मौत बांटती मिल

पंजाब के गढ़शंकर ब्लॉक में 30 साल से चल रही पेपर मिल कैंसर, सांस की बीमारियां और आंखों की रोशनी छीन रही है
पंजाब के सैलाखुर्द के पास चल रही मिल पानी और हवा खराब कर रही है जिसके कारण सैकड़ों जानें जा चुकी हैं (फ़ोटो: विकास चौधरी / सीएसई)
पंजाब के सैलाखुर्द के पास चल रही मिल पानी और हवा खराब कर रही है जिसके कारण सैकड़ों जानें जा चुकी हैं (फ़ोटो: विकास चौधरी / सीएसई)
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पंजाब के गढ़शंकर ब्लॉक के सैला खुर्द और आसपास के गांवों में भयंकर बदबू और अजीब-सी चुप्पी पसरी है। स्थानीय लोगों का कहना है कि इन गांवों में सैकड़ों लोग कैंसर और सांस की बीमारियों से पीड़ित हैं, युवाओं की आंखें कमजोर हो रही हैं और बच्चे मानसिक विकृतियों के शिकार हो रहे हैं। लोगों की पीड़ा की तरफ किसी का ध्यान नहीं है।

लोगों का कहना है कि सैला खुर्द में इन बीमारियों की जिम्मेदार क्वांटम पेपर्स लिमिटेड की पल्प और पेपर मिल है। क्षेत्र में पिछले 30 साल से अधिक समय से चल रहा यह अकेला उद्योग है।

सूचना के अधिकार के कार्यकर्ता परिवंदर सिंह किट्टना ने मिल के आसपास के गांवों में रह रहे और जानलेवा बीमारियों से जूझ रहे लोगों का लेखा-जोखा तैयार किया है। वह बताते हैं कि सैला खुर्द में पिछले आठ साल के दौरान करीब 200 लोग कैंसर और 172 लोग सांस की बीमारियों से अपनी जान गंवा चुके हैं। 750 लोगों की आबादी वाले पड़ोस के गांव रानियाला में करीब 100 लोग सांस की बामारियों से पीड़ित हैं, 6 लोग अपनी दृष्टि गंवा चुके हैं और 14 बच्चे मानसिक विकृति के शिकार हैं। मिल से दो किलोमीटर दूर स्थित डांसीवाल गांव में छह साल में 50 लोग अपनी जान गंवा चुके हैं।

किट्टना का दावा है कि मिल के आसपास के गांवों में कैंसर का फैलाव पूरे पंजाब की दर (एक लाख की आबादी में 90) से अधिक है।

रानियाला गांव के जसविंदर सिंह बताते हैं कि लोग इसलिए बीमारियों से पीड़ित हैं क्योंकि मिल ने भूमिगत जल से लेकर मिट्टी तक सब कुछ प्रदूषित कर दिया है। सैला खुर्द के मोहित गुप्ता के अनुसार, लोग मिल के प्रभाव से 2011 में तब जागरुक हुए जब सैला खुर्द के बोरवेल से काला पानी आने लगा। थोड़ी बहुत जांच में हमने पाया कि मिल संचालक गांव के एक बोरवेल में मिल की गंदगी डाल रहे हैं। लोगों ने इसका विरोध बड़े स्तर पर विरोध किया। इसके बाद भी मिल संचालकों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। इसके बाद मिल के अधिकारियों ने शोधित पानी आसपास के गांवों के किसानों को मुफ्त में मुहैया करा दिया और विरोध दरकिनार कर दिया गया। किसानों के लिए यह फायदे का सौदा था क्योंकि वे मिल शुरू होने के बाद से पानी के लिए संघर्ष कर रहे थे। लेकिन शायद वह हमारी सबसे बड़ी भूल थी।

रानियाला गांव के मक्के की खेती करने वाले एक किसान बताते हैं, “मिल से आधा किलोमीटर तक अब हम केवल एक तिहाई फसल ही काटते हैं। फसलें विकसित नहीं हो पाती और उत्पादकता बहुत कम हो गई है।” वह बताते हैं कि मिल का दावा है कि वह खेती के लिए शोधित पानी की आपूर्ति करती है लेकिन कई बार खेत में फैली अजीब बदबू से हमारी आंखें खुलती हैं। इससे पता चलता है कि पानी सुरक्षित नहीं है। जहरीली फसल के डर से लोगों ने अपने खेत की फसलें ही खानी बंद कर दी हैं। वे अपनी फसल बेच रहे हैं और अपने लिए दूसरे ब्लॉक से अनाज और सब्जियां खरीद रहे हैं। मिल के पास लोग अपने पशुओं को भी चरने नहीं देते।



भगत सिंह का आरोप है, “मिल ने हवा भी खराब कर दी है। कुछ समय पहले मेरा 20 साल का भाई अपनी बाईं आंख की रोशनी खो चुका है। डॉक्टरों का कहना है कि राख की वजह से ऐसा हुआ है।” उनके पड़ोसी लियाकत अली बताते हैं कि मिल द्वारा फैलाई जा रही राख ने सभी घरों, सड़कों और यहां तक कि पौधों को भी अपनी जद में ले रखा है। फर्श को तीन-चार बार साफ करने के बाद भी राख नहीं हटती। अली ने मई में पंजाब के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को मिल की शिकायत की थी। अली का आरोप है कि इसके बाद से उन्हें धमकियां मिल रही हैं।

मिल में पर्यावरण विभाग के प्रमुख बाबू राम बताते हैं कि अली “पैसों के लिए हमें ब्लैकमेल” करते हैं। राम कहते हैं कि पिछले तीन साल में कैंसर, कालरा, हेपिटाइटिस और टाइफाइड से कोई मौत नहीं हुई है। राम की बातों का सरकारी अधिकारी भी समर्थन करते हैं। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के स्थानीय कार्यालय में पर्यावरण अभियंता अशोक गर्ग कहते हैं, “हम मामले को देख रहे हैं लेकिन लगता है कि शिकायतकर्ता मिल मालिकों से पैसों की उगाही की कोशिश कर रहे हैं।” गर्ग मानते हैं कि मिल ने हमेशा दिशानिर्देशों का पालन किया है।

ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर समस्या कहां है। यह जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने मिल की पृष्ठभूमि की पड़ताल की। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड पेपर मिल को सर्वाधिक प्रदूषण फैलाने वाले 17 उद्योगों में से एक मानता है। ब्लीचिंग प्रक्रिया में विवादास्पद क्लोरीन या लकड़ी के बुरादे से हल्का कागज बनाने के लिए वाइटनिंग के इस्तेमाल के लिए अक्सर इस उद्योग की आलोचना होती है। आमतौर पर मिलें ब्लीचिंग में एलिमेंटल क्लोरीन का इस्तेमाल करती हैं। लेकिन इस प्रक्रिया में ऑर्गेनिक हेलाइड्स जैसे कई बार विषैले तत्व निकलते हैं जो कैंसर का कारण बनते हैं। 2015 में दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट ने पाया था कि क्वांटम एक टन कागज का उत्पादन करने के लिए औसतन 155.2 किलोग्राम एलिमेंटल क्लोरीन का इस्तेमाल कर रहा है। कृषि आधारित पेपर मिल बनाने वाली दूसरी सबसे बड़ी मिल 100 किलोग्राम क्लोरीन का इस्तेमाल कर रही थी।

राम प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पूर्व सदस्य भी हैं। वह बताते हैं कि जब से मिल ने एलिमेंटल क्लोरीन मुक्त तकनीक अपनाई है, वह ब्लीचिंग के लिए क्लोरीन डाईऑक्साइड इस्तेमाल कर रही है। उनके अनुसार, “इससे ऑर्गेनिक हेलाइड्स का स्तर कम हुआ है।” जून में पर्यावरणविद एवं प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सदस्य बलबीर सिंह सीचेवाला ने किट्टना का पत्र मिलने के बाद ब्लॉक का दौरा किया था। सीचेवाला के सहयोगी सुखजीत सिंह बताते हैं, “उन्होंने राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और लोगों को अलग से अध्ययन करने को कहा था ताकि नतीजों का तुलनात्मक अध्ययन किया जा सके।” इस सबके बीच स्थानीय निवासी नहीं जानते कि दोषियों को ढूंढ़ने में कौन उनकी मदद करेगा।

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