचूर जैसी जगह पर काम करेगा, जहां अलग-अलग कृषि-जलवायु स्थितियां हैं और गंभीर भूमि क्षरण का सामना करना पड़ता है?

एएफ इकोलॉजी सेंटर के निदेशक वाईवी मल्ला रेड्डी का कहना है कि मिट्टी की विशेषताओं, पानी की गुणवत्ता और पहुंच और ढलान जैसे कारकों को ध्यान में रखते हुए हस्तक्षेप मॉडल डिजाइन होना चाहिए।

वह आगे कहते हैं, “कृषि पारिस्थितिकी फसल डिजाइन स्थानीय कृषि-जलवायु स्थितियों के साथ-साथ स्थानीय सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक स्थितियों पर आधारित होना चाहिए।”

मिट्टी को गुणवत्ता को बहाल करने और इसे किसी भी प्रकार के कृषि-स्तरीय हस्तक्षेप के लिए तैयार करने के लिए समय और संसाधनों की जरूरत होती है। यह डिग्रेडेशन की सीमा और गंभीरता के आधार पर भिन्न-भिन्न होता है। लंबी संक्रमण अवधि का मतलब है कि आवश्यक वित्त का अधिक रहना।

शुरुआती वर्षों में कम पैदावार के लिए बाजार संरचनाओं और मूल्य-संवर्धन विकल्पों की आवश्यकता होती है ताकि किसान बेहतर आय अर्जित कर सकें। हालांकि, रेड्डी इस बात पर जोर देते हैं कि पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली के लिए भी एक लैंडस्केप दृष्टिकोण की आवश्यकता है।

कृषि पारिस्थितिकी दृष्टिकोण के लिए किसानों को प्रेरित करने के लिए एक बेहतर संस्थागत मॉडल की आवश्यकता है जो भूमि बहाली, वित्त पोषण और बाजार की कमी जैसी चुनौतियों को दूर करे।

(श्यामकृष्णन पी आर्यन बंगलुरु स्थित अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरमेंट के सेंटर फॉर सोशल एंड एनवायरमेंट इनोवेशन (सीएसईआई) में फॉर्म एंड फॉरेस्ट इनिशिएटिव के बिजनेस मॉडलिंग प्रमुख हैं)