कृषि

दलहन उत्पादन में 11 फीसदी की कमी, आयात की मजबूरी लगा सकती है आत्मनिर्भरता को झटका

अरहर उत्पादन में 16 फीसदी की गिरावट आई है और अब कीमतों में बढोत्तरी की आशंका है। अनुमान है कि वर्ष 2015 की तरह अरहर की कीमतें आगे 150 रुपए प्रति किलो तक पहुंच सकती हैं।

Vivek Mishra

सरकार ने वित्त वर्ष 2021-22 के लिए आम बजट पेश करते हुए आत्मनिर्भर भारत के नारे को भले ही दोहराया हो लेकिन दालों के उत्पादन में आई कमी ने न सिर्फ कीमतों में बढने की आशंका पैदा कर दी है बल्कि ट्रेडर्स का अनुमान है कि इस वर्ष दलहनों का आयात तय किए गए कोटे से कहीं अधिक 30 लाख टन से भी ज्यादा का हो सकता है, जिसका खामियाजा पहले से ही आर्थिक संकट में घिरे किसानों को उठाना पड़ सकता है। 

कई वर्षों से लगातार खराब मौसम ने दलहनी फसलों को बड़ा झटका दिया है। वित्त वर्ष 2015-2016 में कुल 163 लाख टन ही दालों का उत्पादन हुआ था यह दशक की सबसे बड़ी गिरावट थी। इसके बाद मांग-आपूर्ति की खाई बढ़ने के कारण अक्तूबर, 2015 में दालों की कीमत 200 रुपये किलो तक पहुंच गई थी। जबकि अन्य दालों में चना, मूंग, उड़द की कीमतों में भी उछाल देखी गई थी। 

सरकार के चौथे अग्रिम अनुमान (2019-2020) के मुताबिक दलहनों का उत्पादन लक्ष्य 260 लाख टन के विरुद्ध 230 लाख टन ही रहा। यानी कुल उत्पादन में 11 फीसदी की कमी आई, जबकि सरकार के प्रथम अग्रिम अनुमान (2020-21) के मुताबिक दलहनों में अरहर महज 40 लाख टन ही पैदा हुई जबकि लक्ष्य 48 लाख टन का था। दलहनों में चने के बाद सबसे ज्यादा हिस्सेदारी करने वाले अरहर (तूर) के उत्पादन में करीब 16 फीसदी की गिरावट आई है।

किसानों को अरहर का मौजूदा भाव 6000 से 6200 प्रति क्विंतल तक मिल रहा है जो कि उनके फसल में लगी लागत और हुए घाटे को ठीक नहीं कर पाएगा। जबकि खुले बाजार में अरहर की कीमत 100 रुपए प्रति किलो तक मिल रही है।

सरकार ने आम बजट 2021-2022 में दोहराया है कि अरहर और मसूर की कीमतों को नियंत्रित रखने के लिए उन्होंने आयात के प्रतिबंधों में ढील, दालों को आयात करने के लिए लाइंसेस जारी करना, साथ ही आयात शुल्क में कटौती किया है। हालांकि, दलहनों के उत्पादन में कमी जारी है और दलहन किसानों को पर्याप्त समर्थन नहीं मिल रहा है। ऐसे में उत्पादन की कमी को आयात के जरिए ही पूरा किया जाना है।  

ऑल इंडिया दाल मिल एसोसिएशन के अध्यक्ष सुरेंद्र अग्रवाल ने डाउन टू अर्थ से बातचीत में कहा कि किसानों की लागत बढती जा रही है और उसके सापेक्ष सरकार की न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था लाभकारी नहीं बन पा रही है। तुअर और उड़द उत्पादन में किसानों का मोहभंग हुआ है। तुअर में कई वर्षों से उत्पादन स्थिर (40 लाख टन के आस-पास) है। वहीं उड़द की फसल काफी नाजुक है और उसमे मौसम की मार का जोखिम ज्यादा है। जबकि किसान अपनी उपज का अच्छा दाम चाहता है। ऐसे में यदि आज देखें तो उड़द और तुअर को 7000 रुपये का एमएसपी जब तक नहीं मिलेगा तो किसानों की उत्पादन में रुचि भी नहीं जगेगी। 

दाल के उत्पादन में आई कमी कीमतों में बढ़ोत्तरी कर सकती है। और कीमतों में नियंत्रण के लिए आयात पर निर्भरता बढ़ सकती है जो कि घरेलू उत्पादन को हतोत्साहित करेगी।

पांच प्रमुख दलहन हैं जो न्यूनतम समर्थन मूल्य के दायरे में हैं। इनमें चना, अरहर, उड़द, मूंग, मसूर शामिल हैं। कीमतों को नियंत्रित करने और आयात घटाने को लेकर रबी मार्केट सीजन 2021-2022 के लिए सरकार ने  चना का एमएसपी 4,875 रुपए से बढ़ाकर 5,100 रुपए और मसूर का 4,800 रुपए से बढ़ाकर 5,100 रुपए किया है। जबकि अरहर और उड़द का एमएसपी अभी 6000 रुपये है और मूंग का एमएसपी 7196 रुपया है।

एग्री एक्सपर्ट संदीप दास ने डाउन टू अर्थ को बताया कि फिलहाल किसानों को अरहर का भाव एमएसपी से ज्यादा मिल रहा है। वहीं, एमएसपी पर दलहनों की सबसे ज्यादा खरीद करने वाली एजेंसी नेशनल एग्रीकल्चरल को-ऑपरेटिव मार्केटिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया (नेफेड) के पास अभी बिक्री के लिए कोई नहीं पहुंच रहा है।

दास ने कहा कि अनियंत्रित मौसम के कारण इस बार प्रमुख दलहन उत्पादक राज्य महाराष्ट्र और कर्नाटक में फसलों को काफी नुकसान हुआ। उत्पादन में कमी यह दर्शाता है कि वर्ष के अंत तक खासतौर से प्रीमियम दाल यानी अरहर का भाव 130-50 रुपए किलो तक भी पहुंच सकता है। 

सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढाने के अलावा दक्षिण अफ्रीका के मोजेंबक से पांच साल के लिए दाल आयात का करार किया था, जिसे पूरा हो जाने के बाद सरकार ने फिर से समीक्षा की है। इसका मकसद कीमतों में स्थिरता है साथ ही प्राइस सपोर्ट स्कीम के तहत किसानों को एमएसपी मुहैया कराना है। 

सुरेंद्र अग्रवाल ने बताया कि इस वर्ष अरहर की दाल का कुल आयात करीब 6 लाख टन हो रहा है जो कि बीते वर्ष से काफी ज्यादा है। यह और बढ़ सकता है।

इंडिया पल्सेस एंड ग्रेंस एसोसिएशन (आईपीजीए) के सदस्य बिमल कोठारी ने डाउन टू अर्थ से बातचीत में कहा कि कृषि क्षेत्र में आत्मनिर्भरता बहुत ही विषयात्मक चीज है, पता नहीं कब मौसम खराब हो जाए और बाहर से हमें आयात करना पड़ जाए। एक खराब मानसून हमें आत्मनिर्भरता से दूर कर सकता है। बढ़ती हुई जनसंख्या और आर्थिक पहलू पर सुधार होने से पोषण की आपूर्ति के लिए भी मांग बढ़ेगी। अनुमान के मुताबिक साल में दलहन की मांग में करीब 10 लाख टन का इजाफा होता है। यहां परेशानी है कि हमारे पास उत्पादन वाले स्थानों पर बफर स्टॉक के लिए सरंचनाएं नहीं हैं।

सामाजिक कल्याण के लिए दालों की खरीद और उन्हें राज्यों में योजनाओं जैसे मिड डे मील आदि के वितरण के लिए सरकार ने अपने बजट में भी 50 से ज्यादा फीसदी की कटौती की है। इस बार आम बजट में महज 300 करोड़ रुपये का प्रस्ताव रखा है जबकि बीते वित्त वर्ष 2019-2020 में इस मद में 800 करोड़ रुपए का प्रस्ताव किया गया था। 

कृषि मामलों के जानकार देवेंदर शर्मा ने डाउन टू अर्थ से बातचीत में कहा कि ऐसे वक्त में जब गरीबों को पोषण की सबसे ज्यादा जरुरत है तो यह कटौती भारी पड़ सकती है। मसलन राज्य अपने गरीबों को सस्ती दालें नहीं उपलब्ध करा पाएंगे।  

दलहनों में सबसे ज्यादा उत्पादन चने का होता है। 2019-2020 में चना का उत्पादन 113.5 लाख टन है। यह दशक का दूसरा सबसे ज्यादा उत्पादन है। जबकि किसानों को बाजार में इसके भाव नहीं मिल रहे हैं। हालांकि सरकार ने 15 मार्च, 2021 से चने की खरीददारी करने को कहा है। 

संदीप दास के मुताबिक दलहनों की बड़ी खरीद करने वाली नेफेड ने 2014-2015 से 2019-20 तक 38 लाख किसानों से 76.3 लाख टन दाल खरीदी है और बफर स्टॉक को ओपेन मार्केट सेल स्कीम के तहत घाटे पर बेचा है। यह न सिर्फ बाजार में कीमतों को प्रभावित करता है बल्कि प्राइवेट उद्यमों को सीधा किसानों से दलहन खरीदने की प्रक्रिया को हतोत्साहित भी करता है।

आम बजट से पहले एक बड़ी मांग थी कि दलहनों को पीडीएस में शामिल किया जाए लेकिन दालों को इसमें शामिल नहीं किया गया। बिमल कोठारी ने कहा कि लॉकडाउन के दर्मियान 80 करोड़ लोगों को एक किलो दाल सरकार की ओर से बांटी गई थी। यह तथ्य सोचने पर मजबूर करता है कि अब भी बड़ी तादाद पोषण के लिए दाल का खर्च वहन नहीं कर सकती है।  

मध्य प्रदेश, यूपी, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़, बिहार, महाराष्ट्र, उड़ीसा, राजस्थान और तमिलनाडु प्रमुख दाल उत्पादक राज्य हैं। यह सभी राज्य कुल दाल उत्पादन में 96 फीसदी की हिस्सेदारी करते हैं। ऐसे में इन राज्यों में दलहन का संकट और ज्यादा परेशानी में डाल सकता है।